Tuesday, December 30, 2008


सही रास्‍ते का चुनाव

जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं जब सामने कई रास्‍ते होते हैं और व्‍यक्ति को यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि वह किस रास्‍ते पर कदम बढाए। ऐसा ही कुछ उस दिन मेरे साथ भी था जब मैं कमल के साथ कानपुर जाने के लिए ट्रेन में सवार हुआ था। घर से स्‍टेशन आते समय रास्‍ते में मेरे द्वारा लिखे गए बालगीतों की तारीफ सुन कर मैं खुश तो जरूर हुआ था लेकिन अंतरमन में कहीं एक द्वंद चल रहा था। द्वंद इस बात को लेकर था कि कमल से मुलाकात के बाद से मेरा रोज देर रात तक घर से बाहर रहना, घर पर रहने के दौरान पढाई की किताबों को छोड कविताएं और कहानियां लिखते रहना पिता जी को बहुत नागवार गुजर रहा था। वह हमेशा बडबडाते रहते थे। उनकी चिंता इस बात को लेकर थी कि अगले ही साल उनका रिटायरमेंट था। बहुत सी उम्‍मीदें सजों रखीं थीं उन्‍होंने मुझसे। वैसी ही उम्‍मीदें जैसी कि हर बाप अपनी औलादों से करता है। चूंकि मैं अपने तीन भाई बहनों में सबसे बडा था इस लिए उनका मुझसे उम्‍मीद करना जायज भी था.......लेकिन अफसोस, मैं उनकी उम्‍मीदों पर खरा नहीं उतरा। वह अलग बात है कि मैने कालांतर में उनके द्वारा छोडी गई सभी जिम्‍मेदारियों को भली भांति निभाया लेकिन मेरा वह बूढा बाप मेरी ओर से पूरी तरह निराशा में लिपटा हुआ ही इस दुनिया से चला गया। कचहरी में काम करने वाला वह मामूली क्‍लर्क बेटों को डाक्‍टर और इंजीनियर बनाने का बडा सपना संजोए था और बेटा , यानीकि मैं, कुछ और ही ठाने बैठा था।
वैसे देखा जाए तो शुरू में सब ठीक ठाक चला। हाई स्‍कूल तक मैं बहुत अच्‍छा स्‍कालर रहा लेकिन उसी दौरान मेरी एक छोटी बहन की पैदाइश और उसकी बीमारी को लेकर होने वाली भाग दौड और खर्च ने जहां पिताजी को तोड कर रख दिया वहीं मैं भी स्‍कूल में गलत संगत में पड गया। एक ओर मां और पिताजी मेरी उस छोटी बहन को लेकर डाक्‍टरों के चक्‍कर लगाते फिरते थे वहीं मैं स्‍कूल में कुछ बदमाश लडकों की संगत में स्‍कूल बंक कर फिल्‍में देखने और गांजा व चरस जैसे नशों के फेर में पड गया था। पूरे एक साल हजारों रुपए फूंकने के बाद भी मेरी छोटी बहन जीवित नहीं बची। चूंकि मेरे पिताजी की दुनियां कचहरी और घर के सिवा कुछ भी नहीं थी, शायद इसी लिए जब मेरी वह छोटी बहन मरी तो उसके शव को घर से गंगाघाट तक लेकर जाने के लिए मेरे और पिताजी के सिवा कोई नहीं था। उस मासूम बच्‍ची की लाश को अपनी दोनों बांहों में उठाए पिताजी और मैं टैंपो पकड कर उन्‍नाव से शुक्‍लागंज के गंगा घाट पर गए थे और पंडे ने मेरी उस बहन के शव को एक बडे पत्‍थर से बांध कर गंगा में प्रवाहित कर दिया था। मैं रो रहा था। पिता जी मुझे समझा रहे थे। रोते नहीं बेटा , मैं तुम्‍हारे लिए दूसरी बहन ला दूंगा। मैं लगातार रोए जा रहा था। पिताजी ने भी अपने आंसू आंखों में समेट रखे थे। शायद इस लिए कि मुझ पर उसका बुरा असर न हो। यह वह घटना थी जिसने मेरे मन में एक बात बडी ही गहराई से उतार दी कि व्‍यक्ति को सा‍माजिक होना चाहिए। अगर मेरे पिता जी का कोई सोशल सर्किल होता तो हमें बहन के शव को गंगा में प्रवाहित करने के लिए अकेले नहीं जाना होता। ऐसे जीने से भी क्‍या फायदा कि पैदा हुए ,खाया, पिया, बच्‍चे पैदा किए और मर गए। कुत्‍ते- बिल्लियों की तरह। लानत है ऐसी जिंदगी पर।
शायद यही कारण था कि स्‍कूल में मेरा सर्किल बहुत बडा था। बस एक ही बात थी दिमाग में हमे ऐसा कुछ करना है जिससे कि दुनियां हमें जाने। वह अलग बात है कि अच्‍छे और बुरे में अंतर करने की सलाहियत न होने के कारण मेरे स्‍कूल के सर्किल में दोनों तरह के लोग मुझसे जुडे। संगीत और अभिनय में मेरी रुचि थी सो स्‍कूल में अनिल बवाली मेरा अच्‍छा दोस्‍त था। किशोर कुमार के गाने वह बिल्‍कुल उन्‍हीं की आवाज में गाता था। वह एक हलवाई का बेटा था। अनिल के साथ ही ललित , पूर्णेंदु , कमल किशोर शर्मा और दिलीप लाला भी मेरे दोस्‍त थे।
उधर घर में आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। पैसे न मिलने के कारण इंटरमीडिएट में मैं अपने जूलोजी प्रेक्टिकल की फाइल तक नहीं बना पाया था। किसी तरह मांग जांच काम चलाया। इम्‍तहान हुए लेकिन घर की परेशानियों और वैचारिक उथल पुथल के बीच नतीजा यह निकला कि मैं इंटरमीडिएट में फेल हो गया।
रिजल्‍ट देख कर पिता जी का पारा सातवें आसमान पर था। उन्‍होंने घोषणा कर दी कि अब वह मुझे और आगे नहीं पढा सकते। बस , एक ही ताना था कि जैसे भी हो कुछ कमाओ। कुछ नहीं तो कम से कम अपना खर्च तो निकालो। आखिर दो बच्‍चे और भी हैं घर में। जो भी जमा पूंजी थी उसे तुम्‍हारी बहन के इलाज में खर्च कर चुका हूं मैं। सोचा था कि बेटा बडा होगा तो सहारा देगा और एक यह पैदा हुआ है हमारे घर में जिसे नाटक ड्रामों से ही फुरसत नहीं है। कम से कम ग्रेजुएशन तो कर लेता तो डीएम साहब से हाथ पांव जोड कर क्‍लर्क ही लगवा देता.......लेकिन यह हरामखोर तो इंटर भी नहीं कर पाया। .........अरे कायस्‍थों के घर में जन्‍म लिया है.......पढे लिखेगा नहीं तो क्‍या भीख मांगेगा......ऐसों को तो कोई भीख भी नहीं देता। पिता जी धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। मां, घर के एक कोने में अपनी साडी के पल्‍लू में सिर छुपाए सुबक रही थी। दोनों भाई बहन सहमे हुए से आंखों में आंसू भरे चारपाई पर बैठे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्‍या हो रहा है।
उधर मैं..दुखी भी था और पिता की बातों को लेकर गुस्‍से में भरा हुआ भी। अंतरमन में कहीं कोई संकल्‍प जन्‍म ले रहा था क्‍योंकि मैं और पिता जी , दोनों एक दूसरे की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे थे। अपेक्षाएं हमेशा दुख का कारण बनती हैं। सुखी रहना है तो अपेक्षाओं को त्‍यागना होगा।
मुझे नहीं पता कि पिताजी ने मुझसे अपनी अपेक्षएं त्‍यागीं या नहीं लेकिन उस दिन से ही मैने उनसे की जाने वाली सारी अपेक्षाएं त्‍याग दी थीं। भूल गया था मैं, कि मुझे डाक्‍टर बनना है। सीपीएमटी की तैयारी करनी है। बस एक ही लक्ष्‍य था कि पैसे और नाम कमाना है। पैसे ,कम से कम इतने कि जिससे मैं अपनी पढाई और अपना खर्च उठा सकूं। पिता पर बोझ न बनूं। नाम, कम से कम इतना कि मरूं तो मेरे शहर के लोग तो जानें ही कि कोई शख्‍स था जो मर गया। ........................मैं बडी ही खामोशी के साथ पिताजी को बडबडाता छोड कर घर से बाहर आ गया।
शाम का वक्‍त था......हमेशा कि तरह स्‍कूल के सभी दोस्‍त स्‍कूल के पास वाली रेलवे क्रासिंग पर रामफूल पान वाले की दुकान पर जमा थे। पूर्णेदु और दिलीप लाला गांजे की सिगरेट भरने में लगे थे। अनिल बवाली और ललित अलग खडे आपस में बाताचीत कर रहे थे। मुझे देखते ही दिलीप ने आवाज दी। आ जा यार ओपी। इस बार रिजल्‍ट बहुत खराब रहा........।
हां......मैने सहमति में सिर हिलाया।
लेकिन, यार तू हिंदी में कैसे फेल हो गया...तेरी तो हिंदी बहुत अच्‍छी है ?
पता नहीं यार......मैने एक गहरी सांस भरी। सिगरेट भर रहा है क्‍या...मैने पूछा तो दिलीप ने गांजे से भरी एक सिगरेट मेरी ओर बढा दी.......ले यार, तू भी गम गलत कर ले।
मैने दिलीप से सिगरेट लेकर जलाई और अभी आया कह कर वहीं कुछ दूर खडे अनिल बवाली और ललित की तरफ बढ गया।
यार अनिल मुझे कुछ बात करनी है तुझसे.....................मैं अनिल से मुखातिब हुआ।
तब तक गाडी कानपुर सेट्रल के प्‍लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी और कमल मुझे कंधे पकड कर हिला रहा था। कहां खो गए ओपी.......कानपुर आ गया। आओ चलते हैं।
मैं अचानक चौंक कर उठा था.......हां, आओ चलते हैं।
(क्रमश:)

लघु कथा

क्‍योंकि........?

‘अ’ एक जानवरों का व्‍यापारी है। उसकी बकरी ने एक बच्‍चा दिया है।
‘अ’ खुश है क्‍योंकि.......?
‘ब’ एक (?) है। उसके घर एक बच्‍चा हुआ है। वह खुश है क्‍योंकि...?
‘अ’ अपनी बकरी के बच्‍चे की दिनरात सेवा करता है क्‍योंकि.........?
‘ब’ अपने लडके को खिलाता पिलाता, पढाता लिखाता व प्‍यार करता है क्‍योंकि....?
‘अ’ की बकरी का बच्‍चा अब बडा व तंदरुत हो गया है। ‘अ’ खुश है क्‍योंकि.........?
‘ब’ के लडके न एमबीबीएस कर लिया है। वह डाक्‍टर बन गया है।
’ब’ खुश है क्‍योंकि.......?
‘अ’ बाजार में सीना फुला कर खडा है और उस बकरे की बारह सौ रुपये कीमत मांग रहा है क्‍योकि.......?
(नीलामी पूरे शाबाब पर है)
‘ब’ अपने डाक्‍टर लडके के लिए लडकी वालों से साठ हजार रुपए दहेज मांग रहा है क्‍योंकि...............?
(नीलामी पूरे शाबाब पर है)
बकरी का बच्‍चा जो अब अच्‍छा खास बकरा है, सब कुछ देख रहा है, मगर चुप है क्‍योंकि..............?
लडका जो अब डाक्‍टर है, सब कुछ देख रहा है, मगर चुप है क्‍योंकि......?
वह एक निरीह पशु है !
वह एक निरीह (?) है।
(सारिका के 1-3-1982 के अंक में प्रकाशित)

लघु कथा

रोटी
गंदली नालियों के किनारे बसी टूटे फूटे मकानों की उस झोपड पट्टी में बुधुवा के घर दो दिनों से चूल्‍हा नहीं जला था। बुधुवा का वर्षीय बच्‍चा कलुआ मारे भूख के दरवाजे पर खडा रो रहा था। घर के सामने कूडे के ढेर पर कुछ कुत्‍ते अपने पंजों से कुछ खोदने में जुटे थे।
अचानक नन्‍हें कलुआ की निगाह कूडे के ढेर में किसी चीज पर जाकर अटक गईं और उसके छोटे छोटे पांव उस कूडे के ढेर की ओर बढ चले। कलुआ को देख कूडे के ढेर पर उछल कूद मचाते कुत्‍ते एक ओर हट कर खडे हो गए। कलुआ ने कूडे के ढेर से एक सूखी हुई धूल सनी रोटी, जिसे देख कर वह वहां आया था, अपने हाथों में उठा ली और उसे बडे चाव से खाने लगा। तभी एक कुत्‍ते ने आश्‍चर्य से उसे देखते हुए कहा- ऐ..तुम तो आदमी के बच्‍चे हो, तुम यह कूडे के ढेर में पडी धूल सनी रोटी क्‍यों खा रहे हो। तुम्‍हें तो अच्‍छी रोटी मिलनी चाहिए।
यह सुनकर कलुआ ने उस गंदी रोटी को एक बार ि‍फर गौर से देखा और उसी चाव से उसे खाते हुए वहां उसकी ओर देख रहे कुत्‍तों को घूरने लगा। मानो कह रहा हो- तुम कुत्‍ते हो न, इस लिए यह बात समझते हो।

(दैनिक जागरण के 28-7-1985 के अंक में प्रकाशित)

व्‍यंग्‍य

सिर्फ चारे का सवाल है बाबू

आप मानें या न मानें चारा है बडे काम की चीज। खास कर आज के दौर में इसकी महत्‍ता के विषय में ‘बिन चारा सब सून ’ जैसी कहावत का प्रयोग अतिशयोक्ति न माना जाएगा।
जरा गौर से देखें तो पत्‍ता-पत्‍ता, बूटा-बूटा चारे के हाल से वाकिफ मिलेगा। कहीं कर्मचारी अधिकारी को चारा डालता मिलेगा तो कहीं चतुर अनाडी को अक्‍सर यह भी सुनने में आता ही रहता है कि अमरीका हिंदुस्‍तान सहित पाकिस्‍तान और दूसरे देशों को चारा डाल रहा है।
कसम हिंदुस्‍तान के काल्‍पनिक समाजवाद की यहां तो हर तरफ चारा ही चारा है और शायद यही कारण है कि मुझे हिंदुस्‍तान में रह कर छज्‍जू मियां के घुडसाल की याद बहुत आती है। कसम से......वहां भी चारो तरफ चारा ही चारा होता था, लेकिन एक अच्‍छाई थी कि मियां की घुडसाल से निकले कि चारावाद समाप्‍त, मगर यहां तो पीछा ही नहीं छोडता कमबख्‍त। नजर उठाई कि बस चारा। लगे पडे हैं लोग, जैसे हिंदुस्‍तान में चारा डालने के सिवा कोई काम बचा ही नहीं है।
स्‍कूल में जाओ तो छात्र अध्‍यापक को चारा डालते मिलेंगे। व्‍यापारीगण सीमेंट का प‍रमिट और राशन का कोटा पाने के लिए चारेबाजी में ऐसा मस्‍त होते हैं कि कृष्‍ण की बांसुरी में गोपियां भी उतना मस्‍त न होती होंगी। इतने से ही मामला रफा दफा हो जाए तो भी गनीमत, मगर यहां तो इश्‍क और मुश्‍क में भी चारे का ही बोलबाला है। बनन में बागन में बगरो बसंत की तरह चारा हर कहीं बिखरा पडा है।
जहां तक चुनावी प्रक्रिया में चारे की उपस्थिति का प्रश्‍न है, चारा यहां तो वैसे ही विद्यमान है आफिसों में भ्रष्‍टाचार, आदमी दुर्विचार, पढे‍ लिखों में बेरोजगार और शिक्षा में व्‍यापार। कहीं, कुछ खाली नहीं। सब भरा भरा सा है। बिल्‍कुल चारे से लबरेज, और होना भी चाहिए, क्‍यों कि चारा ही सफलता का मूल मंत्र है।
हमारे एक शोधार्थी मित्र के अनुसार चारेबाजी हिंदुस्‍तान में अंग्रेजों के समय से है। बस अंतर इतना है कि उनके समय में इसे बटरिंग का दर्जा प्राप्‍त था। अंग्रेज गए, आजादी मिली, मंहगाई आई, बटर पिघला....और जनाब ऐसा पिघला कि लोग देखने तक को तरस गए। रह गया सिर्फ चारा....केवल चारा...मात्र चारा।....वैसे, औकात औकात की बात है। बटरिंग के लिए करने और करवाने वाले, दोनों को एक बार सोचना पडता है। अस्‍तु , चारा ही ठीक है। बिना हर्र और फिटकरी के चोखा चोखा रंग, और फिर अब तो बडे बडे लोग चारे का ही इस्‍तेमाल कर रहे हैं। नेता से लेकर अभिनेता तक चारेबाजी से अछूते नहीं हैं। चुनाव में चारे का प्रयोग अपने चरमोत्‍कर्ष पर होता है। इस दौरान जब भी कोई यह कहता है कि –‘ अमुक नेता जनता के आगे चारा डाल रहा है। ‘ मेरी आंखों के सामने अपने घोडों को चारा डालते छज्‍जू मियां नाचने लगते हैं। वैसे आम तौर पर देखा जाए तो चारा है भी जानवरों के इस्‍तेमाल की चीज। उनके आगे ही डाला जात है। .......अब आप मुझसे यह मत पूछिएगा कि ऊपर मैने एक दूसरे को चारा डालने के संबंध में जिन जिन लोगों को जिक्र किया, वह सब एक दूसरे को क्‍या समझते हैं।
फिलहाल इतना ही काफी है कि चारा अपने आप में महान है। इसके बिना तरक्‍की नहीं पाई जा सकती। इसके बिना कोटा परमिट नहीं मिल सकता। इसके बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता।
अभी कुछ ही दिनों की बात है। अखबार में एक खबर छपी थी। जरूरत है एक फडफडाते नारे की। खबर का मजमून था कि कांग्रेस को एक फडफडाते नारे की तलाश है। नारा मिल नहीं रहा है। मुझे लगा कि कोई बोला कांग्रेस को चारा नहीं मिल रहा है। ठीक बोला न.....। नारा चारा का ही पर्याय है। अब नहीं मिल रहा है तो परेशानी लाजमी है, क्‍योकि बिन चारा सब सून। समस्‍या है....सि र्फ कांग्रेस की ही नहीं बल्कि सभी दलों की। चर्चा है। चुनाव सिर पर। नामांकन हो चुके हैं। प्रचार शुरू है। सब कुछ मौजूद है, सिर्फ चारे का सवाल है बाबू।

(पंजाब केसरी के 1-3-1985 के अंक में प्रकाशित)

Thursday, December 25, 2008

रचनाधर्मिता में बाजारवाद
चार्चित व्‍यंग्‍य लेखक कमल किशोर सक्‍सेना से पहली मुलाकात के बाद देर रात घर लौटने के बाद से सुबह तक दो शब्‍द मुझे पूरी रात परेशान किए रहे। एक शब्‍द था लेखन और दूसरा व्‍यावसायिक लेखन अर्थात प्रोफेशनल राइटिंग। उस समय, जहां तक मैं समझ पाया कि लेखन स्‍वतंत्र रूप से अपने मौलिक विचारों, अनुभवों और संवेदनाओं को साहित्‍य की किसी भी विधा में उतार देना मात्र है, और व्‍यावसायिक लेखन समाज की वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में प्रकाशक की मांग के अनुरूप अपने विचारों को साहित्‍य की किसी भी विधा के ऐसे रूप में आकार देना है जो न सिर्फ विचारों के स्‍तर पर पाठक को आंदोलित कर सके बल्कि उसे खरीदने के लिए पाठक को बाध्‍य भी कर सके। कुल मिला कर नतीजा यह निकला कि अगर छपने के लिए लिखना है तो बाजार और उसकी मांग पर नजर रखना बहुत जरूरी है।
.....................ि‍फलहाल वैचारिक द्वंद के बीच किसी तरह रात कटी। पढने लिखने और आपसी मुलाकातों का यह सिलसिला चल निकला। मूल रूप से मैं कविताएं लिखता था, इस लिए उन पत्रिकाओं को विशेष रूप से पढना शुरू किया जिनमें कविताएं प्रकाशित होती थीं। अब शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता जिस दिन हमारी कमल से मुलाकात न होती हो। हमारे बीच सहजता इतनी थी कि आहिस्‍ता आहिस्‍ता कमल जी मेरे लिए कमल और मैं उनके लिए ओपी हो गया। वक्‍त गुजरता गया एक महीने में मैंने जहां जहां जितनी भी रचनाएं भेजीं वह संपादक के अभिवादन एवं खेद सहित की पर्चियों के साथ वापिस आ गईं। इस असफलता को लेकर मन बहुत दुखी था। मैं और कमल रात में उन्‍नाव के उसी बडे चौराहे की चाय की दुकान पर बैठे थे। मैने आशंका व्‍यक्‍त की...........शायद मैं स्‍तरीय नहीं लिखता।
कमल ने अपने थैले से बीडी निकालते हुए मुझे हौसला दिया........नहीं, ऐसा नहीं है, तुम अच्‍छा लिखते हो लेकिन हो सकता है तुमने अपनी जो रचना जिस पत्रिका के लिए भेजी वह उसके अनुरूप न रही हो। इस लिए लिखना जारी रखो...........। कमल ने एक बीडी मेरी ओर भी बढा दी जिसमें एक लम्‍बा कश लेकर मैने बडा सुकून सा महसूस किया।
कमल ने भी अपनी बीडी में लम्‍बा कश लगा कर ढेर सारा गाढा धुआं उगला और मुझसे मुखातिब हुआ..................तुम कविताओं और गजल के साथ ही साथ अन्‍य विधाओं में क्‍यों नहीं कोशिश करते ? आचानक मेरी सवालिया निगाहें कमल की ओर उठ जाती हैं........? कमल मुझे समझा रहे थे.........देखो, बाल साहित्‍य लिखने वालों की बहुत कमी है, नाटकों पर भी कोई काम नहीं हो रहा है। शैक्‍सपियर, विजय तेंदुलकर, शंकर शेष, सुशील कुमार सिंह जैसे कुछ चर्चित नाटककारों के नाटकों को मंचित करने के सिवा रंगमंच से जुडे लोगों के पास अच्‍छी स्क्रिप्‍ट नहीं है। ऐसे में अगर कोई अच्‍छा नाटक लिख सको और कोई इप्‍टा जैसी कोई बडी संस्‍था उसका मंचन करे तो एक दिन में तुम्‍हारा नाम चर्चा में आ सकता है। इसी लिए मैने भी कुछ नाटक लिखे हैं।
............कमल की इन बातों पर मैने भी सहमति में सिर हिलाया। इसी बीच चाय वाला मिट़टी के कुल्‍हड में हम दोनों को चाय पकडा गया। कुल्‍हड मुंह के पास ले जाते ही अदरक वाली चाय की भाप के साथ मिट़टी की एक सोंधी गंध नथुनों से होती हुई दिमाग में जाकर बस गई। रचनाएं न छपने से हुई निराशा कुछ हद तक कम हुई थी.............तुम ठीक कहते हो कमल भाई, अब काव्‍य के साथ दूसरी विधाओं में भी कोशिश करूंगा।
यार मैं सोच रहा हूं कि अपनी एक लघु नाटिका सस्‍ते दामाद की दुकान का मंचन करू.......कमल ने बातचीत के सिलसिले को आगे बढाया।
अच्‍छा आइडिया है......मैने भी हामी भरी....।
इसमें कोई बडा नाटक भी जोड लेते हैं........मैने सुझाव दिया।
यह वह दौर था जब जगह जगह हिंदू मुस्लिम विवाद हो रहे थे। ऐसे में हम दोनों की बातचीत में यह तय हुआ कि हिंदू मुस्लिम एकता पर कोई अच्‍छी स्क्रिप्‍ट हो तो उसे तैयार किया जा सकता है। योजना बनी कि कानपुर चल कर यूनिवर्सल बुक डिपो से कोई स्क्रिप्‍ट लाई जाए। कमल ने बताया कि उसके कुछ मित्र हैं जो इस प्रोजेक्‍ट में हमारे साथ होंगे। उसने कहा कि वह उन सबसे हमें मिलवाएगा। उन मित्रों में कचहरी में मुंशीगीरी करने वाले मेराज जैदी, सप्‍लाई दफ़तर के एक क्‍लर्क गिरजा शंकर अवस्‍‍थी, डनलप मास्‍टर साहब और साडियों पर पेंटिंग करने वाले एक व्‍यक्ति के साथ ही साथ और भी कई नाम उसने गिनाए। कुल मिला कर एक पूरी टीम थी उसके पास और अब मै भी उस टीम का हिस्‍सा हो गया था। अगले दिन कानपुर जा कर स्क्रिट लाने की बात तय करके हम लोग अपने अपने घर की ओर चल दिये। उस समय रात के दो बजे थे। सूनी सडक पर मैं पैदल यह सोचता चला जा रहा था कि क्‍यों न हिंदू मुस्लिम एकता पर कोई गजल लिखी जाए..........क्‍योंकि यह उस समय का सबसे बिकाऊ मुद़दा था। मैं यूं ही कुछ गुनगुनाने लगा था। रात के सन्‍नाटे में सूनी सपाट सडक पर अकेले गुनगुनाते हुए चलने का अपना ही मजा था। लगभग पौन घंटे पैदल चलने के बाद जब मैं घर पहुंचा तो गुनगुनाहट के साथ उभरे कुछ शब्‍द इस अपरिपक्‍व रचनाकार की नई गजल के शेरों में तब्‍दील हो चुके थे। आइये उस गजल से आपको भी रूबरू कराता हूं..........
गजल
दो कदम और जरा आपको चलना होगा।
अपना दावा है जमाने को बदला होगा।।
वो जो फुटपाथ पे किस्‍मत के भरोसे बैठे।
आज उठकर उन्‍हें फौलाद में ढलना होगा।।
ह से हिंदू है अगर म से मुसलमा कोई।
मिल के दोनों को अब हम में बदलना होगा।।
अब तो ये जिद है दिल चाहे नजारे देखें।
गर नजर है तो नजारों को बदलना होगा।1
जो अभी तक किसी शायर की गजल के से थे।
आज पूरा उन्‍हें दीवान सा बनना होगा।।
(13-6-1982 के स्‍वतंत्र भारत में प्रकाशित)
गजल

भरे हैं पेट जिनके सिर्फ ये उनकी खता है।
हमारे बीच हैं कातिल यहां सबको पता है।।
जिसने रात अपने भाइयों को कत्‍ल कर डाला।
अब के दौर में वो आदमी ही देवता है।।
जिम्‍मा है हिफाजत का हमारी जिसके सर।
वो खुद ही अपना सर बचाता घूमता है।।
एक लानत बन गया है धर्म भी।
आग में जलता हुआ हिंदोस्‍तां है।।
खून से डूबी हुई सडकों पे वो।
पागल ही तो है, मोहब्‍बत ढूंढता है।।
(दैनिक जागरण में प्रकाशित)
(क्रमश:)

Thursday, December 18, 2008

शिक्षक कौन...............
शिक्षक सिर्फ वही नहीं होते जो स्‍कूलों और कालेजों में हमें किताबी ज्ञान देते हैं। वह शिक्षक मेरी नजर में ज्‍यादा सम्‍मान के योग्‍य हैं जो दुयावी जिंदगी में हमें जीवन के संघर्ष पथ पर आगे बढने की प्रेरणा देते हैं। राह दिखाते हैं। ऐसे ही एक शिक्षक का जिक्र यहां करना चाहूंगा जो मुझे एक कवि गोष्‍ठी में दोस्‍त की शक्‍ल में मिले। नाम है कमल किशोर सक्‍सेना। एक दौर था जब कानपुर उन्‍नाव और लखनऊ के आस पास के क्षेत्रों में प्रतिष्ठित व्‍यंगकार के रूप में केपी सक्‍सेना के बाद अगर कोई नाम पहचाना जाता था तो वह कमल किशोर सक्‍सेना का नाम था। दैनिक जागरण और दिल्‍ली प्रेस की पत्रिकाओं में वह नियमित रूप से छपते थे। चूंकि उस समय तक मेरी कोई रचना कहीं नहीं छपी थी और न ही मुझे रचनाओं के प्रकाशन की प्रक्रिया और तौर तरीके पता थे, इस लिए मैं अपनी जानकारी बढाने के लिए वाकवि गोष्‍ठी से लौटते वक्‍त उनके साथ हो लिया। सर्दियों के दिन। उस रात उन्‍नाव शहर का वह बडा चौराहा घने कोहरे में डूबा हुआ था। रात के 12 बजे थे, मगर चौराहे पर पूरी रौनक थी। कई रिक्‍शे वाले चौराह के एक कोने पर बनी चाय की दुकान पर लगी पत्‍थर के कोयले की अंगीठी के आस पास चिपके हुए थे। वहीं कुछ लोग मैनपुरी तंबाकू की दुकान पर जमा थे। तंबाकू की एक फंकी के बाद ऐसी ठंड में उसकी गर्मी से माथे पर आने वाला पसीना सचमुच बडा सुकून देता था। तंबाकू खाना नुकासानदेह है यह जानते हुए भी यह शगल हमने भी पाला हुआ था। चाय वाले को दो चाय का आर्डर देकर मैं भी तंबाकूवाले की तरफ बढा। मैने कमल जी से पूछा......आप भी खाते हैं मैनपुरी ? उन्‍होंने इनकार में सिर हिलाया और कघे पर लटक रहे अपने खादी के झोले से चमन बीडी का एक बंडल और माचिस निकाल ली। मैं तो यह पीता हूं। तुम भी पिओगे। मैन भी उनसे राब्‍ता कायम करने की गरज से हामी भर दी और वहीं चाय वाले के सामने पडी बेंच पर उनके पास बैठ गया। उन्‍होने बीडी जला कर मुझे दी और खुद एक गहरा कश लेकर ढेर सारा धुआ उगल दिया। मैने भी एक लंम्‍बा कश मारा तो खांसी उठ पडी। सचमुच माथे पर पसीना आ गया। वह हंसे। पहली बार पी है। ........न नहीं। सिगरेठ पीता रहा हूं। यह जरा हार्ड है।
इस तरह बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। वह बता रहे थे। किस तरह अपनी रचना को एक फुल स्‍केप साइज पेपर पर कम से कम डेढ इंच हाशिया छोड कर साफ साफ लिखना चाहिए और उसके साथ संपादक के नाम एक पत्र जिसमें यह लिखा हो कि यह रचना आप की मौलिक अप्रकाशित और अप्रसारित है। इसके साथ ही रचना के प्रकाशन का अनुरोध किया जाना चाहिए। उन्‍होंने यह भी बताया कि रचना और इस पत्र के साथ एक खाली लिफाफा जिसपर आपका पता लिखा हो और टिकट लगा है साथ में नत्‍थी करना चाहिए ताकि अगर आपकी रचना का उपयोग संबंधित पत्र अथवा पत्रिका में न हो पाए तो वह आपको वापिस मिल सके।
इस तरह वह पूरी प्रक्रिया मुझे समझा रहे थे और मै अंदर ही अंदर सपने बुनने लग गया था। इस बीच चाय भी आकर उदरस्‍थ हो चुकी थी। रात के तीन बज रहे थे। हम उठ खडे हुए। अच्‍छा तो चलें ओपी..............। उन्‍होंने मेरी तरफ हाथ बढाया तो मैने भी झिझकते हुए अपना हाथ उनकी ओर बढा दिया। झिझक इस लिए कि मेरे सामने क्षेत्र का एक चर्चित व्‍यंग्‍य लेखक खडा था। मैं थोडा असहज था लेकिन वो पूरी तरह सहज। बोले मिलते रहना...........। मैने कहा अगर आपको असुविधा न हो तो मैं कल दिन में आपके घर आ जाऊं। हां हां क्‍यों नहीं। उन्‍होंने सहमति व्‍यक्‍त की और हम एक दूसरे की विपरीत दिशा में चल पडे। दरअसल शहर के एक छोर पर मेरा घर था तो दूसरे पर उनका।
उस रात भले ही हम विपरीत दिशा में चले हों लेकिन अंतरमन से मैं उनके साथ रहा। घर पहुंच कर भी नींद नहीं आई। कालेज के लिए तैयार हुआ और कदम खुद ब खुद कमल के घर की ओर चल पडे। वहां पहुंचने पर कमल ने मेरा बडी ही गर्मजोशी से स्‍वागत किया। लगा ही नहीं कि यह हमारी दूसरी मुलाकात है। उन्‍होंने अपनी मां पिता और भाई से मिलवाया। मां ने चाय बनाई तो हम अपना अपना प्‍याला पकड कर छत पर बने कमरे में आ गए। यह कमल का कमरा था। आवास विकास से पहले रेलवे लाइन के किनारे बना कमल का यह घर अभी नया ही था। दीवारो पर प्‍लास्‍टर नहीं था। फर्श पर ईंटें बिछी थीं। बिजली का कनेक्‍श भी नहीं था। कमल ने बताया कि उनके पिता जी ने अपने पूरे जीवन की कमाई में धीरे धीरे यह घर बनया। अब कुछ पैसे इकट़ठे होंगे तो बिजली का कनेक्‍शन लेंगे।
इसी तरह बात करते हुए हम वहां पडी एक चारपाई पर बैठ गए। चारपाई के पास ही एक स्‍टूल पर कमल का राइटिंग पैड और एक कांच के गिलास में कुछ पेन पेंसिल रबर आदि लिखने का सामान रख था। एक आलमारी में कुछ किताबें और फाइलें रखीं थीं। कमल ने मुझे अपनी प्रकाशित रचाओं को कलेक्‍शन दिखाना शुरू किया। दैनिक जागरण , स्‍वतंत्र भारत, साप्‍ताहिक सुमन, सरिता, मुक्‍ता आदि कितनी ही पत्रिकाओं में उनके व्‍यंग्‍य छपे थे। आल इंडिया रेडियों के सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम हवामहल में उनकी लिखी हास्‍य नाटिका सस्‍ते दामाद की दुकान उस समय खूब चर्चा में थी। मैने उनसे पूछा.....अच्‍छा यह बाताइये कि लिखते समय विषयों का चयन कैसे करते हैं। उनका सीघा सा कहना था कि आप जिस जिस पत्र अथवा पत्रिका के लिए लिखना चाहते हैं पहले उसे पूरी गंभीरता के साथ लगातार पढें ताकि आपको उसकी मांग के बारे में पता चल सके। प्रोफेशनल राइटिंग का यही एक आसान तरीका है। इसके अलावा लेखन के विषय अगर सम सा‍मयिक हों तो ज्‍यादा बेहतर होगा। सिर्फ इतना ही नहीं छपने के लिए नियमित लिखने की आदत भी बहुत जरूरी है।
उन्‍होंने बताया कि लेखन की दुनियां में पैर जमाने के लिए यह जरूरी है कि एक लक्ष्‍य बनाएं कि रोज कम से कम तीन या चार रचनाएं विभिन्‍न पत्र पत्रिकाओं को भेजें। आम तौर पर नवोदित रचनाकारों की रचनाओं को प्रतिष्टित पत्र पत्रिकाओं के संपादक उतना तरजीह नहीं देते, लेकिन अगर हर रोज आपकी एक रचना उसकी टेबल पर पहुंचेगी तो कभी न कभी वह उसे देखने को मजबूर होगा। जिस दिन उसने आपकी रचना को देखा और एक रचना भी उसे क्लिक कर गई तो समझो बात बन गई। इसके साथ ही लगातार लिखने से आपके लेखन में पैनापन भी आता जाएगा..............। इस प्रकार बातों का यह सिलसिला पूरे दिन इसी तरह चलता रहा। मैने खाना भी वहीं खाया और रात दस बजे घर लौटा तो ऐसा लगा जैसे कालेज में एक लंबी क्‍लास अटेंड करके लौटा हूं।

(यहां प्रस्‍तुत मेरी एक प्रकाशित रचना दोस्‍त एवं बडे भाई कमल किशोर सक्‍सेना को समर्पित है)

अमिट हस्‍ताक्षर
हमें
बार बार क्‍यों कुरेदते हो तुम ?
क्‍यों देते हो / ऐसी
अनर्गल शिक्षा।
क्‍यों जोर देते हो.........
इस बात पर
कि मैं,
राम कष्‍ण गांधी
बु्द्ध ईसा नानक
मोहम्‍मद या अंबेडकर के
पद चिन्‍हों पर चलूं।
नींद से जागो / सोचो
यही पद चिन्‍ह
हमारे वर्तामान की ठोकरें हैं।
पल पल
भूत होता होता
हमारा वर्तमान
उलझा पडा है
इन्‍हीं ठोकरों में।
अस्‍तु / हमें
किसी का प्रतिरूप
बनने की शिक्षा मत दो।
दूसरों के पद चिन्‍हों पर
चलने को मत कहो।
हमें / स्‍थापित करने दो
जीवन की
नई परिभाषाएं
जीवन के
नए मूल्‍य
बिल्‍कुल मौलिक...............।
ताकि / हो सकें
इतिहास के पन्‍नों पर
हमारे भी..............
अमिट हस्‍ताक्षर
*********
(3 मार्च 1996 के अमर उजाला में प्रकाशित)

Wednesday, November 26, 2008

विभेद का द्वंद..............।
पिता की झिडकियों , झल्‍लाहटों और मां के उलाहनों के साथ ही साथ विभेद के द्वंद के बीच हिना के पौधे पर लगी कोपलें पकती चली गईं। परिवार के संस्‍कार , सच बोलो, बडों का आदर करो, गरीब को मत सताओ, धर्म के मार्ग पर चलो, ईश्‍वर पर भरोसा रखो के तमाम सारे उपदेश जीवन की राह में कदम कदम पर झूठे साबित हुए। झूठों को जीतते और सच का हारते देखा, धर्म के नाम पर अधर्मियों को सम्‍मानित होते और ईश्‍वर पर भरोसा रखने वालों को तिल तिल कर मरते देखा। गरीबों ने हमेशा साइकोलाजकली हमें ब्‍लैकमेल किया। तय करना मुश्किल था कि क्‍या सही है और क्‍या गलत। विभेद के इसी द्वंद से गुजरता हुआ जिंदगी के सफर में उस मुकाम पर पहुंचा जहां कालेज और कस्‍बाई रंगकर्म की दुनियां के कई अलग अलग चरित्र मेरे साथ जुडे। संवेदनाओं के जडें गहरी होती चली गई। स्‍वरूप। सौंदर्य के प्रति आसक्ति तो मेरे स्‍भाव में थी। सच कहूं तो जीवन के स्‍कूल में दाखिला हुआ। स्‍कूल की किताबों में मैने, क्‍या कुछ पढा मुझें आज भी नहीं पता। अनुभूतियों ने विस्‍तार पाया तो शब्‍दों ने कविता का रूप लिया....................। मेरे संस्‍कारों में रची बसी शब्‍द काव्‍य की पहली प्रतिमा कुछ इस तरह बनी..................

दर्द की संभावना हो
प्रीत की प्रश्‍नावली
सूर का हो बाल वर्णन
तुलसी कृत गीतावली
दर्द की संभावना हो प्रीत की प्रश्‍नावली।।
पंखुडी से होंठ कोमल
कोकिला स्‍वर, रूप चंदन
नयन सागर, जुल्‍फ बादल
उम्र पागल देह मधुबन
तुम प्रकाशित दीप दिप दिप दीप दिप दीपावली।
दर्द की संभावना हो प्रीत की प्रश्‍नावली।।
प्‍यार का तुम प्रथम चुंबन
पायलों का गीत रुनझुन
चूडियों की खनखनाहट
लोरियों की मधुर सुनगुन
हो मेरे मानस गगन पर, छा रही तारावली।
दर्द की संभावना हो प्रीत की प्रश्‍नावली।।


इस तरह, इस पहली कविता के साथ हिंदी साहित्‍य की कस्‍बाई जमात में मैने कदम रखा। और रफ़ता रफता यह सिलसिला आगे बढा। जो भी लिखा वह स्‍वांत: सुखाय ही था। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि मेरी सोच कल्‍पना और विचार के कैनवास को विस्‍तार देने में मेरे उन साथियो का ही हाथ रहा जो जीवन मे कदम कदम पर मुझे मिले और कहीं पीछे छूट गए।

(क्रमश:)


Tuesday, November 25, 2008

पहली कोपल
हिना पर रंग तो बहुत पिसने के बाद चढा। बीजारोपण हुआ मस्‍तों की नगरी वाराणसी के कबीर चौरा में। बीज में छुपे जीवन ने सिर उठाया। आजमगढ जिले की घोसी तहसील में एक नन्‍हा पौधा अपनी धरती से बाहर आया। नन्‍हीं नन्‍हीं अपनी दोनो भुजाओं को फैलाए हुए। मां और पिता के स्‍नेहिल गर्म सानिध्‍य से कोपलें फूटीं। नितांत निश्‍छल, निर्विवाद, निर्विकार। दुनियां के तमाम झंझावातों से बेखबर। एक वाक्‍य में कहूं तो प्‍यार ही प्‍यार बेशुमार.........। कहीं कोई कमी नहीं। वक्‍त अपनी रफ़तार से आगे बढता रहा। मां ने दुनियावी शब्‍द जंजाल से पहला परिचय कराया जो आम के बाग में लगने वाले प्राइमरी स्‍कूलों से गुजर कर कस्‍बों के स्‍कूलों का सफर तय करता हुआ कालेज तक पहुंचा। वह एक आदमी जिसके बारे में मां ने बताया था कि वह मेरा पिता है। जिसने हर पल अब तक किसी कवच की तरह मेरी रक्षा की थी अब बूढा हो चला था। उसके चौडे कंधे जिसपर सिर टिका कर मैने सुरक्षा के अहसास भरी न जाने कितनी नीदें ली होंगी, अब झुक गए थे। वह रिटायर हो गया था। घर चलाने के लिए मां पहले से सजग थी, इसी लिए उसने मेरे साथ ही साथ हाई स्‍कूल , इंटर और उसके बाद संगीत में प्रभाकर किया। अब वह एक स्‍कूल में संगीत की शिक्षिका थी। पूजा पाठ घर के काम और संगीत, बस वहीं उसकी दिनचर्या थी। मेरे अलावा एक बेटी और एक बेटे का भी बोझ था उनपर। बूढा बाप दिन भर अपनी पुरानी फाइलों में अपने फंड और बैंक की उन पुरानी पासबुकों को उठाता धरता रहता जिसमें पैसे के नाम पर कुछ भी नहीं था। क्‍यों कि उनकी जिंदगी का फलसफा ही खाओ पिओ ऐश करों मितरां वाला रहा। कल किसने देखा है वह अक्‍सर कहा करते थे। लेकिन जब, न खाओ, न पिओ, न ऐश करो की स्थिति हो, शरीर साथ न दे और सामने हो परिवार को चलाने की समस्‍या तो फ्रस्‍टेशन में लडने झगने के सिवा आदमी क्‍या करे..............।
मैं जानता हूं उनका कोई कुसूर नहीं था। मुझे साहित्‍य और अभिनय में रुचि थी। वह मुझे डाक्‍टर बनाना चाहते थे। वह मेरे लिए जियोलाजी और बाटनी की किताबों का बंदोबस्‍त करते और में गोर्की, स्‍टालिन, हिटलर और टाल्‍सटाय को पढ रहा होता। वह मुझे साइंस क्विज में भेजते तो मैं आपने साथियों के साथ अपने नए शो के लिए होने वाले नाटक की रिहर्सल में पहुच जाता। साइंस की किताब के बीच कभी जब उन्‍हें तारशंकर वधोपाध्‍याय अथवा अमृता प्रीतम छुपी मिल जातीं तो वह बिफर उठते। यह लडका कुछ नहीं करेगा जिंदगी में। कुलीगीरी भी नसीब नहीं होगी इसे। अरे, हराम का माल नहीं है ये, तेरी मां पूरे दिन खटती है स्‍कूल में। मेरी पेंशन न मिले तो भूखों मरोगे सब के सब...................। किसी रात नाटक का शो होता और देर रात घर पहुचता तो पूरा घर सिर पर उठा लेते। हरामखोर, यह वक्‍त है घर लौटने का। पूरे दिन नचनिया, पदनिया बना घूमता है। न कोई काम न धाम। कहीं सब्‍जी का ठेला लगाता तो भी दो पैसे कमा कर लाता...................। उनके शब्‍द कानों में शीशे की तरह पिघलते थे उस वक्‍त।

Tuesday, November 18, 2008

दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है, किसी भी काम की शुरुआत बहुत ही मुश्किल होती है, यह बात हमें इस ब्लॉग को शुरू करने के बाद पता चल रही है. ब्लॉग पर अपनी पहली पोस्ट डालने में इसी लिए विलंब हुआ. सोचता रहा की मैंने इस ब्लॉग में जो कुछ भी लिखने का मन बनाया है उसे कोई क्यो पढे . लेकिन फिर भी कहीं से शुरू करना था , इस लिए शुरू करता हू.
खाबो भरी उम् थी, सारे ज़माने को अपनी मुट्ठी में बाँध लेने की उम्र. रात होती तो सपने फूल की तरह झरते . हर सुबह एक नए सपने को रंग देने ki उमंग. किताबो में शब्द नाचते से लगते. शायद वहीं से शुरू हुआ शब्दों से खेलने का सिलसिला जो jaari है, लेकिन इस सिलसिले में तमाम बाधाएं भी है. ......और इन्ही बाधाओंने जिंदिगी को एक रंगत दी है....आप को याद हैं वो पंक्तियाँ ......मैं हूँ इक खुशरंग हिना.

Monday, October 6, 2008

मित्रो , ओपी की दुनिया में आप का स्वागत है. यह दुनिया भी आप की दुनिया की तरह उम्मीदों, संघर्षों , खुशियों , दुखों का एक ऐसा सम्मिश्रण है जिसमें बहुत कुछ नितांत व्यकितगत होते हुए भी ऐसा है जो हर किसी को न सिर्फ़ अपना महसूस होता है बल्कि जीवन में संघर्ष करते हुए निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. इसी लिए इस दुनिया को आप के साथ शेअर करने का मन बनाया है. उम्मीद करता हूँ की जो अच्‍छा हो उसे आप ग्रहण कर बाकि को भुला देगें. इसे बस एक ऐसा सफर माने जिसमे लोग मिलते है और बिछड़ जाते है. इस सफर में अगर कहीं कोई वात आप के दिल को छुए, आपकी संवेदना के तारों को झंकृत करे तो उससे मुझे अवश्‍य अवगत कराएं.....। मुझे आपकी टिप्‍पणियों को इंतजार रहेगा और वहीं मुझे ब्‍लागिंग के रास्‍ते पर आगे बढने की प्रेरणा देंगी। 09837128854 Saxena.op@gmail.com