छोड़ें नहीं उम्मीद का दामन
बुजुर्गों से सुना था कि उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। सो, उम्मीद के उसी दामन को थामे मैं भी आगे बढ़ा। सुबह नित्य क्रिया कर्म से निवृत्त होकर मैं फिर कमल के घर की ओर चल दिया। पूरे दिन वही पोस्टर बनाने का सिलसिला चला और रात में तारा देवी गुप्ता के स्टेज प्रोग्राम की कम्पेयरिंग कर देर रात घर वापिस आया। तारा देवी ने कहा था कि आगे जब भी प्रोग्राम होगा वह मुझे खबर करवा देंगी। अगले दिन सुबह उठा तो कोई तय कार्यक्रम नहीं था। पिताजी के आफिस जाने के बाद घर से निकला तो कचहरी में मेराज के बस्ते पर जा पहुंचा। मेराज बड़ी ही तन्मयता के साथ वादकारियों के वकालतनामे और अप्लीकेशने लिखने में लगा था। मुकदमों से सम्बंधित तरह तरह के फार्म थे जिन्हें वह भर रहा था। हर एक फार्म भरने के उसे दो रुपये मिलते थे। अपने काम के बीच से ही समय निकाल कर वह मुझे चाय पिलाने ले गया। चाय पीने के दौरान मैने उससे कहा कि वह मुझे भी कोई काम बताए। ....मेराज ने मुझे आश्वस्त किया कि वह अपने वकील साहब से इस बारे में बात करेगा।
इसी तरह घूमते फिरते फिरते दिन गुजर गया। शाम को घर पहुंचा तो पिताजी कचहरी से बापिस आ चुके थे। मां, उनके लिए चाय और भूजा बनाने में लगी थी। शाम के नाश्ते में पिताजी अक्सर भूजा ही लेते थे। भूजे का मतलब होता था भूने हुए चने मुरमुरे और उसमें बारीक कटी प्याज के साथ लहसुन में पिसी लाल या हरी मिर्च को मिला कर थोड़ा सा कच्चा सरसों का तेल और नमक........क्या गजब का स्वाद होता था उस भूजे में, जिसे पुरानी यादें ताजा करने के लिए मैं आज भी कभी कभी खाता हूं।
उस शाम भी मैं अपने दोनों छोटे भाई बहनों के साथ पिताजी के साथ भूजा खाने के लिए बैठ गया था। .....और पिता जी ने हमेशा की तरह अपने बचपन के किस्से सुनाने शुरू कर दिये थे।...........सच, गर्दिश के दिनों मं बीता हुआ कल और उसकी यादें जीने का एक बहुत बड़ा सहारा होती हैं। यह बात अब जाकर हमारी समझ में आई, उस समय तो जब पिताजी अपने बीते दिनों के किस्से सुनाते थे तो बड़ी बोरियत महसूस होती थी लेकिन वह एक ही किस्से को सौ बार सुना कर भी नहीं थकते थे........।
उस दिन भी पिताजी बता रहे थे कि कि राजशाही के दौर में जब उन्होंने मैट्रिक पास कर लिया तो उनके पिताजी ने कहा कि वह नौकरी के लिए दरबार में राजा साहब के सामने पेश हों। .....चूंकि उस समय तक पिताजी के सहपाठी कुंवर विभूति नारायण सिंह का राजतिलक हो चुका था, इस लिए वह ही महाराजा बनारस थे। ऐसे में पिता जी की समस्या यह थी कि वह अपने दोस्त के सामने किस तरह दरबार में झुक कर फर्शी बजाएंगे (फर्शी, राजा महाराजाओं के दरबार में राजा को दिया जाने वाला वह सम्मान है जिसमें राजा के सामने आने वाला शख्स घुटनों तक झुक कर अपने दाएं हाथ को सलाम करने की मुद्रा में कई बार माथे तक लेजाते हुए महाराज की जय हो शब्द का उच्चारण करता है)। यही वजह थी कि पिताजी ने अपने पिताजी को उस समय साफ-साफ यह कह दिया कि नौकरी मिले या न मिले, वह दरबार में फर्शी बजाने नहीं जाएंगे। इस पर, पिता जी के पिताजी, यानि हमारे बाबा जी ने उन्हें समझाया कि दरबार में महाराजा विभूति नारायण सिंह तुम्हारे दोस्त और सहपाठी नहीं बल्कि इस स्टेट के राजा होते हैं और राजा की गद्दी का सम्मान करना प्रजा का धर्म होता है। और फिर जब हम नौकरी करते हैं तो हम नौकर ही होते हैं और नौकर चाहे दस पैसे का हो या दस लाख का, नौकर सिर्फ नौकर होता है। नौकर की अपनी कोई हैसियत नहीं होती। शास्त्र भी यही बताते हैं। दरबार में तुम महाराजा बनारस के सामने फर्शी बजाओगे अपने दोस्त या सहपाठी के सामने नहीं।
पिताजी ने आगे बताया था कि वह काफी समझाने बुझाने के बाद नौकरी की दरख्वास्त लेकर महाराजा बनारस के दरबार में पेश हुए और उनकी दरख्वास्त पर महाराजा बनारस ने तत्काल उन्हें बनारस स्टेट के गाड़ीखाने का इंचार्ज बना दिया था। इस नियुक्ति के साथ ही पिता को यह आदेश भी मिला था कि गाड़ीखाने का सारा काम देखने के साथ ही साथ उन्हें दिन और रात में राजा साहब की मर्जी के अनुसार उनके साथ बैडमिंटन और फुटबाल खेलना होगा।
इस तरह मेरे पिताजी को उनकी पहली नौकरी मिली थी। उनका अधिकांश समय बनारस में गंगापार रामनगर के किले में ही बीतता था। वह यह भी बताते थे कि एक समय जब हमारे बाबा जी जीवित थे और हमारी दादी बाजार में खरीदारी करने जाती थीं तो आठ घोडों की फिटन उन्हें लेने आती थी, और पूरा बाजार खाली करा दिया जाता था। ...............सचमुच संपन्नता और रुतबे से भरी जिंदगी की यादों को कौन भुलाना चाहेगा। ..और फिर गुरबत के दिनों को उन यादों के सहारे यह सोचते हुए बिताना थोड़ा आसान हो जाता है कि , आज नहीं है, तो क्या हुआ। हमें मलाल नहीं कि हमने रईसी नहीं देखी।
एक और खासबात यह कि पिताजी जब राजशाही खत्म होने के बाद अपने स्ट्रगल के किस्से सुनाते थे जो उसमें एक अलग तरह का थ्रिल , एक अलग तरह का रोमांच तो होता ही था, साथ ही उनकी साफगोई भी झलकती थी। वह बताते थे कि राजशाही खत्म होने के बाद जब उनके पिताजी का देहावसान हो गया और वह लोग रामनगर से बनारस आ गए तो परिवार में सबसे बड़े होने के नाते अपने आठ भाई बहनों और मां की परवरिश की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी। राजशाही गई तो नौकरी भी चली गई। इधर उधर दौड़भाग कर किसी तरह रोडवेज में कंडेक्टर हो गए। बनारस से चकिया के रूट पर उनकी ड्यूटी लगी। कंडक्टरी की नौकरी में मिलने वाली तनख्वाह से इतने बड़े परिवार का गुजार कैसे चले इस लिए हमेशा उधेड़बुन रहती थी। इसी बीच उन्हें एक ऐसा ड्राइवर मिला जो बेहद तेज था। उसी ने पिता जी को बताया कि किस तरह सरकारी नौकरी में ऊपर की कमाई की जाती है। पिताजी बताते थे कि उस ड्राइवर के इशारे पर वह किस तरह बिनाटिकट यात्री ले जाते थे और उससे होने वाली अतिरिक्त कमाई से अपने भाई बहनों के लिए चकिया के मशहूर लडडुओं की हांडी, जिसे पाकर भाई बहनों के चेहरों पर आने वाली खुशी उन्हें उनके द्वारा की जाने वाली चोरी का अहसान नहीं होने देती थी। ...लेकिन साथ ही वह मुझे यह हिदायत भी देते जाते थे कि चोरी और बेईमानी की कमाई में बरकत नहीं होती। कभी भी बुरे दिन आएं तो उम्मीद का दामन नहीं छोडना चाहिए क्यों कि हर अंधेरी रात के बाद सुबह होती है....जिसे उम्मीद होती है, वही सुबह की रोशनी देखता है, जिसके हाथ से छूट जाता है उम्मीदों का दामन , वह खो जाता है अंधेरों में.......।
आज सोचता हूं, कि जिंदगी में सट्रगल के अपने किस्से सुनाने के पीछे शायद पिताजी का एक मकसद होता था। वह मुझे सिर्फ किस्से नहीं सुनाते थे, बल्कि मुझे आने वाली जिंदगी से जूझने के लिए मानसिक रूप से तैयार करते थे, मुझे ताकत देते थे।
(क्रमश:)
व्यंग्य
मंदिर-मस्जिद और कमला
जाने क्यूं मुझे मंदिर-मस्जिद और कमला में कोई फर्क नजर नहीं आता। अब सवाल यह होगा कि कमला कौन है। शायद आप भी भूल गए होंगे कमला को। मैं उसी कमला की बात कर रहा हूं, जिसे एक पत्रकार सत्तर के दशक में मध्यप्रदेश के किसी सुदूर गांव में लगने वाली औरतों और लड़कियों की हाट से खरीद कर लाया और फिर देखते ही देखते कमला पूरे देश में छा गई।
अखबारों में कमला पर बड़े-बड़े संपादकीय छपे, राजनीतिज्ञों ने कमला के नाम पर जिंदा गोश्त की खरीद-फरोख्त के विरुद्ध धरना, प्रदर्शन और ज्ञापनों का हड़बोंग किया और अपनी नेतागीरी चमकाई। कविताएं, कहानियां, नाटक और उपन्यास ही नहीं, कमला को लेकर फिल्म तक बनी और लोगों ने लाखों कमाए। अपने आप को प्रतिष्ठित किया। उधर कमला को खरीद कर लाने वाले पत्रकार रातों रात खोजी पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। लेकिन कमला.........! उसका कुछ पता नहीं कि वह नारीनिकेतन की गलाजत भरी जिंदगी से भागने के बाद कहां गई....किसी ने यह जानने का प्रयास भी नहीं किया। ठीक इसी तरह हमारी भारतीय जनता पार्टी, जिसने जनसंघ से भाजपा होने तक का सफर कमला अर्थात किसी ऐसे मुद्दे (मंदिर-मस्जिद) की तलाश में बिताया, जो उसे किसी शक्तिशाली राकेट की तरह अंतरिक्ष रूपी सत्ता में प्रतिस्थापित कर दे।....और फिर वह दिन भी आया, जब भाजपाई अपनी सिस्टर इकाई विश्व हिंदू परिषद के माध्यम से एक कमला उठा लाए। या यूं कहिए कि राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद का मुद्दा उठा लाए। फिर वही सत्तर के दशक का सा वातावरण बना। अखबारों में बडे बडे संपादकीय लिखे जाने लगे। धरना प्रदर्शन और ज्ञापन के जरिए तमाम सड़कछाप लोग नेता बन गए। रथ यात्राओं से लेकर पथ यात्राओं तक न जाने क्या क्या हंगामे हुए। ....और नतीजा बिल्कुल वही, जैसे कमला को लाने वाला पत्रकार रातों रात खोज पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था उसी तरह भारतीय जनता पार्टी भी एक बड़ी सशक्त पार्टी के रूप में प्रतिष्ठापित हो गई। कई स्थानों पर सत्ता भी हथिया ली।
इस सब के बाद पत्रकार अर्थात मीडिया और भाजपा की स्थित में कमला को लेकर बहुत जरा सा परिवर्तन आया और वह यह कि जहां मीडिया ने अपने व्यापार के लिए दुधारू गाय के रूप में मिली कमला को लेकर यह मन बना लिया कि कमला चुक जाएगी तो उसकी जगह थाने में बलात्कार का शिकार हुई मथुरा होगी। मथुरा नहीं तो शालनी, कुसुम, बेलछी, सुंदूर या फिर कुम्हेर जैसा कुछ........।
उधर भाजपा के पास सिर्फ कमला यानि राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद है। जब चाहेंगे वह इस कमला के बदन के एक भाग से कपडे हटाएंगे और फिर चीखेंगे...देखो, लड़की नंगी है, हमे इसे कपड़े पहनाने हैं। वो लोग हमे कपड़े नहीं पहनाने दे रहे है। और अगर किन्हीं परिस्थियों में यह कमला चुक गई तो मथुरा और काशी विश्वनाथ मंदिर जैसी तमाम कमलाएं वह और जुटा लेंगे। व्यापार चलता रहेगा। कहीं कुछ नहीं बदलेगा। कमला, मथुरा, शालनी, कुसुम, बेलछी, सुन्दूर, कुम्हेर, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद, काशी विश्वनाथ, सब एज इट इज...।
जो होगा या हो रहा है, उसमें कमला के बाद दलितो व स्त्रियों के मामलों को आर्थिक सामाजिक एवं राजनीतिक लाभ उठाने का जरिया बना लिया गया। कमोबेश मंदिर-मस्जिद की स्थिति भी यही है।...रही मीडिया और जनता के ताजा दृष्टिकोण की बात तो वहां मीडिया की स्थिति तो जगजाहिर है....एक ही पन्ने पर एक ही समाचार में यह लिखा होगा कि राम जन्मभूमि देश की धार्मिक एवं सांस्कृतिक अस्मिता का प्रश्न है और इस अस्मिता को बचाए रखना बहुत जरूरी है... गर्भगृह पर ही मंदिर निर्माण होना चाहिए। साथ ही यह भी लिखेंगे कि मंदिर निर्माण की बात करने वाले सांप्रदायिक है। गर्भगृह पर मंदिर बना तो वह एक संप्रदाया विशेष के प्रति अन्याय होगा।......वास्तव में बंदनीय है हमारा मीडिया। पूरी तरह निश्पक्ष। इतना निष्पक्ष कि उसका अपना कोई दृष्टिकोण ही नहीं। थाली में जिधर ढलान मिली बैंगन उसी ओर लुढक गया।
इस तरह यह बात पूरी तरह साफ हो जाती है कि आज मंदिर मस्जिद, कमला अर्थात धर्म शोषित और दलित गांव से लेकर केंद्र (दिल्ली) तक सत्तासित का नियामक तत्व है। इसी लिए चतुर राजनीतिज्ञों एवं धंधेबाज साम्प्रदायिक गुटों ने उनके अस्तित्व के सबसे छुद्र और संकीर्ण पहलुओं को उभारा, जिसका परिणाम सामने है...इस लिए जरूरी है कि मंदिर-मस्जिद और कमला पर नए सिरे से विचार हो।
(अमर उजाला के 4-8-1992 के अंक में प्रकाशित)