Saturday, March 20, 2010

जियो तो ऐसे…………..

गौर से देखें तो पाएंगे, जिंदगी हर कदम एक नया सब‍क देती है। जाने अनजाने, हम उस सबक को पढ़ते हैं। भूल जाते हैं, लेकिन इससे वह सबक निष्‍प्रयोज्‍य नहीं हो जाता। वह हमारे अंदर कहीं न कहीं अपनी एक जगह बना लेता है। भाषा के स्‍तर पर। संवेदना के स्‍तर पर। सोच के स्‍तर पर। नजरिए के स्‍तर पर……।
याद नहीं, वह दिन कौन सा था। उस दिन, जिंदगी के एक नए सफर की तैयारी हुई थी। नए अनुभव की तैयारी। बड़े चौराहे से लौटते हुए अचानक परवेज लंगड़े ने आवाज दी, तो मैं उसकी दुकान की ओर बढ़ गया।
दरअसल तारा देवी और स्‍टेज प्रोग्राम के चक्‍कर में मैं परवेज लंगड़े वाली योजना को भूल ही गया था।
दुकान पर पहुंच कर, दुआ सलाम के बाद वहीं चप्‍पलों की एक गठरी पर बैठ गया। कैसे हो परवेज भाई…..मैने सवाल किया। मै तो ठीक हूं यार तुम कैसे हो….परवेज ने मेरी ओर देखा।
ठीक हूं…मैने जवाब दिया। वो, क्‍या है कि तारा देवी गुप्‍ता के साथ स्‍टेज प्रोग्राम कर रहा था। इसी लिए इधर आना नहीं हुआ। ठीक है यार, कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। परवेज ने मुझे प्रोत्‍साहित किया और साथ ही एक हांक मारी।……….अरे ओ कलुआ। दो चाय ले आ मलाई मार के। यार आया है अपना। परवेज एक बार फिर मुझसे मुखातिब हुआ। कानपुर चलेगा…..माल लेने जाना है। चल, घुमा के लाता हूं ?
मैने भी सहमति में सिर हिला दिया।
चाय आ गई थी। वही धरमशाले के सामने के ठेले वाले की चाय। 15 पैसे की एक कप। गजब का स्‍वाद होता था उस चाय में। पूरे उन्‍नाव में इससे सस्‍ती चाय कहीं नहीं मिलती थी। यही वजह थी कि सुबह से शाम तक वहां लाइन नहीं टूटती थी। ऐस लगता था जैसे पूरा शहर चाय पर ही जिंदा है। सबको चाय चाहिए। खैर, चाय खत्‍म कर हम दोनो दुकान से उठे ओर पूड़ी वाली गली होते हुए रेलवे स्‍टेशन आ गए। रास्‍ते में परवेज ने विल्‍स की एक सिगरेट भी पिलाई। उस समय चार आने की एक सिगरेट आती थी। मैं तो दस पैसे वाली रीजेन्‍ट से ही काम चला लेता था, लेकिन जब परवेज साथ होता था तो वह मुझे रीजेंट नहीं पीने देता था। जेब में भरी नोटों की गड्डी पर हाथ मार कर बोलता था- यार, कमाते किस दिन के लिए हैं, खाओ पिओ, ऐश करो, क्‍या रखा है इस दुनिया में। सब यही रह जाना है। सच, परवेज की इस बिंदास तबीयत पर मैं फिदा था। कोई चिंता नहीं, न पढ़ाई की, न लिखाई की, न परिवार की, न घर की, बार की, न व्‍यापार की। जो मिला पहना, जो मिला खाया, जहां नींद आई वहीं सो गए। बिल्‍कुल अलमस्‍त। फकीरों से भी कहीं आगे। ……..और एक मैं था। चिंताओ का पिटारा। क्‍या खाऊं, क्‍या पहनूं, क्‍या पढूं, कहां जाऊं, क्‍या करूं। ओफ……….लगता था पागल हो जाऊंगा।
मैं अभी विचारों के समुंदर में तैर ही रहा था कि परवेज ने मेरी पीठ पर एक धौल जमाई- अरे कहां गुम हो गए शहजादे।
वह जब ज्‍यादा मस्‍ती में होता, तो मुझे इसी नाम से पुकरता था।
ट्रेन आ चुकी थी। वही बालामऊ पैसिंजर। दूधियों की ट्रेन। जिसपर रेलवे का कोई कानून लागू नहीं होता। किसी को बींड़ी सिगरेट लेना रह गया हो तो ड्राइवर या गार्ड को हांक मार कर अगली क्रासिंग पर ट्रेन रुकवा लेता, और फिर वापस आकर हॉक मार देता। हां, भाई चलो ड्राइवर साहब। और ट्रेन फिर चल देती। सिर्फ इतना ही नहीं ,कालेज गोल कर पिक्‍चर देखनी हो तो भी इससे मुफीद कोई और सवारी नहीं। डेढ़ रुपये का आना-डेढ़ रुपये का जाना।
परवेज के साथ मैं भी ट्रेन में सवार हो गया। परवेज बता रहा था कि आजकल धंधा ठीक चल रहा है। लखनऊ चारबाग रेलवे स्‍टेशन की छोटी लाइन की फुटपाथ पर फड़ लगा कर अच्‍छी कमाई हो रही है। मूलगंज से माल (चप्‍पलें) उठा कर लखनऊ भेजना है।
‘ एक चप्‍पल की कीमत क्‍या होगी ’-मैं भी धंधे की बारीकियां समझने की कोशिश करने लगा। परवेज बता रहा था। थोक में एक जोड़ी चप्‍पल साढ़े सात रुपये की पड़ती है और बीस से पच्‍चीस रुपए जोड़ी में आसानी से बिक जाती है। और ज्‍यादा कमाई करनी हो तो रिपिट का काम और जोड़ लो। मेरे पास तो कोई लड़का नहीं है। वरना नोट तो बोरों में भरके लाऊं।
उस दौरान परवेज की बातें सुन कर ऐसा लगता था कि दुनियां में उससे धनवान और उससे बड़ा व्‍यापारी और कोई नहीं है। कभी-कभी तो मैं तुलना करने लगता था। एक ओर होते थे पुराने जमाने के मैट्रिक पास मेरे पिता जी जो, हर महीने मां के साथ बैठ कर अपनी तनख्‍वाह के चंद हजार रुपयों का हिसाब किताब जोड़ते। मकान का किराया, दूध वाले का बिल, बिजली का‍ बिल, बच्‍चों की फीस, ईंधन, राशन, सब्‍जी और न जाने क्‍या-क्‍या। दोनों की बातचीत जब अंतिम पड़ाव पर पहुंचती तो कुछ इस तरह के फैसले होते। गुड्डन (मेरी छोटी बहन) की स्‍कूल की ड्रेस अगले महीने देखेंगे। काम वाली को हटा दें तो ठीक रहेगा।……….और दूसरी ओर अनपढ़ परवेज। एकदम अलमस्‍त। यार ओपी, चल तुझे कबाब पराठे खिलवाता हूं। मूलगंज में रोटी वाली गली तक तो चलना ही है। सामने कोई भिखारी आ गया, कोई लाचार दिख गया तो परवेज अपनी पूरी जेब भी खाली कर सकता था। मैं गवाह हूं इसका। कई बार माल लेने जाते वक्‍त ट्रेन में परवेज अपने सारे पैसे गरीबों में बांट दिया करता था। मैं पूछता, अब माल का क्‍या होगा ? वह हंस देता। होना क्‍या है, माल आएगा। जेब में पड़ी विल्‍स फिल्‍टर की डिब्‍बी और आखिरी बचे दस के नोट को हवा में लहराता हुआ वह ट्रेन में जुआ खेल रहे लोगों के बीच जा कर बैठ जाता। गजब का कानफीडेंस था उसमें, जो पिताजी में कभी देखने को नहीं मिला।
पिताजी खर्च में जितना कतर ब्‍यों करते, उतना ही दुखी नजर आते। परवेज जिस बेतरतीबी से खर्च करता, उतना ही मस्‍त नजर आता। मै भी मन ही मन फैसला कर लेता हूं। एक बार जरूर इसके धंधे में हाथ डाल कर देखूंगा। उस समय परवेज मेरा रोल मॉडल बन गया था। एक पैर से कमजोर होने के बावजूद गजब की हिम्‍मत थी उसमें। गजब की जिंदादिली। वह अक्‍सर कहता था-‘ शहजादे, जियो तो ऐसे, जैसे कि सब तुम्‍हारा है, मरो तो ऐसे, जैसे तुम्‍हारा कुछ भी नहीं ।’
ट्रेन कानपुर पहुंच जाती है। हम दोनो पैदल-पैदल घंटाघर पहुंचते हैं, और वहां से रिक्‍शा पकड़ मूलगंज। चौराहे पर उतरते ही दाहिनी ओर मेस्‍टन रोड जाने वाले रास्‍ते के शुरू में ही बाएं किनारे पर पुलिस चौकी और फिर लगभग सौ कदम आगे चलते ही दुकानों के बीच से जाने वाली कुछ पतली-पतली गलियां और उनमें ताक-झांक करते कुछ लोग।
इन गलियों की चर्चा तो बहुत सुनी थी। देखने का मौका आज मिला। यह कानपुर की बदनाम बस्‍ती थी। थी, इस लिए कि अब वहां ऐसा कुछ भी नहीं है।
(क्रमश:)