Thursday, January 22, 2009


छोड़ें नहीं उम्‍मीद का दामन

बुजुर्गों से सुना था कि उम्‍मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। सो, उम्‍मीद के उसी दामन को थामे मैं भी आगे बढ़ा। सुबह नित्‍य क्रिया कर्म से निवृत्‍त होकर मैं फिर कमल के घर की ओर चल दिया। पूरे दिन वही पोस्‍टर बनाने का सिलसिला चला और रात में तारा देवी गुप्‍ता के स्‍टेज प्रोग्राम की कम्‍पेयरिंग कर देर रात घर वापिस आया। तारा देवी ने कहा था कि आगे जब भी प्रोग्राम होगा वह मुझे खबर करवा देंगी। अगले दिन सुबह उठा तो कोई तय कार्यक्रम नहीं था। पिताजी के आफिस जाने के बाद घर से निकला तो कचहरी में मेराज के बस्‍ते पर जा पहुंचा। मेराज बड़ी ही तन्‍मयता के साथ वादकारियों के वकालतनामे और अप्‍लीकेशने लिखने में लगा था। मुकदमों से सम्‍बंधित तरह तरह के फार्म थे जिन्‍हें वह भर रहा था। हर एक फार्म भरने के उसे दो रुपये मिलते थे। अपने काम के बीच से ही समय निकाल कर वह मुझे चाय पिलाने ले गया। चाय पीने के दौरान मैने उससे कहा कि वह मुझे भी कोई काम बताए। ....मेराज ने मुझे आश्‍वस्‍त किया कि वह अपने वकील साहब से इस बारे में बात करेगा।
इसी तरह घूमते फिरते फिरते दिन गुजर गया। शाम को घर पहुंचा तो पिताजी कचहरी से बापिस आ चुके थे। मां, उनके लिए चाय और भूजा बनाने में लगी थी। शाम के नाश्‍ते में पिताजी अक्‍सर भूजा ही लेते थे। भूजे का मतलब होता था भूने हुए चने मुरमुरे और उसमें बारीक कटी प्‍याज के साथ लहसुन में पिसी लाल या हरी मिर्च को मिला कर थोड़ा सा कच्‍चा सरसों का तेल और नमक........क्‍या गजब का स्‍वाद होता था उस भूजे में, जिसे पुरानी यादें ताजा करने के लिए मैं आज भी कभी कभी खाता हूं।
उस शाम भी मैं अपने दोनों छोटे भाई बहनों के साथ पिताजी के साथ भूजा खाने के लिए बैठ गया था। .....और पिता जी ने हमेशा की तरह अपने बचपन के किस्‍से सुनाने शुरू कर दिये थे।...........सच, गर्दिश के दिनों मं बीता हुआ कल और उसकी यादें जीने का एक बहुत बड़ा सहारा होती हैं। यह बात अब जाकर हमारी समझ में आई, उस समय तो जब पिताजी अपने बीते दिनों के किस्‍से सुनाते थे तो बड़ी बोरियत महसूस होती थी लेकिन वह एक ही किस्‍से को सौ बार सुना कर भी नहीं थकते थे........।
उस दिन भी पिताजी बता रहे थे कि कि राजशाही के दौर में जब उन्‍होंने मैट्रिक पास कर लिया तो उनके पिताजी ने कहा कि वह नौकरी के लिए दरबार में राजा साहब के सामने पेश हों। .....चूंकि उस समय तक पिताजी के सहपाठी कुंवर विभूति नारायण सिंह का राजतिलक हो चुका था, इस लिए वह ही महाराजा बनारस थे। ऐसे में पिता जी की समस्‍या यह थी कि वह अपने दोस्‍त के सामने किस तरह दरबार में झुक कर फर्शी बजाएंगे (फर्शी, राजा महाराजाओं के दरबार में राजा को दिया जाने वाला वह सम्‍मान है जिसमें राजा के सामने आने वाला शख्‍स घुटनों तक झुक कर अपने दाएं हाथ को सलाम करने की मुद्रा में कई बार माथे तक लेजाते हुए महाराज की जय हो शब्‍द का उच्‍चारण करता है)। यही वजह थी कि पिताजी ने अपने पिताजी को उस समय साफ-साफ यह कह दिया कि नौकरी मिले या न मिले, वह दरबार में फर्शी बजाने नहीं जाएंगे। इस पर, पिता जी के पिताजी, यानि हमारे बाबा जी ने उन्‍हें समझाया कि दरबार में महाराजा विभूति नारायण सिंह तुम्‍हारे दोस्‍त और सहपाठी नहीं बल्कि इस स्‍टेट के राजा होते हैं और राजा की गद्दी का सम्‍मान करना प्रजा का धर्म होता है। और फिर जब हम नौकरी करते हैं तो हम नौकर ही होते हैं और नौकर चाहे दस पैसे का हो या दस लाख का, नौकर सिर्फ नौकर होता है। नौकर की अपनी कोई हैसियत नहीं होती। शास्‍त्र भी यही बताते हैं। दरबार में तुम महाराजा बनारस के सामने फर्शी बजाओगे अपने दोस्‍त या सहपाठी के सामने नहीं।
पिताजी ने आगे बताया था कि वह काफी समझाने बुझाने के बाद नौकरी की दरख्‍वास्‍त लेकर महाराजा बनारस के दरबार में पेश हुए और उनकी दरख्‍वास्‍त पर महाराजा बनारस ने तत्‍काल उन्‍हें बनारस स्‍टेट के गाड़ीखाने का इंचार्ज बना दिया था। इस नियुक्ति के साथ ही पिता को यह आदेश भी मिला था कि गाड़ीखाने का सारा काम देखने के साथ ही साथ उन्‍हें दिन और रात में राजा साहब की मर्जी के अनुसार उनके साथ बैडमिंटन और फुटबाल खेलना होगा।
इस तरह मेरे पिताजी को उनकी पहली नौकरी मिली थी। उनका अधिकांश समय बनारस में गंगापार रामनगर के किले में ही बीतता था। वह यह भी बताते थे कि एक समय जब हमारे बाबा जी जीवित थे और हमारी दादी बाजार में खरीदारी करने जाती थीं तो आठ घोडों की फिटन उन्‍हें लेने आती थी, और पूरा बाजार खाली करा दिया जाता था। ...............सचमुच संपन्‍नता और रुतबे से भरी जिंदगी की यादों को कौन भुलाना चाहेगा। ..और फिर गुरबत के दिनों को उन यादों के सहारे यह सोचते हुए बिताना थोड़ा आसान हो जाता है कि , आज नहीं है, तो क्‍या हुआ। हमें मलाल नहीं कि हमने रईसी नहीं देखी।
एक और खासबात यह कि पिताजी जब राजशा‍ही खत्‍म होने के बाद अपने स्‍ट्रगल के किस्‍से सुनाते थे जो उसमें एक अलग तरह का थ्रिल , एक अलग तरह का रोमांच तो होता ही था, साथ ही उनकी साफगोई भी झलकती थी। वह बताते थे कि राजशाही खत्‍म होने के बाद जब उनके पिताजी का देहावसान हो गया और वह लोग रामनगर से बनारस आ गए तो परिवार में सबसे बड़े होने के नाते अपने आठ भाई बहनों और मां की प‍रवरिश की जिम्‍मेदारी भी उन्‍हीं की थी। राजशाही गई तो नौकरी भी चली गई। इधर उधर दौड़भाग कर किसी तरह रोडवेज में कंडेक्‍टर हो गए। बनारस से चकिया के रूट पर उनकी ड्यूटी लगी। कंडक्‍टरी की नौकरी में मिलने वाली तनख्‍वाह से इतने बड़े परिवार का गुजार कैसे चले इस लिए हमेशा उधेड़बुन रहती थी। इसी बीच उन्‍हें एक ऐसा ड्राइवर मिला जो बेहद तेज था। उसी ने पिता जी को बताया कि किस तरह सरकारी नौकरी में ऊपर की कमाई की जाती है। पिताजी बताते थे कि उस ड्राइवर के इशारे पर वह किस तरह बिनाटिकट यात्री ले जाते थे और उससे होने वाली अतिरिक्‍त कमाई से अपने भाई बहनों के लिए चकिया के मशहूर लडडुओं की हांडी, जिसे पाकर भाई बहनों के चेहरों पर आने वाली खुशी उन्‍हें उनके द्वारा की जाने वाली चोरी का अहसान नहीं होने देती थी। ...लेकिन साथ ही वह मुझे यह हिदायत भी देते जाते थे कि चोरी और बेईमानी की कमाई में बरकत नहीं होती। कभी भी बुरे दिन आएं तो उम्‍मीद का दामन नहीं छोडना चाहिए क्‍यों कि हर अंधेरी रात के बाद सुबह होती है....जिसे उम्‍मीद होती है, वही सुबह की रोशनी देखता है, जिसके हाथ से छूट जाता है उम्‍मीदों का दामन , वह खो जाता है अंधेरों में.......।
आज सोचता हूं, कि जिंदगी में सट्रगल के अपने किस्‍से सुनाने के पीछे शायद पिताजी का एक मकसद होता था। वह मुझे सिर्फ किस्‍से नहीं सुनाते थे, बल्कि मुझे आने वाली जिंदगी से जूझने के लिए मानसिक रूप से तैयार करते थे, मुझे ताकत देते थे।

(क्रमश:)

व्‍यंग्‍य
मंदिर-मस्जिद और कमला
जाने क्‍यूं मुझे मंदिर-मस्जिद और कमला में कोई फर्क नजर नहीं आता। अब सवाल यह होगा कि कमला कौन है। शायद आप भी भूल गए होंगे कमला को। मैं उसी कमला की बात कर रहा हूं, जिसे एक पत्रकार सत्‍तर के दशक में मध्‍यप्रदेश के किसी सुदूर गांव में लगने वाली औरतों और लड़कियों की हाट से खरीद कर लाया और फिर देखते ही देखते कमला पूरे देश में छा गई।
अखबारों में कमला पर बड़े-बड़े संपादकीय छपे, राजनीतिज्ञों ने कमला के नाम पर जिंदा गोश्‍त की खरीद-फरोख्‍त के विरुद्ध धरना, प्रदर्शन और ज्ञापनों का हड़बोंग किया और अपनी नेतागीरी चमकाई। कविताएं, कहानियां, नाटक और उपन्‍यास ही नहीं, कमला को लेकर फिल्‍म तक बनी और लोगों ने लाखों कमाए। अपने आप को प्रतिष्ठित किया। उधर कमला को खरीद कर लाने वाले पत्रकार रातों रात खोजी पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। लेकिन कमला.........! उसका कुछ पता नहीं कि वह नारीनिकेतन की गलाजत भरी जिंदगी से भागने के बाद कहां गई....किसी ने यह जानने का प्रयास भी नहीं किया। ठीक इसी तरह हमारी भारतीय जनता पार्टी, जिसने जनसंघ से भाजपा होने तक का सफर कमला अर्थात किसी ऐसे मुद्दे (मंदिर-मस्जिद) की तलाश में बिताया, जो उसे किसी शक्तिशाली राकेट की तरह अंतरिक्ष रूपी सत्‍ता में प्रतिस्‍थापित कर दे।....और फिर वह दिन भी आया, जब भाजपाई अपनी सिस्‍टर इकाई विश्‍व हिंदू परिषद के माध्‍यम से एक कमला उठा लाए। या यूं कहिए कि राम जन्‍म भूमि और बाबरी मस्जिद का मुद्दा उठा लाए। फिर वही सत्‍तर के दशक का सा वातावरण बना। अखबारों में बडे बडे संपादकीय लिखे जाने लगे। धरना प्रदर्शन और ज्ञापन के जरिए तमाम सड़कछाप लोग नेता बन गए। र‍थ यात्राओं से लेकर पथ यात्राओं तक न जाने क्‍या क्‍या हंगामे हुए। ....और नतीजा बिल्‍कुल वही, जैसे कमला को लाने वाला पत्रकार रातों रात खोज पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था उसी तरह भारतीय जनता पार्टी भी एक बड़ी सशक्‍त पार्टी के रूप में प्रतिष्‍ठापित हो गई। कई स्‍थानों पर सत्‍ता भी हथिया ली।
इस सब के बाद पत्रकार अर्थात मीडिया और भाजपा की स्थि‍त में कमला को लेकर बहुत जरा सा परिवर्तन आया और वह यह कि जहां मीडिया ने अपने व्‍यापार के लिए दुधारू गाय के रूप में मिली कमला को लेकर यह मन बना लिया कि कमला चुक जाएगी तो उसकी जगह थाने में बलात्‍कार का शिकार हुई मथुरा होगी। मथुरा नहीं तो शालनी, कुसुम, बेलछी, सुंदूर या फिर कुम्‍हेर जैसा कुछ........।
उधर भाजपा के पास सिर्फ कमला यानि राम जन्‍मभूमि और बाबरी मस्जिद है। जब चाहेंगे वह इस कमला के बदन के एक भाग से कपडे हटाएंगे और फिर चीखेंगे...देखो, लड़की नंगी है, हमे इसे कपड़े पहनाने हैं। वो लोग हमे कपड़े नहीं पहनाने दे रहे है। और अगर किन्‍हीं परिस्थियों में यह कमला चुक गई तो मथुरा और काशी विश्‍वनाथ मंदिर जैसी तमाम कमलाएं वह और जुटा लेंगे। व्‍यापार चलता रहेगा। कहीं कुछ नहीं बदलेगा। कमला, म‍थुरा, शालनी, कुसुम, बेलछी, सुन्‍दूर, कुम्‍हेर, राम जन्‍मभूमि-बाबरी मस्जिद, काशी विश्‍वनाथ, सब एज इट इज...।
जो होगा या हो रहा है, उसमें कमला के बाद दलितो व स्त्रियों के मामलों को आर्थिक सामाजिक एवं राजनीतिक लाभ उठाने का जरिया बना लिया गया। कमोबेश मंदिर-मस्जिद की स्थिति भी यही है।...रही मीडिया और जनता के ताजा दृष्टिकोण की बात तो वहां मीडिया की स्थिति तो जगजाहिर है....एक ही पन्‍ने पर एक ही समाचार में यह लिखा होगा कि राम जन्‍मभूमि देश की धार्मिक एवं सांस्‍कृतिक अस्मिता का प्रश्‍न है और इस अस्मिता को बचाए रखना बहुत जरूरी है... गर्भगृह पर ही मंदिर निर्माण होना चाहिए। साथ ही यह भी लिखेंगे कि मंदिर निर्माण की बात करने वाले सांप्रदायिक है। गर्भगृह पर मंदिर बना तो वह एक संप्रदाया विशेष के प्रति अन्‍याय होगा।......वास्‍तव में बंदनीय है हमारा मीडिया। पूरी तरह निश्‍पक्ष। इतना निष्‍पक्ष कि उसका अपना कोई दृष्टिकोण ही नहीं। थाली में जिधर ढलान मिली बैंगन उसी ओर लुढक गया।
इस तरह यह बात पूरी तरह साफ हो जाती है कि आज मंदिर मस्जिद, कमला अर्थात धर्म शोषित और दलित गांव से लेकर केंद्र (दिल्‍ली) तक सत्‍तासित का नियामक तत्‍व है। इसी लिए चतुर राजनीतिज्ञों एवं धंधेबाज साम्‍प्रदायिक गुटों ने उनके अस्तित्‍व के सबसे छुद्र और संकीर्ण पहलुओं को उभारा, जिसका परिणाम सामने है...इस लिए जरूरी है कि मंदिर-मस्जिद और कमला पर नए सिरे से विचार हो।
(अमर उजाला के 4-8-1992 के अंक में प्रकाशित)

Thursday, January 15, 2009


असंतुष्‍ट रहो और आगे बढ़ो
संतोषम् फल दायकम् का सूत्र वाक्‍य जिस किसी भी विद्वान ने लिखा हो, मैं व्‍यक्तिगत रूप से उनसे सहमत नहीं हूं। जीवन की राहों पर चलते हुए मैने जो महसूस किया उसके अनुसार अगर आगे बढ़ना है तो असंतुष्‍ट रहना बहुत जरूरी है। उस दिन तारा देवी गुप्‍ता से मिल कर आने के बाद अगले दिन मैं पूर्व नियत कार्यक्रम के अनुरूप सुबह 10 बजे कमल के घर पहुंच गया। कमल के अन्‍य साथी मेराज जैदी, गिरजा शंकर अवस्‍थी, अरविंद, जागेश्‍वर भारती आदि सभी वहां पहले से मौजूद थे। पेंट ब्रश आदि लेकर हम सभी लोग नाटक राम रहीम के पोस्‍टर बनाने में लग गए। इसी काम के दौरान बातचीत में यह पता चला कि मेराज जैदी की भी साहित्‍य में खासी रुचि है। उर्दू साहित्‍य का बहुत अच्‍छा कलेक्‍शन उस‍के पास है। मेराज का दावा था कि उर्दू साहित्‍य हिंदी से कहीं अधिक समृद्ध है। चूंकि मैं उस पूरे ग्रुप में सबसे छोटा था और साहित्‍य के बारे में मेरी जानकारी भी अन्‍य सभी के मुकाबले नगण्‍य थी इस लिए मैं चुपचाप उन सभी की बातचीत सुनता रहा। बीच बीच में मैं भी हां हूं कर देता था। इस बीच मेराज उर्दू के कई लेखकों और उनकी रचनाओं का जिक्र करता रहा। मुख्‍य रूप से सआदत हसन मंटों एवं इस्‍मत चुग्‍ताई की कहानियों का जो वर्णन उसने किया उसने मेरे अंदर भी एक उन्‍हें पढने की इच्‍छा जाग्रत कर दी। लेकिन एक समस्‍या थी कि मैं उर्दू नहीं पढ सकता था। मैने अपनी बात मेराज के सामने रखी तो उसने बडी सहजता से कहा......उर्दू नहीं जानते तो क्‍या हुआ। तुम मेरे घर आओ, मैं तुम्‍हें मंटो और इस्‍मत चुगताई की कई अच्‍छी कहानियां पढ कर सुनाऊंगा। उसका कहना था कि वह कहानियां तो ऐसी हैं कि उसे चाहे जितनी बार पढो, वह न सिफ नई लगती हैं बल्कि व्‍यक्ति की संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती हैं। .....मैने सहमति में सिर हिला दिया था।
शाम होते होते हम लोगों ने लगभग एक दर्जन पोस्‍टर बना डाले थे। बाकी पोस्‍टर अगले दिन बनाने की बात तय कर हम लोग कमल के घर से निकल पड़े। मैं वहां से सीधे घर आया और फिर कपडे आदि बदल कर रात के प्रोग्राम के बारे में मां को बताया। यह भी बताया कि लखनऊ वाले काम में अभी समय लगेगा। फिलहाल मैं आर्कस्‍ट्रा के प्रोग्राम में जा रहा हूं। मेरे घर से निकलने तक पिता जी कचहरी से वा‍पिस नहीं आए थे। मैं उनके आने से पहले ही घर से निकल लेना चाहता था क्‍योंकि उनके आने के बाद यह गारंटी नहीं थी कि वह मुझे किसी आर्केस्‍ट्रा पार्टी में काम करने देंगे या नहीं। उनकी समस्‍या यही थी कि वह आर्थिक रूप से परेशान भी रहते थे लेकिन उनकी शहंशाही में कहीं कोई कमी नहीं थी। उनकी शहंशाही का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार घर के सामने से एक ठेला निकला। ठेले पर टमाटर लदे थे। पिताजी उससे मोलभाव करने लगे। पूरे ठेले का क्‍या लोगे। कुछ लोगों ने टोका भी। सक्‍सेना साहब, इतने टमाटर लेकर क्‍या करोगे ? पिताजी नहीं माने ठेले पर रखे पूरे 30 किलो टमाटर खरीद लिए। टमाटर सड़ कर फिकें नहीं इस लिए बाद में उसे मोहल्‍ले में बांटा गया। उसका सास बनवाने के लिए बोतने खरीदी गई। सास बनवाने के लिए जो पैसे खर्च किए गए वह अलग। मैं और मां उनके इस अंदाज को लेकर हमेशा परेशान रहते थे। उन्‍हें सुधारने की हिम्‍मत हम दोनों में से किसी को नहीं थी।
खैर, बात चल रही थी कि मैं घर से अनिल बवाली के यहां जाने के लिए निकल पड़ा। अनिल के घर पहुंचा तो वह मेरा ही इंतजार कर रहा था। हम दोनों वहां से तारादेवी गुप्‍ता के घर कल्‍याणी पहूंच गए। तारा देवी के घर पर पूरा जमावडा था। लखनऊ से तमाम आर्टिस्‍ट वहां आए हुए थे। डांसर रेखा गर्ग, गिटारिस्‍ट आलोक सक्‍सेना, ढोलक, कांगो और बांगो और हारमोनियम के कलाकार अलग। कार्यक्रम की रिहर्सल चल रही थी। तारा देवी ने मुझे देखा तो अपने पास बुला‍ लिया। सबसे परिचय करवाया........ओपी नाम है इसका, अभी नया बच्‍चा है। कई अच्‍छे कैरीकेचर हैं इसके पास। मेहनत करेगा तो सीख जाएगा। आज और कल के दोनों प्रोग्राम यही एनाउंस करेगा। ......तारा देवी ने मेरी पीठ पर हाथ रखा।....मेरा हौसला बढाते हुए वह मुझे हाल के बीच तक लाई और बोली.......चल शुरू हो जा बेटा, एक ट्रायल हो जाए......।
मैने भी सहमति में सिर हिलाया और फिर जेब से कलम कागज निकाल कर कार्यक्रम का सीक्‍वेंस नोट करने लगा। इंट्रोडक्‍शन म्‍यूजिक के बाद मंच के इंस्‍ट्रूमेंटल कलाकारों का परिचय और फिर कुछ हल्‍की फुल्‍की शेरो शायरी के साथ किशोर कुमार के कुछ फिल्‍मी गाने, रेखा का डांस आदि आदि......। सीक्‍वेंस नोट करने के बाद मैने बतौर रिहर्सल एनांउसमेंट शुरू किया। ट्रायल के तौर पर कुछ शेरो शायरी और कैरीकेचर के साथ फिल्‍मी कलाकारों की आवाज में कुछ आइटम सुनाए तो्र वहां मौजूद कलाकारों में से कुछ ने तो मुंह बिचका लिया.....कुछ ने हौसला बढाया। कोई बात नहीं .....अभी नया है। धीरे धीर सब सीख जाएगा। इसी बीच गिटारिस्‍ट आलोक बोला .....हां, ठीक है , गांव के प्रोग्राम में तो चल ही सकता है। फिर वह और तारादेवी गुप्‍ता हाल से बाहर जाकर एक कोने में कुछ खुसर पुसर करने लगे। थोडी देर बाद तारा देवी ने मुझे आवाज दी......अरे, ओपी.....देखना बाहर दो जीपें खडी हैं। सब से बोलो पैकअप करें, चलने का टाइम हो गया है। मैने सभी को अपने अपने इंस्‍ट्रूमेंट समेटने को कहा। सामान पैक होने के बाद सभी लोग अपना अपना सामान उठा कर जीप की ओर चल दिए। मैं भी उनके सामान उठवाने में लग गया।
उस रात जब प्रोग्राम खत्‍म हुआ तो तारादेवी ने चलते समय मुझे 50 रुपये दिये और कहा कि कल के प्रोग्राम का एडवांस दे दिया है। टाइम पर पहुंच जाना। सच मानिए, उस दिन मिले पचास रुपये मुझे पचास लाख जैसे लग रहे थे। वह अलग बात है कि पिता जी के अच्‍छे समय में, मैं उस जैसे न जाने कितने पचास रुपये अपने स्‍कूल के दोस्‍तो को खिलाने पिलाने में उडा दिया करता था।
उस रात प्रोग्राम से लौटते समय जीप ने मुझे और अनिल बवाली को बडे चौराहे पर ही उतार दिया था। यहां से मैं और अनिल बवाल अपने अपने घरों के लिए चल दिय थे। रात के 3 बजे थे। जेब में पचास रुपये की गर्मी मैं बडी शिद्दत के साथ महसूस कर रहा था। साथ ही हिसाब जोडता जा रहा था कि अगर महीने में 15 प्रोग्राम मिलें तब कहीं जाकर महीने में पौने चार सौ रुपये कमा पाऊंगा। जरूरी नहीं कि महीने में 15 प्रोग्राम मिल ही जाएं......कम भी हो सकते हैं और ज्‍यादा भी ? इस तरह पचास रुपये कमा कर मैं खुश तो था पर संतुष्‍ट नहीं था...........मैने सोच लिया था कि इसके साथ ही साथ हमें कोई और काम भी करना होगा। संतुष्‍ट हुए कि प्रगति रुकी.........।
(क्रमश:)

व्‍यंग्‍य
सत्‍ताधीश बनाम आम आदमी

उस दिन प्रधानमंत्री का राष्‍ट्र के नाम संदेश सुनते सुनते मेरी आंख लग गई। मेरा समूचा अस्ति‍त्‍व सपनों की दुनियां में खो गया। मैने देखा कि अपने देश में एक नई व्‍यवस्‍था लागू हो गई है, जिसमें स्‍वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर पर दो मंच बने हैं। एक पर अपने प्रधानमंत्री खड़े हैं, बु‍लेट प्रूफ शीशे के पीछे, एसपीजी के जवानों से घिरे हुए और दूसरे मंच के पीछे एक आम आदमी खड़ा हुआ है बिना किसी सुरक्षा व्‍यवस्‍था के.....पूरी तरह असुरक्षित। यही तो फर्क है आदमी और प्रधानमंत्री होने में।
खैर, व्‍यवस्‍था यह है कि अपने प्रधानमंत्री और वह आम आदमी साथ-साथ राष्‍ट्र के नाम संदेश प्रसारित करेंगे। संदेश का प्रसारण शुरू होता है......प्‍यारे देशवासियों नमस्‍कार.....दोनों गंभीर मुद्र में हैं। प्रधानमंत्री क्‍यों गंभीर हैं पता नहीं। हो सकता है गंभीर और चिंतित दिखना प्रधानमंत्री पद की अनिवार्यता हो, लेकिन दूसरे मंच पर खड़ा आम आदमी गंभीर और चिंतित होने के साथ ही साथ दुखी भी है.....शायद इस लिए कि वह जानता है कि चाहे वह लाल किले की प्राचीर से बोले, बोट क्‍लब से बोले, सुदूर से बोले, पीलीभीत से बोले या कुम्‍हेर से.......उसकी आवज उसी तरह गुम कर दी जाएगी, मिट दी जाएगी जिस तरह संसद की कार्रवाई के टीवी प्रसारण में सांसदों के वा‍स्‍तविक चरित्र को उजागर करने वाले अंश मिटा दिए जाते हैं।
फिलहाल , राष्‍ट्र के नाम संदेश प्रसारित होना शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री बोल रहे हैं। दूसरे मंच से आम आदमी बोल रहा है। दोनों की आवाजें एक दूसरे में गड-मड हो रही हैं। सरकारी भाषा में अर्थ का अनर्थ हो रहा है। प्रबुद्धजनों की भाषा में अनर्थ को अर्थ मिल रहा है।
प्रधानमंत्री बोल रहे हैं......एक साल पहले सरकार को जो विरासत मिली थी, उसमें सुधार लाने के लिए एक साल की जद्दोजहद के बाद कामयाबी मिली है...।
आम आदमी बोल रहा है....बहुत कामयाबी मिली है, हमने विश्‍वबैंक और हर्षद मेहता के हाथों की कठपुतली बन कर उनकी ही बुद्धि से पूरे देश का बजट बनाया है, ताकि देश की अर्थव्‍यवस्‍था और देश को खोखला करने की हमारी सत्‍तासित परंपरा जीवित रहे, बोफोर्स जीवित रहे, हर्षद मेहता जीवित रहे.......।
प्रधानमंत्री बोल रहे हैं.........देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के मामले में हमें काफी कामयाबी मिली है। एक साल पहले तक हमें अपना सोना तक गिरवी रखना पड़ रहा था और उस समय तो सिर्फ एक हजार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्र का भंडार बचा था हमारे पास जो मात्र एक सप्‍ताह में खर्च हो जाता, लेकिन सरकार ने सावधानी से फूंक फूंक कर कदम उठाए और आज.............
इसी बीच आम आदमी की आवाज उभरे लगती है...........और आज हमने अपने देश का सोना गिरवी रखने के स्‍थान पर पूरे देश की अर्थव्‍यवस्‍था को गिरवी रख दिया है। उद्देश्‍य पैसा लाना है। विदेशी मुद्रा लाना है। चाहे वह अंदर से आए या बाहर से। सोना गिरवी रख कर आए या पूरा देश गिरवी रख कर.....।
उधर प्रधानमंत्री बोल रहे हैं.........बाहर के लोग यहां परियोजनाओं में पैसा लगाएंगे तो भी वह परियोजनाएं यहीं रहेंगी। चाहे वह उद्योग हो , रेल हो, या सड़क हो....सब कुछ यहीं रहेगा।
आम आदमी बोल रहा है.........हां सब कुछ यहीं रहेगा, यहां के उद्योग, यहां के कारखाने, यहां की सड़कें, यहां के पुल, यहां की हरीभरी धरती, यहां की कल-कल करती नदियां, सब यहीं रहेगा। ठीक उसी तरह जैसे आजादी के पहले था। अंग्रेज न उस समय कुछ उठा कर ले गए थे और न इस बार कुछ ले जाया जाएगा........सब कुछ यहीं रहेगा।
प्रधानमंत्री बोल रहे हैं........देश के ऊसर क्षेत्रों को विकसित करने के लिए कार्यक्रम बनाए गए हैं। इसके लिए सरकार ने अलग से विभाग बनाया है। काफी धनराशि का प्रावधान भी किया है।
आम आदमी बोल रहा है........‍हमारी सरकार बहुत समझदार है। उसको चलाने वाले बहुत काबिल हैं। हमेशा देश और देशवासियों के हित के लिए कार्य करते हैं। संभवत: इसी लिए खेती योग्‍य भूमि किसानों से छीन कर उसपर होटल और मकान बनाए जा रहे हैं, वहीं ऊसर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए पूरा एक विभाग बना कर करोड़ों रुपए खर्च करने की योजना तैयार की गई है। सिर्फ इतना ही नहीं, हमारे शासकों को देश के आर्थिक हित की कितनी चिंता है, इसका एक नमूना यह भी है कि वह विदेशों को जिस मूल्‍य पर खाद्यान्‍न निर्यात कर रहे हैं उससे कई गुना अधिक मूल्‍य पर विदेशों से खाद्यान्‍न खरीद रहे हैं। उनकी दलीलों के अनुसार देश का अर्थिक हित इसी तरह के सौदों में सुरक्षित रहेगा।
फिर प्रधानमंत्री की आवाज उभर रही है......देश को तोड़ने वाले संघर्षो पर अगले तीन वर्ष के लिए रोक लगा दी जानी चाहिए....।
आम आदमी बोल रहा है........जरूर, जरूर रोक लगा दी जानी चाहिए, ऐसी हर आवाज और ऐसे हर संघर्ष पर रोक लगा दी जानी चाहिए जो देश अर्थात उनकी कुर्सी को हिलाने और तोड़ने में सक्षम हो, क्‍योंकि उनके लिए तो देश मात्र उनकी कुर्सी तक ही सीमित है...।
इस तरह राष्‍ट्र के नाम संदेश का प्रसारण चल ही रहा था कि मेरे मानस पटल पर दृश्‍य बदलने लगता है। सामने मंच के पीछे गतिविधियां बढती नजर आती हैं। अचानक कोई फुसफुसाता है........अरे कोई रोको उसे....उसका बोलना ठीक नहीं है।
.....और तभी कोई, आम आदमी के नीचे से मंच रूपी उसका आधार खींच लेता है। आम आदमी लड़खड़ा कर गिरता है। मंच के आसपास भगदड़ मच जाती है। कोई उस आम आदमी का सिर कुचल देता है। थोड़ी देर बाद सबकुछ शांत हो जाता है। अखबारों में बड़े-बड़े हेडलाइंस छपते हैं........स्‍वतंत्रता दिवस समारोह में भगदड़। राष्‍ट्र के नाम संदेश देते आम आदमी की कुचलने से मृत्‍यु। घटना की जांच के लिए आयोग गठित। आम आदमी की सुरक्षा को ध्‍यान में रखते हुए उसके द्वारा राष्‍ट्र के नाम संदेश प्रसारण की नई व्‍यवस्‍था भंग.....अब सिर्फ प्रधानमंत्री बोलेंगे....सिर्फ प्रधानमंत्री। इसी बीच जाने क्‍यूं अचानक मैं चीख पड़ता हूं....मेरी नींद टूट जाती है। सामने देखतो हूं तो कुछ भी नहीं है, सिर्फ बिजली चले जाने से बंद पड़े टीवी की देश के भविष्‍य की तरह धुधली पड़ी स्‍क्रीन के सिवा.....कुछ नहीं .....कुछ भी नहीं।
(अमर उजाला के 4-10-1992 के अंक में प्रकाशित)

Tuesday, January 13, 2009

अपनों से ही बेगानी हो गयी फूलों की घाटी


पुतॅगाल की संस्था न्यू सेवन वंडॅस फाउंडेशन करा रही हैं आन लाइन प्रतियोगिता
ताज महल की वजह से फेम में आयी थी न्यू सेवन वंडॅस
न्यू सेवन वंडस करा रही हैं आन लाइन प्रतियोगिता
काजीरंगा नेशनल पाकॅ बना हैं होड़ मे
अपनों की अनदेखी ही फूलों की घाटी को भारी पड़ गई। इसी बेगानेपन का नतीजा रहा कि देश विदेश में मशहूर उत्तराखंड की यह घाटी दुनिया के सात प्राकृतिक आश्चर्यों की दौड़ में टिकी न रह सकी। न्यू सेवन नेचुरल वंडर्स प्रतियोगिता में यह वैली दूसरे राउंड में जगह नहीं बना पाई। हालांकि भारत की उम्मीद अभी पूरी तरह से टूटी नहीं है। असम का काजीरंगा नेशनल पार्क प्रतियोगिता के दूसरे राउंड में जगह बनाने में सफल रहा। दुनिया के सात प्राकृतिक आश्चर्यो के चयन के लिए पुर्तगाल की संस्था न्यू सेवन वंडर्स फाउंडेशन यह ऑन लाइन प्रतियोगिता करा रही है। इसमें लोगों को एसएमएस या ई-मेल के जरिए अपने पसंदीदा नाम को वोट देना होता है। पिछले साल ताज महल की वजह से न्यू सेवन वंडर्स फाउंडेशन की प्रतियोगिता देश में काफी चर्चित रही थी। फाउंडेशन की आधिकारिक वेबसाइट न्यू सेवन वंडर्स डॉट कॉम के मुताबिक भारत के राष्ट्रीय प्रतिभागियों में काजीरंगा पार्क और बहुराष्ट्रीय प्रतिभागियों में गंगा नदी, पांगोंग झील ने पहला राउंड पार कर लिया है। ये प्राकृतिक अजूबे 261 नामित आश्चर्यो में शामिल हैं। प्रतियोगिता में 441 नाम आए थे। इनमें से 40 फीसदी यानी 180 नाम पहले राउंड में ही बाहर हो गए। शुरू में फूलों की घाटी दुनिया की 90 आश्चर्यो में शामिल थी मगर दिसंबर में वह 120वें स्थान पर चली गई। दरअसल किसी आधिकारिक ग्रुप ने उसे सपोर्ट ही नहींकिया। इससे वह वोटों में पिछड़ गई। दूसरे चरण में 77 टाप आश्चर्यो के चुनाव के लिए वोटिंग सात जुलाई 2009 तक चलेगी। इनमें से 21 आधिकारिक प्राकृतिक आश्चर्य चुने जाएंगे। जिनकी न्यू सेवन वंडर्स फाउंडेशन का विशेषज्ञ पैनल 21 जुलाई को घोषणा करेगा। तीसरे और फाइनल राउंड के लिए वोटिंग दो साल यानी 2011 तक चलेगी।
राकेश जुयाल
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Monday, January 5, 2009

हम नहीं, परिस्थितियां बनाती हैं रास्‍ता

उस दिन, सो कर उठा तो वह सुबह दूसरे दिनों की अपेक्षा कुछ अलग सी लगी। मन में एक संकल्‍प था। कुछ कर गुजरने का। नहा- धो कर तैयार हुआ तो मां ने चाय के साथ रात की बची रोटी पर सरसों का तेल और नमक लगाकर रोल बनाया और उसे मेरे हाथों में थमा दिया। मैं चाय के साथ उस रोटी को खा रहा था। गजब का स्‍वाद था उस रोटी में। इसी बीच मां ने धीरे से मुझसे पूछा था....सचमुच कोई काम मिल गया है तुम्‍हें।
उसकी आंखों में अविश्‍वास नजर आ रहा था।
मैने मां को आश्‍वस्‍त करते हुए बताया कि काम की बात हुई है। आज फाइनल होगा कि मुझे कब से जाना है। .......ठीक है......मां ने बड़ी ठंडी सांस भर कर कहा था और फिर मुझे समझाने लगी थी.......देखो बेटा, ऐसा कोई काम मत करना जिससे तुम्‍हारे पिता जी की बदनामी हो। वो तो ऐसे ही तुम्‍हें डांटते रहते हैं....रिटायरमेंट करीब है इस लिए थोड़ा परेशान हैं। वैसे काम की कोई जल्‍दी नहीं है। मैं तो चाहती हूं, ढंग से पढ़ लिख लो और कोई अच्‍छी सरकारी नौकरी करो.......मां बोले जा रही थी और मैं बस.......हूं , कह कर उसके सामने से उठ गया था। पिता जी आफिस जा चुके थे। मैं भी घर से निकल पड़ा था। मुझे परवेज लंगडे से मिलकर लखनऊ के काम के बारे में बात करनी थी और कमल के साथ नाटक राम रहीम की कास्‍ट और तैयारी के बारे में बात कर उसके बाकी साथियों से भी मिलना था। मन में तरह-तरह के विचार चल रहे थे। मुझे याद आ रहे थे बचपन के वह दिन जब मैं घर में अपने मां-बाप का इकलौता लड़का था। मेरे बड़े भाई की मौत के लगभग पांच साल बाद मेरा जन्‍म हुआ था। पिता जी उस समय आजमगढ़ जिले की घोसी तहसील में तैनात थे। तहसील में मालबाबू हुआ करते थे वह। तनख्‍वाह के अलावा ऊपर की आमदनी भी खूब थी। किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। लाड़ दुलार भी खूब था। पिता जी हर रविवार को हमें पिक्‍चर दिखाने मऊ (जो अब जिला बन गया है) ले जाते थे। तरह तरह की कहानियों की किताबें मैं वहां से लाता था जिसमें इंद्रजाल कामिक्‍स, दीवाना तेज साप्‍ताहिक, चंदामामा, चंपक आदि किताबें हुआ करती थीं। मैं जिस मंहगे से मंहगे खिलौने पर हाथ रख देता, पिता जी उसे दिला दिया करते थे। पिता जी को थिएटर का बहुत शौक था। खास तौर पर दरभंगा बिहार की रामनाथ थियेटर कंपनी के ड्रामें उन्‍हें बहुत पसंद थे। कई बार वह मुझे भी अपने साथ ले जाते थे। थिएटर में होने वाले ड्रामों में खास तौर पर सुल्‍ताना डाकू, हरिश्‍चंद तारामती, श्रवण कुमार मुझे बहुत पसंद थे। शायद इसी लिए जब भी मुझे घर से बाहर खेलने जाने का मौका मिलता तो मैं अपने घर के सामने वाले घर के चबूतरे पर अपने साथियों के साथ उन्‍हीं ड्रामों को दोहराने का काम करता। हमारे खेल-खेल में किये जाने वाले उस ड्रामे को देख कर अक्‍सर मोहल्‍ले के बडे़ बूढे़ मेरे पिता जी से कहा करते थे..........सक्‍सेना साहब, आपका बेटा तो एक्‍टर बनेगा। .......और पिता जी हंसते हुए मन ही मन गदगद हो जाते थे। मुझे क्‍या पता था कि नाटक ड्रामों के प्रति इतनी रुचि रखने वाले मेरे पिताजी बाद में इसके विरोधी हो जाएंगे। भूल जाएंगे कि थिएटर आने पर वह रात में घर की कुंडी बाहर से बंद कर ड्रामा देखने चले जाते थे और हम लोग सुबह उनके आने तक घर में बंद रहते थे। ............और अब तो उनकी यही रट है कि नाटक ड्रामा शरीफ घरों के लड़कों का काम नहीं है।
इसी तरह बिना किसी तारतम्‍य की सोचों में डूबता उतराता में कब परवेज लंगडे़ की दुकान तक पहुंच गया, इसका पता ही नहीं चला। परवेज से बात हुई तो उसने बताया कि अभी बाजार मंदा है, इस लिए लखनऊ में चप्‍पलों वाले काम को वह अगले महीने से शुरू करेगा। जिस समय काम शुरू होगा वह मुझे बता देगा। ..........परवेज की इस बात से मैं एक बार फिर निराशा में डूब गया। एक रास्‍ता जो दिखा था उसके दरवाजे खुलने में अभी देर थी।......मैं बड़े अनमने भाव से वहां से उठ गया था। वहां से उठ कर पूड़ी वाली गली में मुंन्‍ना बाजपेई की दुकान पर पहुंचा तो वहां कमल अपने सभी साथियों के साथ मौजूद था। मेरे पहुंचते ही उसने सभी से मेरा परिचय कराया।....... ये मेराज जैदी हैं, तीन बच्‍चों के बाप, कचहरी में मुंशी हैं और बहुत ही अच्‍छे आर्टिस्‍ट हैं। जागेश्‍वर भारती...इनका साडियों पर पेंटिंग का काम है, अच्‍छे चित्रकार होने के साथ ही नाटकों में भी इनका गहरा दखल है। गिरजा शंकर अवस्‍थी.......सप्‍लाई आफिस में क्‍लर्क चार बच्‍चो के पिता। नाटक पर आने वाले खर्च को जुटाने में यह हमारी मदद करेंगे, खुद भी अच्‍छे कलाकार हैं। अरविंद कमल...एक जमीदार परिवार से हैं, केसरगंज जाने वाली सड़क पर इनकी कोठी है, इनके भी अच्‍छे संपर्क हैं, फिलहाल बिजनेस मैनेजमेंट की ट्रेनिंग कर रहे है। डनलप मास्‍टर साहब.........यहीं इंटर कालेज में टीचर हैं और कालेज की सभी सांस्‍कृतिक गतिविधियां इनके द्वारा ही संचालित की जाती है। .................कुल मिला कर परिचय के बाद मुझे एक बात पूरी तरह से समझ में आ गई थी कि उस पूरी टीम में मैं सबसे छोटा था।
.....................खैर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। स्क्रिप्‍ट पढी गई। कास्‍ट तय हुई। मुख्‍य पत्रों में राम के रोल के लिए गिरजाशंकर अवस्‍थी, रहीम के रोल के लिए कमल और फिर इसी तरह सारे पात्र तय हो गए लेकिन नाटक की हिरोइन रजिया के नाम पर आकर बात अटक गई। नाटक के लिए लड़की कहां से लाई जाए। यह अपने आप में एक बड़ी समस्‍या था। उन्‍नाव जैसे छोटे से पिछड़े हुए शहर में कौन अपनी लडकी को नाटक में काम करने देगा ?
अंत में तय हुआ कि गिरजा शंकर अवस्‍थी और अरविंद कमल अपने कुछ परिचित परिवारों में इसकी चर्चा करके देखेंगे। शायद कहीं बात बन जाए। तब तक हम सभी लोग नाटक के प्रचार के लिए वाटर कलर से कम से कम 12 पोस्‍टर बनाएंगे जिसे शहर के मुख्‍य स्‍थानों पर लगाया जा सके। इसके साथ ही नाटक के लिए फंड जुटाने को एक सोविनियर निकालने की बात भी तय हुई जिसके लिए विज्ञापन जुटा कर हम अपने नाटक पर होने वाला खर्च निकालेंगे। यह भी तय हुआ कि नाटक के लिए विज्ञापनदाताओं की लिस्‍ट बना कर हम सभी लोग एक साथ विज्ञापन मांगने चलेंगे। पोस्‍टर बनाने के लिए अगले दिन सभी को कमल के घर पर पहुंचने की बात कह कर हमारी यह मीटिंग खत्‍म हो गई। सभी लोग अपने-अपने घरों को चले गए।
मैं वहीं बडे चौराहे पर पान की दुकान के पास अकेला खड़ा रह गया। यह सोचता हुआ कि खाली इस नाटक ड्रामे से काम नहीं चलने वाला। परवेज वाला मामला भी अभी टल गया। आखिर क्‍या किया जाए...........कहां जाऊं, किससे नौकरी मांगूं............मैने जेब में पड़ी रीजेंट की सिगरेट जला ली थी। अभी दो कश ही मारे थे कि तभी सामने से अनिल बवाली ने आवाज दी.........अरे ओपी, क्‍या हालचाल है। उस दिन क्‍या कह रहे थे तुम.....अनिल मेरे पास आ गया था।
हां, यार उस दिन मै तुमसे बात करना चाह रहा था। मुझे पता चला था कि तुम अपनी आर्केस्‍ट्रा पार्टी बना रहे हो।
हां.........सोचा तो है। अनिल ने बात आगे बढाई। उसने बताया कि वह अभी कल्‍याणी मोहल्‍ले में रहने वाली तारा देवी गुप्‍ता के ग्रुप में गा रहा है। वह सूचना प्रसारण मंत्रालय के स्‍टेज प्रोग्राम करती हैं। प्रोगाम में नाच गाने के अलावा सरकारी योजनाओं का प्रचार प्रसार भी किया जाता है। अनिल ने यह बताया कि उसे एक रात के पचास रुपये मिलते हैं। महीने में अगर दस प्रोग्राम भी मिल गए तो चार पांच सौ रुपये का जुगाड़ हो जाता है................।
.........यह तो बहुत अच्‍छा है, मैने भी तारीफ की, फिर अपना मंतव्‍य स्‍पष्‍ट किया। यार , मुझे भी इसी में कहीं जोड़ न। मेरी इस बात को सुनते ही अनिल ने तपाक से कहा तुझे काम करना है तो अभी मेरे साथ चल। सफीपुर में दो दिन का प्रोग्राम है और इस समय तारादेवी के पास कोई एनाउंसर नहीं है। कालेज में तो तू प्रोग्राम कंपेयर करता है ही। उसे दो-एक जोक, कैरीकेचर वगैरह सुना देना खुश हो जाएगी। बात मेरी समझ में आई और मैं अनिल के साथ तारा देवी के यहां पहुंच गया। आज की भाषा में कहें तो तारादेवी ने मेरा आडीशन लिया और अपने दो दिन के प्रोग्राम के लिए मुझे बुक कर लिया। तारादेवी ने कहा कि अभी वह मुझे एक प्रोग्राम के 25 रुपये देंगी। काम पसंद आने पर इसमें बढौतरी भी हो सकती है।
तारादेवी से दो दिन का प्रोग्राम फाइनल करने के बाद मैं देर शाम बहुत खुशी-खुशी घर लौटा............उस दौर में यह मेरे लिए किसी सफलता से कम नहीं था लेकिन सोच में कहीं यह बात जरूर थी कि मैं घर से क्‍या सोच कर निकला था और बात कहां जा कर बनी........सच, हम नहीं परिस्थितियां ही बनातीं है रास्‍ता।

(क्रमश:)

व्‍यंग्‍य

कड़ी नजर रखे हैं
अपने देश में एक बड़ी अच्‍छी परम्‍परा है। वह है, कडी नजर रखने की। इसकी सर्वाधिक जिम्‍मेदारी पुलिस एवं प्रशासन को सौंप दी गई है। उससे कह दिया गया है कि हर जगह हर स्थिति पर कड़ी नजर रखो। अब दोनों ठहरे अपनी ड्यूटी के पाबंद, सो हर जगह, हर स्थिति पर कड़ी नजर रखे हुए हैं।
जब गुरुद्वारों में गोला बारुद जमा किए जा रहे थे तब भी कड़ी नजर रखे हुए थे। जब पंजाब में हत्‍याएं होना शुरू हुईं तब भी, हवाई जहाजों के अपहरण हुए तब भी, इंदिरा गांधी की हत्‍या हुई तब भी इनकी नजर कड़ी ही थी। चूं कि आदेश था, हर जगह हर स्थिति पर कड़ी नजर रखो।
सिर्फ इतना ही नहीं इंदिरा जी की हत्‍या के बाद दंगे हुए, संत लोंगोवाल मारे गए परन्‍तु इनकी नजर में कहीं कोई मुलाइमियत नहीं आई। एक यही तो खासियत है अपने हिंदुस्‍तान की। यहां जिसे जो काम सौंप दिया जाता है। वह उसे बखूबी निभाता हे। एक बार बता दिया गया कि हर जगह हर स्थिति पर कड़ी नजर रखनी है, तो रखनी है। यहां अपने काम के प्रति हर व्‍यक्ति पूरी तरह से ईमानदार है। जो बाहर से यहां आता है वह भी हो जाता है। कोई एक दूसरे के काम में टांग नहीं अड़ाता। सब अपना अपना अपना काम पूरी मेहनत और लगन से करते हैं।
अब आप ही देखिये, जिसे गोला बारूद जमा करने का काम सौंपा गया वह अपने काम में मस्‍त था। जिन्‍हें हत्‍याएं करनीं थीं वे कर रहे थे। जिन्‍हें दंगा करना था वह दंगा कर रहे थे, पुलिस और प्रशासन को कड़ी नजर रखनी थी, वह रखे हुए थे। कोई किसी को डिस्‍टर्ब नहीं कर रहा था। हर तरफ अमन चैन था। इंदिरा राज था।
अब राजीव राज है। कड़ी नजर रखने के आदेश अब भी बरकरार हैं, और कड़ी नजर रखने वाले भी। हो सकता है कुछ नए आ गए हों। मगर, नजर के कड़कपन में कहीं कोई कमी नहीं आई है। साम्‍प्रदायिक दंगे हो रहे हैं। पंजाब में दनादन हत्‍याएं हो रही हैं। देश इक्‍कीसवीं सदी में जा रहा है। सब आनन्‍द मंगल है।
इस क्रम में पुलिस और प्रशासन से संबद्ध हमारे मित्रों ने आशा व्‍यक्‍त की है कि इक्‍कीसवीं सदी में परिवर्तन के नाम पर लूटमार, दंगा फसाद, आगजनी, पथराव, हत्‍या, बलात्‍कार, जैसे कार्य कम्‍प्‍यूटर के जरिये भले ही होने लगें, परंतु पिछले अनुभवों को देखते हुए उन्‍हें कड़ी नजर रखने का कार्य ही सौंपा जाएगा, क्‍यों कि देश में शांति और व्‍यवस्‍था बनाए रखने के लिए यह बहुत आवश्‍यक है कि हर जगह, हर स्थिति पर पुलिस और प्रशासन अपनी कड़ी नजर रखे।
(अमर उजाला के 11-8 1986 के अंक में प्रकाशित)

Saturday, January 3, 2009

जुनून हो तो सफलता मिलती है

किसी भी काम के प्रति जुनून हो तो सफलता अवश्‍य मिलती है। यह बात आज मेरी समझ में आती है। उस दिन कमल के साथ मैं कानपुर के विभिन्‍न बड़े बुक स्‍टालों पर घूमा। हमने मिलकर एक नाटक राम रहीम की स्क्रिप्‍ट सलेक्‍ट की और उन्‍नाव वापिस आ गए। कानपुर से लौटते वक्‍त भी मैं पूरी तरह खामोश ही रहा। एक अंतरद्वंद था मेरे भीतर। एक तूफान। कुछ करना है........कुछ करना है। उन्‍नाव पहुंचे तो हमने यह तय किया कि कल दोपहर हम उस टीम की एक मीटिंग करते हैं जिसे इस नाटक में काम करना है। तय हुआ कि कल दोपहर हम बडे़ चौराहे के बराबर में ही पूड़ी वाली गली में मुन्‍ना बाजपेई की पूडी की दुकान में मिलेंगे। नाटक से जुडे सभी साथियों को सूचना देने का काम कमल करेंगे। यह तय करके हम मैं और कमल अपने अपने घरों की ओर चल दिये। अभी शाम के पांच बजे थे। रास्‍ते में मेरा स्‍कूल और स्‍कूल के सामने परवेज लंगडे की चप्‍पल की दुकान थी। पैदल चलते हुए जब मैं स्‍कूल के सामने तक पहुंचा तो परवेज लंगडा अपनी दुकान पर बैठा था। मैं उसके पास रुक गया। मुझे देखते ही उसने भी मुझे आवाज दी। कहां जा रहे हो ओपी भाई। आओ चाय ले लो।......और उसकी आवाज सुनते ही मैं उसकी ओर बढ गया। परवेज ने चाय का आर्डर दिया और हम दोनों बातचीत में मशगूल हो गए। परवेज की अपनी अलग एक दुनिया थी। परवेज बता रहा था..........यार आज तो बालामऊ पैसिंजर से माल लेने कानपुर गया था। रास्‍ते में जबरदस्‍त जुआ हुआ। पूरे डेढ हजार रुपये जीता हूं आज।
दरअसल, उन्‍नाव से कानपुर और लखनऊ जाने वाली ट्रेनों में डेली पैसिंजर्स खूब जुआ खेलते थे। उन जुआरियों में उन्‍नाव से परवेज और विजय रेडियोज के मालिक विजय मुख्‍य थे जिन्‍हें मैं जानता था। उस जमाने में जब हम दो रुपये और पांच रुपये को बडी रकम मानते थे यह लोग सैकडों रुपये का जुआ खेल डालते थे। परवेज मुझे अपने जुए में हार जीत की बात बता रहा था लेकिन मेरा दिमाग कहीं और ही चल रहा था।
मौका देख कर मैने परवेज से कहा- यार मैं भी कुछ काम करना चाहता हूं जिसमें दो पैसे मिल सकें। मुझे भी कोई काम बताओ ?
परवेज ने कहा- तुम्‍हें पता है ओपी भाई हम कुछ पढे लिखे तो हैं नहीं। अपना चप्‍पल बेचने का काम है। इसी से गुजारा चलता है। तुम अगर चाहो तो यह धंधा शुरू कर सकते हो, मैं इसमें तुम्‍हारी पूरी मदद करूंगा।
मैने कहा- यार, मैं कोई धंधा शुरू करने की स्थिति में नहीं हूं। मैं तो नौकरी करना चाहता हूं। कोई भी हो......कैसी भी हो.....मुझे अब अपने मां बाप के सहारे नहीं रहना। मुझे अपने खर्चे खुद निकालने हैं।
परवेज ने उस समय बडा ही घूर कर मुझे देखा था। मानों कह रहा हो....तुम्‍हें क्‍या जरूरत काम की। तुम्‍हारे पिता जी तो एक अच्‍छे सरकारी मुलाजिम हैं। अच्‍छी पहचान है उनकी शहर में। तुम्‍हें क्‍या पडी है नौकरी की........तुम्‍हें तो अपनी पढाई की चिंता करनी चाहिए ?
अब मैं उसे क्‍या बताता कि घर में कैसी कैसी लानतें झेलनी पडती हैं मुझे। पिता जी रिटायर होने की स्थिति में हैं और मैने अभी अपना ग्रेजुएशन भी पूरा नहीं किया है। बच्‍चे देर से हों तो मां बाप को यह समस्‍या भुगतनी ही पड़ती है।
फिलहाल परवेज ने मुझे एक आफर दिया कि वह लखनऊ चारबाग रेलवे स्‍टेशन की छोटी लाइन के प्‍लेटफार्म के बाहर सडक के किनारे फुटपाथ पर चप्‍पलों की फड़ लगाता है। वहां आवाज लगा कर चप्‍पलें बेची जाती हैं। कानपुर से जो चप्‍पल 10-12 रुपये जोडी लाई जाती हैं उसे वहां 25 से 30 रुपये जोडी बेचते हैं। उसे इस काम में एक आदमी की जरूरत है अगर मैं चाहूं तो उसके साथ आ सकता हूं। इस काम के लिए वह मुझे एक दिन में 10 रुपये देने को तैयार था। उसका कहना था कि आम तौर पर ऐसे काम के लिए 7 से 8 रुपये, पर डे पर लडके मिल जाते हैं।
परवेज की बात सुन कर मैने उससे कहा कि मैं कल सोच कर उसे इस विषय में बताऊंगा।
इसी बताचीत के दौरान हमने अपनी चाय खत्‍म की और मैं वहां से अपने घर की ओर चल दिया। रास्‍ते में मैं सोचता चला जा रहा था। परवेज का बताया काम मुझे करना चाहिए या नहीं ? पूरे रास्‍ते सोच विचार कर मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि मेहनत मजदूरी कर अपनी रोटी कमाना कोई गलत बात नहीं है। कहीं न कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी। अभी हमारी क्‍वालीफिकेशन ही क्‍या है जो हमें कोई ढंग का काम मिलेगा। मैने मन ही मन तय कर लिया था कि परवेज के साथ काम करूंगा। महीन में तीन सौ रुपये मिलेंगे। खिलाने पिलाने में परवेज कभी कंजूसी नहीं करता था। ऐसे में अपने सिगरेट बीडी का खर्च निकाल कर कम से कम दो सौ रुपये मासिक तो बचा ही लूंगा, इंटरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भरूंगा और जैसे भी हो अपना ग्रेजुएशन पूरा करूंगा और इसके लिए पिता जी से एक भी पैसा नहीं लूंगा।
यही सब सोचते सोचते मैं घर पहुंच गया। रात में मैने खाना खाते वक्‍त मां और पिता जी के सामने यह घोषणा कर दी कि मैं इस साल कालेज में एडमीशन नहीं लूंगा और इंटरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भरूंगा। मैने बता दिया कि मुझे लखनऊ में एक काम मिल गया है। इस लिए मैं लखनऊ जा रहा हूं। मां और पिता जी ने मुझसे बहुत पूंछा कि क्‍या काम मिला है.......लेकिन मैंने उनसे कुछ नहीं बताया। मैं जानता था कि अगर मैने उन्‍हें बता दिया तो दोनों में से कोई मुझे जाने नहीं देगा। बस मैने इतना बताया था कि महीने में मुझे तीन सौ रुपये मिलेंगे।
खाना खा पीकर मैं अपने बिस्‍तर पर लेट गया था। दोनो भाई बहन भी सो गए थे। बाहर के कमरे से मां और पिताजी के आपस में बातचीत के जो अस्‍पष्‍ट स्‍वर अंदर के कमरे तक आ रहे थे उससे मैने अंदाजा लगाया कि वह इस बात को लेकर चिंतित थे कि मैं क्‍या करने जा रहा हूं। उधर मैं इस सोच विचार में था कि मैं जो कुछ करने जा रहा हूं वह सही है या नहीं। मुझे अक्‍सर पिता जी द्वारा सुनाई जाने वाली वह कहानियां याद आ रहीं थीं जिसमें वह हमें बताया करते थे कि हम लोग एक जमीदार खानदान से ताल्‍लुक रखते हैं। किसी समय में हमारे बाबा जी और उनके पिता का शाहजहांपुर में जमीदारा था। वहां लोग उन्‍हें हजेला साहब के नाम से जानते थे। हजेला साहब की कोठी के नाम से मशहूर उनकी कोठी आज भी शाहजहांपुर में है। भाइयों से अलग होने के बाद हमारे बाबा जी ने बनारस स्‍टेट में महाराजा बनारस की फौज में लेफटीनेंट के ओहदे पर नौकरी कर ली थी। हमारे बाबा जी महाराजा बनारस के सबसे करीबी लोगों में थे और उन्‍होंने द्वितीय विश्‍वयुद्ध भी लड़ा था। एक लडाई जीत कर आने के बाद महाराजा बनारस ने गंगापार रामनगर में अपने किले का एक हिस्‍सा हमारे बाबा को बतौर इनाम दिया था। जिसे बेच कर उन्‍होंने रामनगर और फिर बनारस में अपना घर बनाया था। राजशाही के वक्‍त जब महाराजा बनारस के पुत्र कुंवर विभूतिनारायण सिंह और मेरे पिता जी में जबरदस्‍त दोस्‍ताना था। एक ही अंग्रेज ट्यूटर दोंनों को पढाने आता था। पिता जी अक्‍सर अपनी फाइलों में सहेज कर रखे गए उस अंग्रेज ट्यूटर का सर्टीफिकेट हम लोगों को दिखाया करते थे। मेरे पिता जी ही बताते थे कि वह और कुंवर विभूति नारायण सिंह बचपन में बहुत शैतान थे। एक बार विभूति नारायण सिंह के कहने पर मेरे पिता जी और उनके साथियों ने एक खेत से कुछ ककडियां तोड ली थीं जिसकी शिकायत खेत मालिक ने भरे दरबार में महाराजा बनारस से की थी जिस पर महाराजा बनारस ने न सिंर्फ उस किसान से माफी मांगी थी बल्कि मुआजे के तौर पर उसको साल की पूरी फसल का भुगतान भी किया था। साथ ही मेरे पिता जी और उस समय के कुंवर विभूति नारायण सिंह को बहुत डांट पड़ी थी। बाद में इस घटना से गुस्‍सा हो कर पिताजी और विभूति नारायण सिंह ने उस किसान के पूरे खलिहान में आग लगा दी थी और उनकी इस हरकत को राज पुरोहित ने देख लिया था। इसका मुआवजा भी राजा बनारस ने अदा किया था।
इसी तरह अपने बचपन के तमाम किस्‍से पिताजी घर में अक्‍सर सुनाया करते थे। ऐसे में एक बात घर के हम सभी लोगों के दिमाग में बैठी हुई थी कि हम एक राजघराने का हिस्‍सा रहे हैं, इस लिए हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे हमारी रायलटी को धक्‍का लगे। इसे अनुवांशिक कहें या और जो भी कुछ.....शायद आज भी हमारे मिजाज में वह राजशाही ठसक बरकरार है। वह अलग बात है कि उस रात मैने इन तमाम बातों को दिमाग से झटका और इस सत्‍य को स्‍वीकार कर लिया कि राजशाही जब रही होगी तब रही होगी। सच यह है कि मेरा पिता इस समय कचहरी का एक सामान्‍य क्‍लर्क है और उसकी आमदनी इस समय इतनी नहीं है कि वह अपने परिवार की ठीक प्रकार से प‍रवरिश कर सके। ऐसे में हमें कुछ न कुछ करना ही होगा........करना ही होगा.......करना ही होगा.........।
धीरे-धीरे नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया था, मगर मेरा जुनून और गहरा हो गया था।
(क्रमश:)



व्‍यंग्‍य

21 वीं सदी और बिहार की पुलिस

‘ढम ढमा ढम ढम........होशियार, खबरदार अब हम इक्‍कीसवीं सदी में जा रहे हैं।‘ एक शोर उठा और हमें लगा कि शहर में कोई नया सर्कस आया है। अभी हम यह समझ भी न पाए थे कि हमारे इक्‍कीसवीं सदी में जाने से कौन सा इंकलाब आएगा, तभी अचानक अखबार में छपे बिहार पुलिस के एक कारनामे ने सबकुछ स्‍पष्‍ट करके रख दिया। उसने बता दिया कि इक्‍कीसवीं सदी में जाने का अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं कि कंप्‍यूटर प्रणाली का इस्‍तेमाल कर तमाम काम करने वाले हाथों को बेकाम कर दिया जाए, भूखे नंगे गरीब किसान मजदूरों की एक ऐसी फौज तैयार कर दी जाए जो मुट्ठीभर सरमाएदारों के सामने रोए-गिडगिडाए और अपने जीवन की भीख मांगे, बल्कि यह भी कि इस सदी में एक ऐसा इतिहास गढा जाए जिसकी अपनी एक मौलिकता हो.......जिसपर कुछ खास लोग गर्व कर सकें।
सच, अभी कितने पिछडे हुए थे हम। बीसवीं सदी में जो थे। अब आप ही बताइये, क्‍या यह एक राष्‍ट्रीय दुख का विषय नहीं कि हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी महात्‍मागांधी को राष्‍ट्रद्रोही नहीं साबित कर सके और न चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, बटुकेश्‍वर दत्‍त, राम प्रसाद बिस्मिल को गुंडा कातिल और लुटेरा।.....आखिर क्‍या करते रहे अबतक हम। शायद इसी लिए अबतक बीसवीं सदी में थे। अगर यह सबकुछ कर लिया होता तो इक्‍कीसवीं सदी में न पहुंच जाते।
खैर, देर आए दुरुस्‍त आए। अब चिंता की कोई बात नहीं है। हम प्रवेश कर गए हैं इक्‍कीसवीं सदी में। अच्‍छी तरह से पहुंच जाने के तमाम-तमाम लोग प्रयासरत भी हैं, और शायद इस मामले में सबसे ज्‍यादा सक्रिय है बिहार की पुलिस। पहले भी रही है। खास लोगों की नजर पहचानती है वो। जानती है कि इक्‍कीसवीं सदी में जाने के लिए क्‍या-क्‍या करना है। इसी लिए तो वह चाहे कैदियों की आंख फोडने का दायित्‍व हो अथवा कुछ खास इशारों पर गरीबों के घर उजाडने, उनकी बहन बेटियों की इज्‍जत लूटने का, सब कुछ बखूबी निभाती रही है।
आज उसने भीष्‍म साहनी, शानी और महीप सिंह सहित देश के दो दर्जन नामी गिरामी साहित्‍यकारों एवं उनके पत्रों को नक्‍सलवादी घोषित कर ही दिया है। अब वह दिन दूर नहीं जब वह बापू को राष्‍ट्रद्रोही, आजाद, भगत, बटुक और बिस्मिल को गुंडा कातिल और लुटेरा बताएगी। फैज और इकबाल को लफंगा और मवाली करार देगी, जिसपर खुशी से नाचे, झूमे और गाएंगे उन लोगो के दिल जो इक्‍कीसवीं सदी में जाने का सपना संजोने और उसे साकार करने में लगे है।.......और फिर आयोजित होंगे, बडे-बडे समारोह जिनमें पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ यह वर्ग विशेष यह घोषणा करेगा कि अब हम इक्‍कीसवीं सदी में पहुंच गए हैं, और साथ ही यह घोषणा भी होगी कि हम इस खुशी के मौके पर बिहार पुलिस को ‘ पुलिस आफ द इक्‍कीसवीं सदी ‘ के पुरस्‍कार से सम्‍मानित करते हैं।
(अमर उजाला के 2 फरवरी 1986 के अंक में प्रकाशित)

Tuesday, December 30, 2008


सही रास्‍ते का चुनाव

जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं जब सामने कई रास्‍ते होते हैं और व्‍यक्ति को यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि वह किस रास्‍ते पर कदम बढाए। ऐसा ही कुछ उस दिन मेरे साथ भी था जब मैं कमल के साथ कानपुर जाने के लिए ट्रेन में सवार हुआ था। घर से स्‍टेशन आते समय रास्‍ते में मेरे द्वारा लिखे गए बालगीतों की तारीफ सुन कर मैं खुश तो जरूर हुआ था लेकिन अंतरमन में कहीं एक द्वंद चल रहा था। द्वंद इस बात को लेकर था कि कमल से मुलाकात के बाद से मेरा रोज देर रात तक घर से बाहर रहना, घर पर रहने के दौरान पढाई की किताबों को छोड कविताएं और कहानियां लिखते रहना पिता जी को बहुत नागवार गुजर रहा था। वह हमेशा बडबडाते रहते थे। उनकी चिंता इस बात को लेकर थी कि अगले ही साल उनका रिटायरमेंट था। बहुत सी उम्‍मीदें सजों रखीं थीं उन्‍होंने मुझसे। वैसी ही उम्‍मीदें जैसी कि हर बाप अपनी औलादों से करता है। चूंकि मैं अपने तीन भाई बहनों में सबसे बडा था इस लिए उनका मुझसे उम्‍मीद करना जायज भी था.......लेकिन अफसोस, मैं उनकी उम्‍मीदों पर खरा नहीं उतरा। वह अलग बात है कि मैने कालांतर में उनके द्वारा छोडी गई सभी जिम्‍मेदारियों को भली भांति निभाया लेकिन मेरा वह बूढा बाप मेरी ओर से पूरी तरह निराशा में लिपटा हुआ ही इस दुनिया से चला गया। कचहरी में काम करने वाला वह मामूली क्‍लर्क बेटों को डाक्‍टर और इंजीनियर बनाने का बडा सपना संजोए था और बेटा , यानीकि मैं, कुछ और ही ठाने बैठा था।
वैसे देखा जाए तो शुरू में सब ठीक ठाक चला। हाई स्‍कूल तक मैं बहुत अच्‍छा स्‍कालर रहा लेकिन उसी दौरान मेरी एक छोटी बहन की पैदाइश और उसकी बीमारी को लेकर होने वाली भाग दौड और खर्च ने जहां पिताजी को तोड कर रख दिया वहीं मैं भी स्‍कूल में गलत संगत में पड गया। एक ओर मां और पिताजी मेरी उस छोटी बहन को लेकर डाक्‍टरों के चक्‍कर लगाते फिरते थे वहीं मैं स्‍कूल में कुछ बदमाश लडकों की संगत में स्‍कूल बंक कर फिल्‍में देखने और गांजा व चरस जैसे नशों के फेर में पड गया था। पूरे एक साल हजारों रुपए फूंकने के बाद भी मेरी छोटी बहन जीवित नहीं बची। चूंकि मेरे पिताजी की दुनियां कचहरी और घर के सिवा कुछ भी नहीं थी, शायद इसी लिए जब मेरी वह छोटी बहन मरी तो उसके शव को घर से गंगाघाट तक लेकर जाने के लिए मेरे और पिताजी के सिवा कोई नहीं था। उस मासूम बच्‍ची की लाश को अपनी दोनों बांहों में उठाए पिताजी और मैं टैंपो पकड कर उन्‍नाव से शुक्‍लागंज के गंगा घाट पर गए थे और पंडे ने मेरी उस बहन के शव को एक बडे पत्‍थर से बांध कर गंगा में प्रवाहित कर दिया था। मैं रो रहा था। पिता जी मुझे समझा रहे थे। रोते नहीं बेटा , मैं तुम्‍हारे लिए दूसरी बहन ला दूंगा। मैं लगातार रोए जा रहा था। पिताजी ने भी अपने आंसू आंखों में समेट रखे थे। शायद इस लिए कि मुझ पर उसका बुरा असर न हो। यह वह घटना थी जिसने मेरे मन में एक बात बडी ही गहराई से उतार दी कि व्‍यक्ति को सा‍माजिक होना चाहिए। अगर मेरे पिता जी का कोई सोशल सर्किल होता तो हमें बहन के शव को गंगा में प्रवाहित करने के लिए अकेले नहीं जाना होता। ऐसे जीने से भी क्‍या फायदा कि पैदा हुए ,खाया, पिया, बच्‍चे पैदा किए और मर गए। कुत्‍ते- बिल्लियों की तरह। लानत है ऐसी जिंदगी पर।
शायद यही कारण था कि स्‍कूल में मेरा सर्किल बहुत बडा था। बस एक ही बात थी दिमाग में हमे ऐसा कुछ करना है जिससे कि दुनियां हमें जाने। वह अलग बात है कि अच्‍छे और बुरे में अंतर करने की सलाहियत न होने के कारण मेरे स्‍कूल के सर्किल में दोनों तरह के लोग मुझसे जुडे। संगीत और अभिनय में मेरी रुचि थी सो स्‍कूल में अनिल बवाली मेरा अच्‍छा दोस्‍त था। किशोर कुमार के गाने वह बिल्‍कुल उन्‍हीं की आवाज में गाता था। वह एक हलवाई का बेटा था। अनिल के साथ ही ललित , पूर्णेंदु , कमल किशोर शर्मा और दिलीप लाला भी मेरे दोस्‍त थे।
उधर घर में आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। पैसे न मिलने के कारण इंटरमीडिएट में मैं अपने जूलोजी प्रेक्टिकल की फाइल तक नहीं बना पाया था। किसी तरह मांग जांच काम चलाया। इम्‍तहान हुए लेकिन घर की परेशानियों और वैचारिक उथल पुथल के बीच नतीजा यह निकला कि मैं इंटरमीडिएट में फेल हो गया।
रिजल्‍ट देख कर पिता जी का पारा सातवें आसमान पर था। उन्‍होंने घोषणा कर दी कि अब वह मुझे और आगे नहीं पढा सकते। बस , एक ही ताना था कि जैसे भी हो कुछ कमाओ। कुछ नहीं तो कम से कम अपना खर्च तो निकालो। आखिर दो बच्‍चे और भी हैं घर में। जो भी जमा पूंजी थी उसे तुम्‍हारी बहन के इलाज में खर्च कर चुका हूं मैं। सोचा था कि बेटा बडा होगा तो सहारा देगा और एक यह पैदा हुआ है हमारे घर में जिसे नाटक ड्रामों से ही फुरसत नहीं है। कम से कम ग्रेजुएशन तो कर लेता तो डीएम साहब से हाथ पांव जोड कर क्‍लर्क ही लगवा देता.......लेकिन यह हरामखोर तो इंटर भी नहीं कर पाया। .........अरे कायस्‍थों के घर में जन्‍म लिया है.......पढे लिखेगा नहीं तो क्‍या भीख मांगेगा......ऐसों को तो कोई भीख भी नहीं देता। पिता जी धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। मां, घर के एक कोने में अपनी साडी के पल्‍लू में सिर छुपाए सुबक रही थी। दोनों भाई बहन सहमे हुए से आंखों में आंसू भरे चारपाई पर बैठे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्‍या हो रहा है।
उधर मैं..दुखी भी था और पिता की बातों को लेकर गुस्‍से में भरा हुआ भी। अंतरमन में कहीं कोई संकल्‍प जन्‍म ले रहा था क्‍योंकि मैं और पिता जी , दोनों एक दूसरे की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे थे। अपेक्षाएं हमेशा दुख का कारण बनती हैं। सुखी रहना है तो अपेक्षाओं को त्‍यागना होगा।
मुझे नहीं पता कि पिताजी ने मुझसे अपनी अपेक्षएं त्‍यागीं या नहीं लेकिन उस दिन से ही मैने उनसे की जाने वाली सारी अपेक्षाएं त्‍याग दी थीं। भूल गया था मैं, कि मुझे डाक्‍टर बनना है। सीपीएमटी की तैयारी करनी है। बस एक ही लक्ष्‍य था कि पैसे और नाम कमाना है। पैसे ,कम से कम इतने कि जिससे मैं अपनी पढाई और अपना खर्च उठा सकूं। पिता पर बोझ न बनूं। नाम, कम से कम इतना कि मरूं तो मेरे शहर के लोग तो जानें ही कि कोई शख्‍स था जो मर गया। ........................मैं बडी ही खामोशी के साथ पिताजी को बडबडाता छोड कर घर से बाहर आ गया।
शाम का वक्‍त था......हमेशा कि तरह स्‍कूल के सभी दोस्‍त स्‍कूल के पास वाली रेलवे क्रासिंग पर रामफूल पान वाले की दुकान पर जमा थे। पूर्णेदु और दिलीप लाला गांजे की सिगरेट भरने में लगे थे। अनिल बवाली और ललित अलग खडे आपस में बाताचीत कर रहे थे। मुझे देखते ही दिलीप ने आवाज दी। आ जा यार ओपी। इस बार रिजल्‍ट बहुत खराब रहा........।
हां......मैने सहमति में सिर हिलाया।
लेकिन, यार तू हिंदी में कैसे फेल हो गया...तेरी तो हिंदी बहुत अच्‍छी है ?
पता नहीं यार......मैने एक गहरी सांस भरी। सिगरेट भर रहा है क्‍या...मैने पूछा तो दिलीप ने गांजे से भरी एक सिगरेट मेरी ओर बढा दी.......ले यार, तू भी गम गलत कर ले।
मैने दिलीप से सिगरेट लेकर जलाई और अभी आया कह कर वहीं कुछ दूर खडे अनिल बवाली और ललित की तरफ बढ गया।
यार अनिल मुझे कुछ बात करनी है तुझसे.....................मैं अनिल से मुखातिब हुआ।
तब तक गाडी कानपुर सेट्रल के प्‍लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी और कमल मुझे कंधे पकड कर हिला रहा था। कहां खो गए ओपी.......कानपुर आ गया। आओ चलते हैं।
मैं अचानक चौंक कर उठा था.......हां, आओ चलते हैं।
(क्रमश:)

लघु कथा

क्‍योंकि........?

‘अ’ एक जानवरों का व्‍यापारी है। उसकी बकरी ने एक बच्‍चा दिया है।
‘अ’ खुश है क्‍योंकि.......?
‘ब’ एक (?) है। उसके घर एक बच्‍चा हुआ है। वह खुश है क्‍योंकि...?
‘अ’ अपनी बकरी के बच्‍चे की दिनरात सेवा करता है क्‍योंकि.........?
‘ब’ अपने लडके को खिलाता पिलाता, पढाता लिखाता व प्‍यार करता है क्‍योंकि....?
‘अ’ की बकरी का बच्‍चा अब बडा व तंदरुत हो गया है। ‘अ’ खुश है क्‍योंकि.........?
‘ब’ के लडके न एमबीबीएस कर लिया है। वह डाक्‍टर बन गया है।
’ब’ खुश है क्‍योंकि.......?
‘अ’ बाजार में सीना फुला कर खडा है और उस बकरे की बारह सौ रुपये कीमत मांग रहा है क्‍योकि.......?
(नीलामी पूरे शाबाब पर है)
‘ब’ अपने डाक्‍टर लडके के लिए लडकी वालों से साठ हजार रुपए दहेज मांग रहा है क्‍योंकि...............?
(नीलामी पूरे शाबाब पर है)
बकरी का बच्‍चा जो अब अच्‍छा खास बकरा है, सब कुछ देख रहा है, मगर चुप है क्‍योंकि..............?
लडका जो अब डाक्‍टर है, सब कुछ देख रहा है, मगर चुप है क्‍योंकि......?
वह एक निरीह पशु है !
वह एक निरीह (?) है।
(सारिका के 1-3-1982 के अंक में प्रकाशित)

लघु कथा

रोटी
गंदली नालियों के किनारे बसी टूटे फूटे मकानों की उस झोपड पट्टी में बुधुवा के घर दो दिनों से चूल्‍हा नहीं जला था। बुधुवा का वर्षीय बच्‍चा कलुआ मारे भूख के दरवाजे पर खडा रो रहा था। घर के सामने कूडे के ढेर पर कुछ कुत्‍ते अपने पंजों से कुछ खोदने में जुटे थे।
अचानक नन्‍हें कलुआ की निगाह कूडे के ढेर में किसी चीज पर जाकर अटक गईं और उसके छोटे छोटे पांव उस कूडे के ढेर की ओर बढ चले। कलुआ को देख कूडे के ढेर पर उछल कूद मचाते कुत्‍ते एक ओर हट कर खडे हो गए। कलुआ ने कूडे के ढेर से एक सूखी हुई धूल सनी रोटी, जिसे देख कर वह वहां आया था, अपने हाथों में उठा ली और उसे बडे चाव से खाने लगा। तभी एक कुत्‍ते ने आश्‍चर्य से उसे देखते हुए कहा- ऐ..तुम तो आदमी के बच्‍चे हो, तुम यह कूडे के ढेर में पडी धूल सनी रोटी क्‍यों खा रहे हो। तुम्‍हें तो अच्‍छी रोटी मिलनी चाहिए।
यह सुनकर कलुआ ने उस गंदी रोटी को एक बार ि‍फर गौर से देखा और उसी चाव से उसे खाते हुए वहां उसकी ओर देख रहे कुत्‍तों को घूरने लगा। मानो कह रहा हो- तुम कुत्‍ते हो न, इस लिए यह बात समझते हो।

(दैनिक जागरण के 28-7-1985 के अंक में प्रकाशित)

व्‍यंग्‍य

सिर्फ चारे का सवाल है बाबू

आप मानें या न मानें चारा है बडे काम की चीज। खास कर आज के दौर में इसकी महत्‍ता के विषय में ‘बिन चारा सब सून ’ जैसी कहावत का प्रयोग अतिशयोक्ति न माना जाएगा।
जरा गौर से देखें तो पत्‍ता-पत्‍ता, बूटा-बूटा चारे के हाल से वाकिफ मिलेगा। कहीं कर्मचारी अधिकारी को चारा डालता मिलेगा तो कहीं चतुर अनाडी को अक्‍सर यह भी सुनने में आता ही रहता है कि अमरीका हिंदुस्‍तान सहित पाकिस्‍तान और दूसरे देशों को चारा डाल रहा है।
कसम हिंदुस्‍तान के काल्‍पनिक समाजवाद की यहां तो हर तरफ चारा ही चारा है और शायद यही कारण है कि मुझे हिंदुस्‍तान में रह कर छज्‍जू मियां के घुडसाल की याद बहुत आती है। कसम से......वहां भी चारो तरफ चारा ही चारा होता था, लेकिन एक अच्‍छाई थी कि मियां की घुडसाल से निकले कि चारावाद समाप्‍त, मगर यहां तो पीछा ही नहीं छोडता कमबख्‍त। नजर उठाई कि बस चारा। लगे पडे हैं लोग, जैसे हिंदुस्‍तान में चारा डालने के सिवा कोई काम बचा ही नहीं है।
स्‍कूल में जाओ तो छात्र अध्‍यापक को चारा डालते मिलेंगे। व्‍यापारीगण सीमेंट का प‍रमिट और राशन का कोटा पाने के लिए चारेबाजी में ऐसा मस्‍त होते हैं कि कृष्‍ण की बांसुरी में गोपियां भी उतना मस्‍त न होती होंगी। इतने से ही मामला रफा दफा हो जाए तो भी गनीमत, मगर यहां तो इश्‍क और मुश्‍क में भी चारे का ही बोलबाला है। बनन में बागन में बगरो बसंत की तरह चारा हर कहीं बिखरा पडा है।
जहां तक चुनावी प्रक्रिया में चारे की उपस्थिति का प्रश्‍न है, चारा यहां तो वैसे ही विद्यमान है आफिसों में भ्रष्‍टाचार, आदमी दुर्विचार, पढे‍ लिखों में बेरोजगार और शिक्षा में व्‍यापार। कहीं, कुछ खाली नहीं। सब भरा भरा सा है। बिल्‍कुल चारे से लबरेज, और होना भी चाहिए, क्‍यों कि चारा ही सफलता का मूल मंत्र है।
हमारे एक शोधार्थी मित्र के अनुसार चारेबाजी हिंदुस्‍तान में अंग्रेजों के समय से है। बस अंतर इतना है कि उनके समय में इसे बटरिंग का दर्जा प्राप्‍त था। अंग्रेज गए, आजादी मिली, मंहगाई आई, बटर पिघला....और जनाब ऐसा पिघला कि लोग देखने तक को तरस गए। रह गया सिर्फ चारा....केवल चारा...मात्र चारा।....वैसे, औकात औकात की बात है। बटरिंग के लिए करने और करवाने वाले, दोनों को एक बार सोचना पडता है। अस्‍तु , चारा ही ठीक है। बिना हर्र और फिटकरी के चोखा चोखा रंग, और फिर अब तो बडे बडे लोग चारे का ही इस्‍तेमाल कर रहे हैं। नेता से लेकर अभिनेता तक चारेबाजी से अछूते नहीं हैं। चुनाव में चारे का प्रयोग अपने चरमोत्‍कर्ष पर होता है। इस दौरान जब भी कोई यह कहता है कि –‘ अमुक नेता जनता के आगे चारा डाल रहा है। ‘ मेरी आंखों के सामने अपने घोडों को चारा डालते छज्‍जू मियां नाचने लगते हैं। वैसे आम तौर पर देखा जाए तो चारा है भी जानवरों के इस्‍तेमाल की चीज। उनके आगे ही डाला जात है। .......अब आप मुझसे यह मत पूछिएगा कि ऊपर मैने एक दूसरे को चारा डालने के संबंध में जिन जिन लोगों को जिक्र किया, वह सब एक दूसरे को क्‍या समझते हैं।
फिलहाल इतना ही काफी है कि चारा अपने आप में महान है। इसके बिना तरक्‍की नहीं पाई जा सकती। इसके बिना कोटा परमिट नहीं मिल सकता। इसके बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता।
अभी कुछ ही दिनों की बात है। अखबार में एक खबर छपी थी। जरूरत है एक फडफडाते नारे की। खबर का मजमून था कि कांग्रेस को एक फडफडाते नारे की तलाश है। नारा मिल नहीं रहा है। मुझे लगा कि कोई बोला कांग्रेस को चारा नहीं मिल रहा है। ठीक बोला न.....। नारा चारा का ही पर्याय है। अब नहीं मिल रहा है तो परेशानी लाजमी है, क्‍योकि बिन चारा सब सून। समस्‍या है....सि र्फ कांग्रेस की ही नहीं बल्कि सभी दलों की। चर्चा है। चुनाव सिर पर। नामांकन हो चुके हैं। प्रचार शुरू है। सब कुछ मौजूद है, सिर्फ चारे का सवाल है बाबू।

(पंजाब केसरी के 1-3-1985 के अंक में प्रकाशित)

Thursday, December 25, 2008

रचनाधर्मिता में बाजारवाद
चार्चित व्‍यंग्‍य लेखक कमल किशोर सक्‍सेना से पहली मुलाकात के बाद देर रात घर लौटने के बाद से सुबह तक दो शब्‍द मुझे पूरी रात परेशान किए रहे। एक शब्‍द था लेखन और दूसरा व्‍यावसायिक लेखन अर्थात प्रोफेशनल राइटिंग। उस समय, जहां तक मैं समझ पाया कि लेखन स्‍वतंत्र रूप से अपने मौलिक विचारों, अनुभवों और संवेदनाओं को साहित्‍य की किसी भी विधा में उतार देना मात्र है, और व्‍यावसायिक लेखन समाज की वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में प्रकाशक की मांग के अनुरूप अपने विचारों को साहित्‍य की किसी भी विधा के ऐसे रूप में आकार देना है जो न सिर्फ विचारों के स्‍तर पर पाठक को आंदोलित कर सके बल्कि उसे खरीदने के लिए पाठक को बाध्‍य भी कर सके। कुल मिला कर नतीजा यह निकला कि अगर छपने के लिए लिखना है तो बाजार और उसकी मांग पर नजर रखना बहुत जरूरी है।
.....................ि‍फलहाल वैचारिक द्वंद के बीच किसी तरह रात कटी। पढने लिखने और आपसी मुलाकातों का यह सिलसिला चल निकला। मूल रूप से मैं कविताएं लिखता था, इस लिए उन पत्रिकाओं को विशेष रूप से पढना शुरू किया जिनमें कविताएं प्रकाशित होती थीं। अब शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता जिस दिन हमारी कमल से मुलाकात न होती हो। हमारे बीच सहजता इतनी थी कि आहिस्‍ता आहिस्‍ता कमल जी मेरे लिए कमल और मैं उनके लिए ओपी हो गया। वक्‍त गुजरता गया एक महीने में मैंने जहां जहां जितनी भी रचनाएं भेजीं वह संपादक के अभिवादन एवं खेद सहित की पर्चियों के साथ वापिस आ गईं। इस असफलता को लेकर मन बहुत दुखी था। मैं और कमल रात में उन्‍नाव के उसी बडे चौराहे की चाय की दुकान पर बैठे थे। मैने आशंका व्‍यक्‍त की...........शायद मैं स्‍तरीय नहीं लिखता।
कमल ने अपने थैले से बीडी निकालते हुए मुझे हौसला दिया........नहीं, ऐसा नहीं है, तुम अच्‍छा लिखते हो लेकिन हो सकता है तुमने अपनी जो रचना जिस पत्रिका के लिए भेजी वह उसके अनुरूप न रही हो। इस लिए लिखना जारी रखो...........। कमल ने एक बीडी मेरी ओर भी बढा दी जिसमें एक लम्‍बा कश लेकर मैने बडा सुकून सा महसूस किया।
कमल ने भी अपनी बीडी में लम्‍बा कश लगा कर ढेर सारा गाढा धुआं उगला और मुझसे मुखातिब हुआ..................तुम कविताओं और गजल के साथ ही साथ अन्‍य विधाओं में क्‍यों नहीं कोशिश करते ? आचानक मेरी सवालिया निगाहें कमल की ओर उठ जाती हैं........? कमल मुझे समझा रहे थे.........देखो, बाल साहित्‍य लिखने वालों की बहुत कमी है, नाटकों पर भी कोई काम नहीं हो रहा है। शैक्‍सपियर, विजय तेंदुलकर, शंकर शेष, सुशील कुमार सिंह जैसे कुछ चर्चित नाटककारों के नाटकों को मंचित करने के सिवा रंगमंच से जुडे लोगों के पास अच्‍छी स्क्रिप्‍ट नहीं है। ऐसे में अगर कोई अच्‍छा नाटक लिख सको और कोई इप्‍टा जैसी कोई बडी संस्‍था उसका मंचन करे तो एक दिन में तुम्‍हारा नाम चर्चा में आ सकता है। इसी लिए मैने भी कुछ नाटक लिखे हैं।
............कमल की इन बातों पर मैने भी सहमति में सिर हिलाया। इसी बीच चाय वाला मिट़टी के कुल्‍हड में हम दोनों को चाय पकडा गया। कुल्‍हड मुंह के पास ले जाते ही अदरक वाली चाय की भाप के साथ मिट़टी की एक सोंधी गंध नथुनों से होती हुई दिमाग में जाकर बस गई। रचनाएं न छपने से हुई निराशा कुछ हद तक कम हुई थी.............तुम ठीक कहते हो कमल भाई, अब काव्‍य के साथ दूसरी विधाओं में भी कोशिश करूंगा।
यार मैं सोच रहा हूं कि अपनी एक लघु नाटिका सस्‍ते दामाद की दुकान का मंचन करू.......कमल ने बातचीत के सिलसिले को आगे बढाया।
अच्‍छा आइडिया है......मैने भी हामी भरी....।
इसमें कोई बडा नाटक भी जोड लेते हैं........मैने सुझाव दिया।
यह वह दौर था जब जगह जगह हिंदू मुस्लिम विवाद हो रहे थे। ऐसे में हम दोनों की बातचीत में यह तय हुआ कि हिंदू मुस्लिम एकता पर कोई अच्‍छी स्क्रिप्‍ट हो तो उसे तैयार किया जा सकता है। योजना बनी कि कानपुर चल कर यूनिवर्सल बुक डिपो से कोई स्क्रिप्‍ट लाई जाए। कमल ने बताया कि उसके कुछ मित्र हैं जो इस प्रोजेक्‍ट में हमारे साथ होंगे। उसने कहा कि वह उन सबसे हमें मिलवाएगा। उन मित्रों में कचहरी में मुंशीगीरी करने वाले मेराज जैदी, सप्‍लाई दफ़तर के एक क्‍लर्क गिरजा शंकर अवस्‍‍थी, डनलप मास्‍टर साहब और साडियों पर पेंटिंग करने वाले एक व्‍यक्ति के साथ ही साथ और भी कई नाम उसने गिनाए। कुल मिला कर एक पूरी टीम थी उसके पास और अब मै भी उस टीम का हिस्‍सा हो गया था। अगले दिन कानपुर जा कर स्क्रिट लाने की बात तय करके हम लोग अपने अपने घर की ओर चल दिये। उस समय रात के दो बजे थे। सूनी सडक पर मैं पैदल यह सोचता चला जा रहा था कि क्‍यों न हिंदू मुस्लिम एकता पर कोई गजल लिखी जाए..........क्‍योंकि यह उस समय का सबसे बिकाऊ मुद़दा था। मैं यूं ही कुछ गुनगुनाने लगा था। रात के सन्‍नाटे में सूनी सपाट सडक पर अकेले गुनगुनाते हुए चलने का अपना ही मजा था। लगभग पौन घंटे पैदल चलने के बाद जब मैं घर पहुंचा तो गुनगुनाहट के साथ उभरे कुछ शब्‍द इस अपरिपक्‍व रचनाकार की नई गजल के शेरों में तब्‍दील हो चुके थे। आइये उस गजल से आपको भी रूबरू कराता हूं..........
गजल
दो कदम और जरा आपको चलना होगा।
अपना दावा है जमाने को बदला होगा।।
वो जो फुटपाथ पे किस्‍मत के भरोसे बैठे।
आज उठकर उन्‍हें फौलाद में ढलना होगा।।
ह से हिंदू है अगर म से मुसलमा कोई।
मिल के दोनों को अब हम में बदलना होगा।।
अब तो ये जिद है दिल चाहे नजारे देखें।
गर नजर है तो नजारों को बदलना होगा।1
जो अभी तक किसी शायर की गजल के से थे।
आज पूरा उन्‍हें दीवान सा बनना होगा।।
(13-6-1982 के स्‍वतंत्र भारत में प्रकाशित)
गजल

भरे हैं पेट जिनके सिर्फ ये उनकी खता है।
हमारे बीच हैं कातिल यहां सबको पता है।।
जिसने रात अपने भाइयों को कत्‍ल कर डाला।
अब के दौर में वो आदमी ही देवता है।।
जिम्‍मा है हिफाजत का हमारी जिसके सर।
वो खुद ही अपना सर बचाता घूमता है।।
एक लानत बन गया है धर्म भी।
आग में जलता हुआ हिंदोस्‍तां है।।
खून से डूबी हुई सडकों पे वो।
पागल ही तो है, मोहब्‍बत ढूंढता है।।
(दैनिक जागरण में प्रकाशित)
(क्रमश:)