Tuesday, July 3, 2018

दिल बोलता है



हां, ये सच है…..! दिल बोलता है…….बताता है, क्‍या गलत है और क्‍या सही। उस दिन मेरा भी बोला था, मगर जिज्ञासाओं के समंदर की लहरों के थपेड़े इतना शोर किए हुए थे कि दिल की आवाज उसमें कहीं दब सी गई थी। परवेज मुझे समझा रहा था- देख शहजादे, चप्‍पलों की फैक्‍ट्री तक इन्‍हीं गलियों से होकर जाना है। बीच में कहीं रुकना नहीं, मेरे पीछे-पीछे चलते रहना। कोई आवाज दे या फिर इशारा करे तो रुकना नहीं।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि परवेज मुझे इतना क्‍यूं समझा रहा है। आखिर ऐसा क्‍या है इस गली में। खैर, मैने भी सिर हिलाकर हामी भरी और परवेज के पीछे-पीछे हो लिया। मूलगंज की उन तंग गलियों में घुसते ही सस्‍ते सौंदर्य प्रसाधनों की गंध मेरे नथुनों से टकराई। गली के दोनों ओर छोटे-छोटे कोठरीनुमा कमरों जिन्‍हें लोग कोठे कहते हैं, के दरवाजों पर खड़ी लड़कियां और औरतें, हर आने जाने वाले को छेड़ रही थी……..अरे, आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया…..अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।
इसी तरह के और भी न जाने कितने अल्‍फाज मेरे कानों में पड़ते जा रहे थे और मैं तेज कदमों से परवेज के पीछे-पीछे लगभग दौड़ सा रहा था। मेरा दिल बहुत तेजी के साथ धड़क रहा था। इतना तेज मानो सीने के बाहर निकल पड़ेगा। कोठरियों के बाहर चबूतरों पर खड़ी लड़कियों के मुंह से निकलने वाली भद्दी गालियां और तमाम अश्‍लील इशारे।
उफ, यहां तो एक अलग ही दुनियां थी। किसी तरह, कई संकरी गलियों से होते हुए हम चप्‍पल बनाने वाली एक फैक्‍ट्री तक पहुंचे। रास्‍ते में, मैं तो पूरी तरह चुप रहा लेकिन परवेज पूरी तरह बिंदास, एकदम मस्‍ती के मूड में उन कोठेवालियों के फिकरों का जवाब देते ठहाके लगाते यहां तक पहुंचा। फैक्‍ट्री में घुसते ही चप्‍पलें बनाने में जुटे कारीगरों के काम करने से होने वाली आवाजों, और चमड़े की गंध ने मेरी तंद्रा भंग कर दी। परवेज मुझसे मुखातिब हुआ……क्‍यों शहजादे, आज देख लिया नजारा मूलगंज की रोटी वाली गली का। परवेज के इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं इतना डरा और सहमा हुआ था कि सबकुछ देखने सुनने के बाद भी ऐसा लग रहा था कि मैने कुछ भी नहीं देखा, कुछ भी नहीं सुना। मेरा गला सूख रहा था। फैक्‍ट्री में ही सामने रखे मिट्टी के एक बड़े घड़े से निकाल कर दो गिलास पानी पिया, तब जाकर राहत महसूस हुई। रास्‍ते के सारे दृश्‍य दिमाग में तूफान उठाए हुए थे। उधर परवेज चप्‍पलों को देखने और उनका मोल-भाव करने में लग गया था। तकरीबन एक घंटा हम इस फैक्‍ट्री में रहे। परवेज ने यहां से चार बोरी चप्‍पलें खरीदीं। वह खुश था……बहुत बढिया माल मिला है प्‍यारे। पंद्रह रुपये जोड़ी खरीदी हैं, पैंतीस रुपये में आराम से बेच डालूंगा…….एक रिक्‍शा तो पकड़ स्‍टेशन तक का……उसने मुझे इशारा किया। मैं फैक्‍ट्री से बाहर आया और एक रिक्‍शे वाले को रोका।
परवेज ने चप्‍पलों से भरे चारो बोरे रिक्‍शे पर लाद दिए और उन्‍हीं बोरों पर हम भी सवार हो गए। रिक्‍शा चला ही था कि उसने रिक्‍शे वाले को हांक मारी………शहजाद के होटल पर रोकना, कुछ खा पीकर चलेंगे। मैंने परवेज की ओर सवालिया नजरों से देखा तो उसने मुझे आश्‍वस्‍त किया……कबाब परांठे खिलाता हूं तुझे। क्‍या कबाब बनाता है, खा के देखना। मजा न आए पैसे वापस। उसके इस अंदाज पर मैं मुस्‍करा भर दिया।
शहजाद का होटल आ गया था। हम दोनों रिक्‍शे से उतरे और होटल में जाने लगे, तभी परवेज ने रिक्‍शे वाले को भी आवाज दी, अरे, तू भी आ न भाई, वहां क्‍यूं खड़ा है। छोड़ दे रिक्‍शा वहीं बाहर, कोई नहीं ले जा रहा सामान। रिक्‍शे वाला भी हमारे साथ होटल में अंदर आ गया। वह दूसरी टेबल पर बैठने लगा तो परवेज ने हाथ पकड़ कर उसे अपने पास बिठा लिया। अरे, यहां बैठ न हमारे साथ। और फिर हांक मारी…..शहजाद भाई, तीन प्‍लेट कबाब परांठे लगा दो, मगर जल्‍दी….ट्रेन छूट जाएगी। उधर गद्दी पर बैठे शहजाद ने भी सुर में सुर मिलाया…..अभी लाया भाई। अरे ओ फरीद……दो नंबर पे तीन कबाब परांठे लगा, बहुत जल्‍दी।
कबाब परांठे खाने के बाद हम कानपुर सेंट्रल रेलवे स्‍टेशन आ गए। चप्‍पलों के बोरे ट्रेन में लाद दिए गए। परवेज को सीधे लखनऊ जाना था और मुझे उन्‍नाव में उतर जाना था। ट्रेन चलने में अभी देर थी। परवेज प्‍लेटफार्म के एक किनारे पर खड़ा विल्‍स नेवीकट की सिगरेट फूंक रहा था और मैं वहीं एक बेंच पर बैठा था। रोटी वाली गली का माहौल अब भी मेरे दिमाग में घूम रहा था। रही कोठों की बात तो उस समय तक कोठों के बारे में मुझे उतना ही ज्ञान था, जितना फिल्‍मों में देखा था, लेकिन यहां तो कुछ और ही नजारा देखने को मिला। यही वजह थी कि सवाल पर सवाल मेरे किशोर मन को मथे जा रहे थे। इसी बीच ट्रेन चलने को हुई तो परवेज और मैं डिब्‍बे के अंदर आ गए। ट्रेन चल पड़ी लेकिन मैं पूरी तरह खामोश था। परवेज हमेशा की तरह जुआरियों की मंडली में जाकर बैठ गया था। बात-बात पर उसके ठहाके पूरे डिब्‍बे में गूंज रहे थे, और मेरे जहन में गूंज रहे थे रोटी वाली गली की  वेश्‍याओं के वो शब्‍द…… अरे, आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया…..अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।
ट्रेन उन्‍नाव जंक्‍शन पर रुकी तो मैने परवेज को हांक मारी। भाई परवेज चलता हुं मैं….!
परवेज ने भी वहीं जुआरियों के पास बैठे - बैठे हाथ हिला कर सहमति दी…….ठीक है शहजादे, फिर मिलते हैं।
उसे लखनऊ जाना था। मैं उन्‍नाव स्‍टेशन के प्‍लेटफार्म पर ट्रेन से उतरा तो शाम हो चुकी थी। सिर बहुत भारी-भारी सा लग रहा था। जैसे किसी ने एक बोझ सा रख दिया हो उसपर। पैदल-पैदल पूड़ी वाली गली, बड़ा चौराहा और छोटा चौराहा होते हुए मैं घर पहुंच गया था। मां ने पूछा भी…..कहां था पूरे दिन। इस सवाल का कोई जवाब नहीं था मेरे पास। मुंह हाथ धोकर बाहर के कमरे में एक किताब लेकर बैठ गया। पिता जी अंदर के कमरे में हमेशा की तरह बड़बड़ा रहे थे………कुछ करना धरना नहीं है इसे, दिन भर आवारा लड़कों के साथ घूमता फिरता है। घर में बिना कुछ किए धरे रोटी मिल जाती है। जब कमा के लाएगा तब पता चलेगा कि रोटी की कीमत क्‍या होती है।
पिता जी की आवाज हमेशा की तरह कानों में सीसा घोल रही थी। इस आवाज को सुन झुझला उठा था मैं। हुंह….इस घर में तो एक पल भी चैन से नहीं बैठ सकता….। हाथ में पकड़ी किताब को वही मेज पर पटकते हुए मैं कमरे से बाहर जाने लगा तो मां ने पीछे से आवाज दी……अरे, अब कहां जा रहा है…..कुछ खा तो ले।
नहीं खाना है मुझे….मैं गुस्‍से में पैर पटकते हुए फिर घर से बाहर आ गया था। मन बहुत अशांत था। आखिर, इस घर को तो छोड़ना ही होगा। मैं घर से चला जाऊं तो पिताजी पर कम से कम एक आदमी के खर्च का बोझ तो कम हो। मेरे कदम धीमे-धीमे तहसील के सामने वाले ढाबे की ओर बढ़ रहे थे, जहां शाम से ही भजन मंडली के लोग जमा होते थे….जैसे-जैसे ढाबा करीब आ रहा था, ढोलक और मजीरे की ताल पर भजनहारों की आवाजें सुनाई पड़ने लगी थीं….. मंगल भवन, अमंगल हारी, द्रवहु सो दशरथ अजर बिहारीरामा हो रामा। थोड़ी देर वहीं बैठा लेकिन मन बेचैन था, अंदर ही अंदर कुछ उबल सा रहा था। शायद यही वजह थी की बड़े अनमने मन से वहां उठा। शाम पूरी तरह ढल चुकी थी। अंधेरा हो गया था और मैं सड़क के किनारे किनारे यूं ही चला जा रहा था। न कोई मंजिल थी और न ठिकाना। बस, यूं ही चला जा रहा था।
देर रात घर लौटा तो, पिताजी सो चुके थे। मां ,जाग रही थी। उसने ही दरवाजा खोला था एक सवाल के साथ….कहां भटकता रहता है आधी आधी रात तकऔर मैं चुप। कोई जवाब न मिलता देख वह किचेन की ओर चली गई थी…..बैठ वहीं, खाना लाती हूं, खा ले, सुबह से यूं ही घूम रहा है।
मैं बाहर वाले कमरे में ही बैठ गया था और वह खाने की थाली टेबल पर रख कर पास ही खड़ी हो गई थी, मेरे सिर पर हाथ फिराते हुए। क्‍यूं परेशान होता। तेरे पिता जी तो बूढ़े हो गए हैं, इसी लिए हर समय कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। घर की हालत तो तुझे पता ही है। मैं खाना खाने की कोशिश करता हूं लेकिन दो चार कौर से ज्‍यादा नहीं खा पाता। अब भूख नहीं है मांमैं खाने की थाली मां के हाथ में थमा बाथरूम में चला जाता हूं। फिर कुल्‍ला करके आंगन में लगे अपने बिस्‍तर परअब तुम भी सो जाओ मां।
और फिर दिन भर की थकी हारी मां भी, थाली को किचेन में रख, अपने बिस्‍तर पर निढाल हो गई थी।
मैने भी चारपाई के पायताने पर रखी चादर सिर तक खींच ली थी। नींद तो आंखों से मीलों दूर थी। मूलगंज की रोटी वाली गली के वो दृश्‍य आंखों में तैर रहे थे। मैं अपने आप को उसे वेश्‍या के उन शब्‍दों से अलग नहीं कर पा रहा था….……..अरे, आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया…..अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।
(क्रमश:)




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