Sunday, July 29, 2018

नया अनुभव


सुबह-सुबह बादल का एक टुकड़ा न जाने कब आकर सिरहाने पर बैठ गया, पता ही नहीं चला। बादल के उसी टुकड़े की ओट से कभी-कभी सूरज बाहर झांकने की कोशिश करता तो मैं भी अपने बदन ही नहीं सिर को भी चादर में लपेट लेता। ठंडी हवा के झोंके उस गुनगुनी धूप में एक अलग सा अहसास दे रहे थे। आहटों से लग रहा था, पिताजी ऑफिस जा चुके हैं और भाई बहन अपने स्‍कूल। मुझे भी लगा कि अब बिस्‍तर छोड़ ही देना चाहिए। इसी बीच किचेन से मां की आवाज सुनाई दी…….अब उठ भी जा...सोता ही रहेगा दिन चढ़े तक।
मां की आवाज के साथ ही मैने भी बिस्‍तर छोड़ा और बाथरूम में घुस गया। नहा कर बाहर आया तो मेरे तैयार होने से पहले ही मां ने रात की बची रोटी, सरसों का तेल और नमक चुपड़ कर एक प्‍लेट में मेरे सामने रख दी आज नाश्‍ते में कुछ नहीं बनाया, इसे ही खा ले, वरना बरबाद जाएगी। साथ में एक प्‍याली चाय भी थी।
कपड़े पहनते पहनते चाय पी, तभी मां की झुंझलाहट भरी आवाज सुनाई दी….कितनी बार समझाया है, ये गीला तौलिया बिस्‍तर पर मत रखा कर लेकिन किसी बात पर ध्‍यान हीं नहीं देता। पता नहीं कहां दिमाग चलता रहता है इसका।
मुझे भी अपनी गलती का अहसास हुआ, शायद इसी लिए चुपचाप सिर झुकाए मैं अपनी डायरी और पेन उठा कर घर से बाहर आ गया। पैदल पैदल कॉलेज की ओर जाते समय एक बार फिर रोटी वाली गली का खयाल जीवित हो उठा….. अरे आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया….अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला। मैं अंदर ही अंदर तय कर लेता हूं, एक बार तो उस गली में फिर जाना है। आखिर कौन से ऐसे कारण होते हैं जब एक 20-22 साल की लड़की इतना बेशर्म हो जाती है। वो कौन सी और कैसी मजबूरी होती है जब कोई लड़की अपने जिस्‍म को बेच कर दो वक्‍त की रोटी जुटाती है। और भी तो बहुत से छोटे-बड़े काम हैं जिनसे रोटी कमाई जा सकती है, फिर जिस्‍म बेचने का धंधा ही क्‍यों। ऐसे ही न जाने कितने सवाल दिमाग को मथ रहे थे। रेलवे क्रॉसिंग तक पहुंचा तो वहीं रामफूल की पान की दुकान पर ललित और अनिल बवाली बैठे दिखे। मैं भी धीरे-धीरे उन्‍हीं के पास पहुंच कर उनके बराबर में ही बैठ गया। ललित ने अपनी आधी पी हुई सिगरेट मेरी ओर बढ़ा दी। सिगरेट में दो लम्‍बे-लम्‍बे कश मारकर मैने वो सिगरेट ललित को वापस लौटा दी। कुछ राहत सी महसूस हुई। मैं इसी बीच ललित से मुखातिब हुआ….यार, एक बात बता……कभी कानपुर की रोटी वाली गली में गया है।
हां,क्‍यों नहींमैं तो कई बार जा चुका हूं।
मैं भी एक बार वहां जाना चाहता हूं। तू चलेगा मेरे साथ….मैने ललित की ओर प्रश्‍नवाचक निगाहों से देखा।
हांचल न, आज ही चलते हैं, आज तो पैसे भी हैं जेब मेंललित ने अपनी ऊपर की पॉकेट पर हाथ मारते हुए कहा।
अनिल बवाली भी हमारी इस योजना में शामिल हो गया। फिर हम सबने अपनी अपनी जेबें टटोलीं। कुल मिलाकर हमारे पास ढाई सौ रूपये थे। इतने में काम हो जाएगा। और फिर हम कॉलेज जाने के बजाय रेलवे लाइन के किनारे किनारे स्‍टेशन के लिए चल पड़े। बालामऊ पैसेंजर के आने का टाइम था। स्‍टेशन पहुंच कर हमने तीन टिकट लिए और ट्रेन का इंतजार करने लगे। ललित मुझे बता रहा था कि रोटी वाली गली में कोठेवालियों से किस तरह मोल भाव करते हैं। और मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था। वह बता रहा था कि किस तरह पुलिस वाले रोटी वाली गली में आने जाने वालों पर निगाह रखते हैं और गली से बाहर निकलते ही उसे दबोच लेते हैं। फिर वेश्‍यावृत्ति का डर दिखाकर उसके सारे पैसे ऐंठ लेते है। कुछ बदमाश कोठेवालियां भी ग्राहकों के सारे पैसे छीन लेती हैं, क्‍योंकि ग्राहक सामाजिक लोक लाज के डर से इस छीनाझपटी के बारे किसी को नहीं बताता।
ललित की बातें सुन-सुन कर मेरा दिल बहुत जोर-जोर से धड़क रहा था। आसमान पर बादल थे। हवा भी ठंडी चल रही थी, लेकिन मेरे माथे पर पसीने की बूंदे साफ नजर आ रही थी। एक अजीब सी उहापोह की स्थिति थी। मुझे ऐसी जगह पर जाना चाहिए या नहीं। पिता जी को पता चला तो क्‍या होगा। कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए। लेकिन एक बार जाने और देखने में क्‍या हर्ज है। इन कोठेवालियों की जिंदगी के बारे में कुछ पता तो चलेगा। हो सकता है किसी अच्‍छी कहानी का आडिया मिल जाए।
यही सब सोचते विचारते ट्रेन आ गई और हम सब उसमें सवार हो गए। सिर्फ आधे घंटे का सफर कर हम कानपुर सेंट्रल पहुंचे और वहां घंटाघर के पास से रिक्‍शे की सवारी करते हुए मूलगंज। चौराहे से दायीं ओर मुड़ते ही किनारे पर एक पुलिस चौकी थी, जिसके सामने से होते हुए हम आगे बढ़े। यहां हमारे बाईं ओर कई पतली पतली गलियां थीं जिन्‍हें रोटी वाली गली ही कहते हैं। यहां ललित अपनी चौकन्‍नी निगाहों से इधर उधर देखता हुए एक गली में घुसा तो हम भी उसके पीछे हो लिए। उसकी हिदायत के मुताबिक हमने अपनी चाल थोड़ी धीमी रखी थी, ताकि चबूतरों के ऊपर बने कोठरीनुमा कमरों के बाहर खड़ी वेश्‍याओं को अच्‍छी तरह से देख सकें।
ललित आगे आगे चल रहा था। मैं और अनिल उसके पीछे थे। इसी बीच हल्‍की बूंदाबांदी भी शुरू हो गई थी, जिससे हमारे कपड़े भीग रहे थे। मैने ललित से कहा भी, कि कहीं रुक ले, लेकिन उसका कहना था कि इन गलियों में ज्‍यादा देर रहना ठीक नहीं है। नतीजतन, इन गलियों का पूरा एक चक्‍कर लगाने के बाद हम एक पान की दुकान पर सिगरेट लेने के लिए रुके। तभी ललित ने मुझसे पूछा…..क्‍यों कोई पसंद आई क्‍या।
मुझसे जवाब नहीं बन रहा था। गलियों में हुए कीचड़ से उठती दुर्गंध, वेश्‍याओं और ग्राहकों के बीच होता मोलभाव, इधर उधर से सुनाई देतीं भट्दी गालियों ने दिमाग को कुंद कर दिया था। तभी ललित ने एक बार फिर पूछा….बता न कोई पसंद आई क्‍या। इस सवाल पर एक बार फिर मैने दिमाग पर जोर डाला, तो याद आया। गलियों में घूमते वक्‍त एक कोठे के बाहर एक नेपाली सी दीखने वाली लड़की नजर आई थी, उसकी उम्र यही कोई बीस से बाइस वर्ष के आसपास रही होगी। हाइट मुश्किल से पांच फिट, गोरा चिट्टा, भोला सा आकर्षक चेहरा। आंखें ऐसी कि बिना बोले सबकुछ कह दें। सामने से गुजरते समय उसने हमपर कोई जुमला नहीं उछाला था, और न ही कोई छींटाकशी की थी। बस वह एक टक हमें देखे जा रही थी। उसकी आंखों में मुझे दुख, दर्द, याचना और मजबूरी जैसे न जाने कितने भाव नजर आए थे। शायद यही वजह थी कि मैने ललित को उसके बारे में बताया। ललित भी अपनी सिगरेट जलाते हुए मेरे आगे आगे चल दिया…..चल, उसी से बात करते हैं।
हम दोबारा उस लड़की की कोठरी के सामने पहुंचे तो वह अभी भी वहीं खड़ी थी। बारिश से भीगे कपड़ों में ठंडी हवा के झोंके कंपकपी पैदा कर रहे थे। गली में चहल पहल भी पहले के मुकाबले कम हो गई थी। ललित ने लड़की के सामने पहुंच उसे कुछ इशारा किया। उधर से जवाब आया तीनों का डेढ़ सौ रुपया। फिर मोल भाव के बाद बात सवा सौ रुपये में पक्‍की हुई। ललित ने अपनी तेज निगाहों से इधर-उधर देखा, फिर हमें उस लड़की कोठरी में चलने का इशारा कर वह कोठरी में घुस गया। मैं और अनिल भी उसके पीछे-पीछे अंदर आ गए। छह गुणा आठ फिट की उस कोठरी में चालीस वाट के बल्‍ब की रोशनी थी। सामान के नाम पर एक किनारे चारपाई पड़ी थी। उसी के बराबर में बैठने के लिए दो स्‍टूल रखे थे। चारपाई के नीचे एक  टिफन और कुछ बरतन नजर आ रहे थे। हमारे कोठरी में घुसते ही उसने उसके दरवाजे अंदर से बंद कर लिए थे। उस वक्‍त तक मैं ठंड कांप रहा था। लड़की ने मुझे कांपते देखा तो वह अपने उसी नेपाली लहजे में बोली….चाय मंगा लेते हैं, तुमलोग बहुत भीग गए हो।
उसके इस प्रस्‍ताव पर मैंने भी सहमति में सिर हिलाया। तभी उसने कोठरी का दरवाजा थोड़ा सा खोलकर उसमें से झांकते हुए किसी को आवाज मारी……ओए अब्‍दुल, चार चाय भेज जल्‍दी। फिर उसने कोठरी का दवाजा अंदर से बंद कर लिया और हमसे मुखातिब हुई…..किधर से आया तुम लरका लोग।
जवाब ललित ने दिया…..किदर से आया, तुझे क्‍या, अपने काम से काम रख।
ललित के इस जवाब पर लड़की का खिला हुआ चेहरा उतर सा गया। मैं कुछ बोलना चाहता था लेकिन गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी। अगले ही पल लड़की का चेहरा भी सख्‍त हो गया……चलो काम शुरू करो, कौन आएगा पहले।
मैने देखा, ललित बड़ी तेजी के साथ अपने कपड़े उतार रहा था। उसने अपने कपड़े वहीं दरवाजे के पीछे लगी कीलों पर टांग दिए। अब वह सिर्फ अंडरवियर में था। लड़की ने उसे लाइट बंद करने इशारा किया और खुद चारपाई जाकर लेट गई। अंधेरे में जो कुछ भी हो रहा था उसे ललित और उस लड़की की सांसों की आवाज से समझा जा सकता था। मुश्किल से पांच मिनट बाद ही ललित ने चारपाई से उठकर लाइट जला दी। लड़की भी अपने कपड़े समेटती उठ खड़ी हुई। इसी बीच दस्‍तक हुई तो लड़की ने दरवाजे को थोड़ा सा खोलकर चाय का छीका पकड़ लिया और फिर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। हम चारो चाय पीने में लग गए। ललित ने इस दौरान अपने कपड़े पहन लिए थे।  कोठरी में पूरी तरह खामोशी पसरी हुई थी। सब चुप थे। मैं बोलना चाहता था, पूछना चाहता था उस लड़की से उसका नाम, पता, उसकी कहानी, लेकिन ऐसा लग रहा था कि किसी ने गला दबा रखा है, हाथ पैरों को लकवा मार गया है। बाहर बारिश तेज हो गई थी।
चाय खत्‍म हुई तो लड़की ने मुझे चारपाई पर आने का इशारा किया, लेकिन मेरे तो जिस्‍म में जैसे जान ही न थी। तभी अनिल उठ खड़ा हुआ। एक बार फिर कोठरी की लाइट पांच मिनट के लिए बंद हुई। इस बार जब लाइट जली तो लड़की चारपाई से उठी नहीं। उसने मुझे अपने पास आने का इशारा भर किया। मेरी ओर से कोई क्रिया न होते देख उसने मेरा एक हाथ पकड़ अपनी ओर खींच लिया। मैं भी एक जिंदा लाश की तरह उसे ऊपर जा गिरा। उधर अनिल ने लाइट बंद कर दी। वह मेरे कपड़े उतार रही थी और मैं पूरी तरह बेजान, निढाल। उसने फुसफुसाते हुए पूछा…..पइली टेम आया इदर….डर लग रहा है।
जवाब में मैं सिर हिलाने तक की हालत में भी नहीं था। धड़कनें इतनी बढ़ी हुई थीं कि बता नहीं सकता। बस, मैं उससे लिपटा हुआ यूं ही पड़ा रहा। वह मेरे शरीर को धीरे धीरे सहला रही थी। मेरे बालों में उंगलियां फिरा रही थी। लगभग दस मिनट तक हम यूं ही पड़े रहे। तभी अंधेरे में ललित की आवाज सुनाई दी…..अबे क्‍या कर रहा है, अब छोड़ भी दे उसे। मैं भी ललित की आवाज सुनकर चारपाई से उठ गया और लाइट जला दी। लड़की भी चारपाई से उठ खड़ी हुई थी। ललित उसे पैसे दे रहा था। एक सौ पच्चिस रुपये सौदे के और बीस रुपये चाय के। रुपये लेते समय लड़की की आंखों में एक अलग तरह की चमक थी। रुपयों को उसने अपने माथे से लगाया और फिर वही किनारे रखी टीन की पेटी में डाल दिया……आज सुबह से अबतक का पहला कमाई है येमौसम खराब हैं न, तभी कोई ग्राहक नहीं आया। पैसा रखने के बाद उसने कोठरी के दरवाजे की झीरी बना इधर उधर देखा और हमे बाहर जाने का इशारा किया। ललित और अनिल तेजी से कोठरी से बाहर निकल गए। मैं भी बाहर जाने वाला था तभी उसने बांह पकड़कर मुझे अपनी ओर खींचा और मेरे माथे पर एक चुंबन जड़ते हुए मेरे सिर पर बड़े ही प्‍यार से हाथ फिराया…..ये अच्‍छी जगह नहीं है, फिर कभी यहां मत आना। उसकी आंखें डबडबाई हुई थीं। आंसू की दो बूंदें उसके गोरे गालों पर ढुलक आई थीं। बहुत से सवाल मेरी आंखों में भी थे और उसकी आंखें भी बहुत कुछ कहे जा रही थीं। मगर हम दोनों खामोश थे।
तभी ललित ने हाथ पकड़कर मुझे उस कोठरी से बाहर खींच लिया था…..अब यहीं खड़ा रहेगा या चलेगा भी।
फिर उन्‍हीं गलियों में होते हुए हम मूलगंज वापस आ गए थे, जहां से रिक्‍शा लेकर कानुपुर सेंट्रल स्‍टेशन पहुंचे। पूरे रास्‍ते मैं खामोश ही रहा। ल‍लित और अनिल आपस में बातें करते चल रहे थे। उन दोनों ने कब ट्रेन का टिकट लिया। हम कब ट्रेन पर सवार हुए। कब उन्‍नाव आया, मुझे कुछ नहीं पता। माथे पर उस लड़की के नर्म गुलाबी होंठों के चुंबन का अहसास अभी भी बरकरार था। उसके स्‍नेहिल स्‍पर्श ने मेरे पूरे वजूद को झकझोर कर रख दिया था। एक अलग तरह का सुकून था, उसके स्‍पर्श में। बिल्‍कुल वैसा ही जैसा मां के स्‍पर्श में होता है, लेकिन वह मां का स्‍पर्श तो नहीं था। ……तो फिर क्‍या था वह। ऊफमैने तो उसका नाम तक नहीं पूछा।
(क्रमश:)


Tuesday, July 3, 2018

दिल बोलता है



हां, ये सच है…..! दिल बोलता है…….बताता है, क्‍या गलत है और क्‍या सही। उस दिन मेरा भी बोला था, मगर जिज्ञासाओं के समंदर की लहरों के थपेड़े इतना शोर किए हुए थे कि दिल की आवाज उसमें कहीं दब सी गई थी। परवेज मुझे समझा रहा था- देख शहजादे, चप्‍पलों की फैक्‍ट्री तक इन्‍हीं गलियों से होकर जाना है। बीच में कहीं रुकना नहीं, मेरे पीछे-पीछे चलते रहना। कोई आवाज दे या फिर इशारा करे तो रुकना नहीं।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि परवेज मुझे इतना क्‍यूं समझा रहा है। आखिर ऐसा क्‍या है इस गली में। खैर, मैने भी सिर हिलाकर हामी भरी और परवेज के पीछे-पीछे हो लिया। मूलगंज की उन तंग गलियों में घुसते ही सस्‍ते सौंदर्य प्रसाधनों की गंध मेरे नथुनों से टकराई। गली के दोनों ओर छोटे-छोटे कोठरीनुमा कमरों जिन्‍हें लोग कोठे कहते हैं, के दरवाजों पर खड़ी लड़कियां और औरतें, हर आने जाने वाले को छेड़ रही थी……..अरे, आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया…..अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।
इसी तरह के और भी न जाने कितने अल्‍फाज मेरे कानों में पड़ते जा रहे थे और मैं तेज कदमों से परवेज के पीछे-पीछे लगभग दौड़ सा रहा था। मेरा दिल बहुत तेजी के साथ धड़क रहा था। इतना तेज मानो सीने के बाहर निकल पड़ेगा। कोठरियों के बाहर चबूतरों पर खड़ी लड़कियों के मुंह से निकलने वाली भद्दी गालियां और तमाम अश्‍लील इशारे।
उफ, यहां तो एक अलग ही दुनियां थी। किसी तरह, कई संकरी गलियों से होते हुए हम चप्‍पल बनाने वाली एक फैक्‍ट्री तक पहुंचे। रास्‍ते में, मैं तो पूरी तरह चुप रहा लेकिन परवेज पूरी तरह बिंदास, एकदम मस्‍ती के मूड में उन कोठेवालियों के फिकरों का जवाब देते ठहाके लगाते यहां तक पहुंचा। फैक्‍ट्री में घुसते ही चप्‍पलें बनाने में जुटे कारीगरों के काम करने से होने वाली आवाजों, और चमड़े की गंध ने मेरी तंद्रा भंग कर दी। परवेज मुझसे मुखातिब हुआ……क्‍यों शहजादे, आज देख लिया नजारा मूलगंज की रोटी वाली गली का। परवेज के इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं इतना डरा और सहमा हुआ था कि सबकुछ देखने सुनने के बाद भी ऐसा लग रहा था कि मैने कुछ भी नहीं देखा, कुछ भी नहीं सुना। मेरा गला सूख रहा था। फैक्‍ट्री में ही सामने रखे मिट्टी के एक बड़े घड़े से निकाल कर दो गिलास पानी पिया, तब जाकर राहत महसूस हुई। रास्‍ते के सारे दृश्‍य दिमाग में तूफान उठाए हुए थे। उधर परवेज चप्‍पलों को देखने और उनका मोल-भाव करने में लग गया था। तकरीबन एक घंटा हम इस फैक्‍ट्री में रहे। परवेज ने यहां से चार बोरी चप्‍पलें खरीदीं। वह खुश था……बहुत बढिया माल मिला है प्‍यारे। पंद्रह रुपये जोड़ी खरीदी हैं, पैंतीस रुपये में आराम से बेच डालूंगा…….एक रिक्‍शा तो पकड़ स्‍टेशन तक का……उसने मुझे इशारा किया। मैं फैक्‍ट्री से बाहर आया और एक रिक्‍शे वाले को रोका।
परवेज ने चप्‍पलों से भरे चारो बोरे रिक्‍शे पर लाद दिए और उन्‍हीं बोरों पर हम भी सवार हो गए। रिक्‍शा चला ही था कि उसने रिक्‍शे वाले को हांक मारी………शहजाद के होटल पर रोकना, कुछ खा पीकर चलेंगे। मैंने परवेज की ओर सवालिया नजरों से देखा तो उसने मुझे आश्‍वस्‍त किया……कबाब परांठे खिलाता हूं तुझे। क्‍या कबाब बनाता है, खा के देखना। मजा न आए पैसे वापस। उसके इस अंदाज पर मैं मुस्‍करा भर दिया।
शहजाद का होटल आ गया था। हम दोनों रिक्‍शे से उतरे और होटल में जाने लगे, तभी परवेज ने रिक्‍शे वाले को भी आवाज दी, अरे, तू भी आ न भाई, वहां क्‍यूं खड़ा है। छोड़ दे रिक्‍शा वहीं बाहर, कोई नहीं ले जा रहा सामान। रिक्‍शे वाला भी हमारे साथ होटल में अंदर आ गया। वह दूसरी टेबल पर बैठने लगा तो परवेज ने हाथ पकड़ कर उसे अपने पास बिठा लिया। अरे, यहां बैठ न हमारे साथ। और फिर हांक मारी…..शहजाद भाई, तीन प्‍लेट कबाब परांठे लगा दो, मगर जल्‍दी….ट्रेन छूट जाएगी। उधर गद्दी पर बैठे शहजाद ने भी सुर में सुर मिलाया…..अभी लाया भाई। अरे ओ फरीद……दो नंबर पे तीन कबाब परांठे लगा, बहुत जल्‍दी।
कबाब परांठे खाने के बाद हम कानपुर सेंट्रल रेलवे स्‍टेशन आ गए। चप्‍पलों के बोरे ट्रेन में लाद दिए गए। परवेज को सीधे लखनऊ जाना था और मुझे उन्‍नाव में उतर जाना था। ट्रेन चलने में अभी देर थी। परवेज प्‍लेटफार्म के एक किनारे पर खड़ा विल्‍स नेवीकट की सिगरेट फूंक रहा था और मैं वहीं एक बेंच पर बैठा था। रोटी वाली गली का माहौल अब भी मेरे दिमाग में घूम रहा था। रही कोठों की बात तो उस समय तक कोठों के बारे में मुझे उतना ही ज्ञान था, जितना फिल्‍मों में देखा था, लेकिन यहां तो कुछ और ही नजारा देखने को मिला। यही वजह थी कि सवाल पर सवाल मेरे किशोर मन को मथे जा रहे थे। इसी बीच ट्रेन चलने को हुई तो परवेज और मैं डिब्‍बे के अंदर आ गए। ट्रेन चल पड़ी लेकिन मैं पूरी तरह खामोश था। परवेज हमेशा की तरह जुआरियों की मंडली में जाकर बैठ गया था। बात-बात पर उसके ठहाके पूरे डिब्‍बे में गूंज रहे थे, और मेरे जहन में गूंज रहे थे रोटी वाली गली की  वेश्‍याओं के वो शब्‍द…… अरे, आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया…..अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।
ट्रेन उन्‍नाव जंक्‍शन पर रुकी तो मैने परवेज को हांक मारी। भाई परवेज चलता हुं मैं….!
परवेज ने भी वहीं जुआरियों के पास बैठे - बैठे हाथ हिला कर सहमति दी…….ठीक है शहजादे, फिर मिलते हैं।
उसे लखनऊ जाना था। मैं उन्‍नाव स्‍टेशन के प्‍लेटफार्म पर ट्रेन से उतरा तो शाम हो चुकी थी। सिर बहुत भारी-भारी सा लग रहा था। जैसे किसी ने एक बोझ सा रख दिया हो उसपर। पैदल-पैदल पूड़ी वाली गली, बड़ा चौराहा और छोटा चौराहा होते हुए मैं घर पहुंच गया था। मां ने पूछा भी…..कहां था पूरे दिन। इस सवाल का कोई जवाब नहीं था मेरे पास। मुंह हाथ धोकर बाहर के कमरे में एक किताब लेकर बैठ गया। पिता जी अंदर के कमरे में हमेशा की तरह बड़बड़ा रहे थे………कुछ करना धरना नहीं है इसे, दिन भर आवारा लड़कों के साथ घूमता फिरता है। घर में बिना कुछ किए धरे रोटी मिल जाती है। जब कमा के लाएगा तब पता चलेगा कि रोटी की कीमत क्‍या होती है।
पिता जी की आवाज हमेशा की तरह कानों में सीसा घोल रही थी। इस आवाज को सुन झुझला उठा था मैं। हुंह….इस घर में तो एक पल भी चैन से नहीं बैठ सकता….। हाथ में पकड़ी किताब को वही मेज पर पटकते हुए मैं कमरे से बाहर जाने लगा तो मां ने पीछे से आवाज दी……अरे, अब कहां जा रहा है…..कुछ खा तो ले।
नहीं खाना है मुझे….मैं गुस्‍से में पैर पटकते हुए फिर घर से बाहर आ गया था। मन बहुत अशांत था। आखिर, इस घर को तो छोड़ना ही होगा। मैं घर से चला जाऊं तो पिताजी पर कम से कम एक आदमी के खर्च का बोझ तो कम हो। मेरे कदम धीमे-धीमे तहसील के सामने वाले ढाबे की ओर बढ़ रहे थे, जहां शाम से ही भजन मंडली के लोग जमा होते थे….जैसे-जैसे ढाबा करीब आ रहा था, ढोलक और मजीरे की ताल पर भजनहारों की आवाजें सुनाई पड़ने लगी थीं….. मंगल भवन, अमंगल हारी, द्रवहु सो दशरथ अजर बिहारीरामा हो रामा। थोड़ी देर वहीं बैठा लेकिन मन बेचैन था, अंदर ही अंदर कुछ उबल सा रहा था। शायद यही वजह थी की बड़े अनमने मन से वहां उठा। शाम पूरी तरह ढल चुकी थी। अंधेरा हो गया था और मैं सड़क के किनारे किनारे यूं ही चला जा रहा था। न कोई मंजिल थी और न ठिकाना। बस, यूं ही चला जा रहा था।
देर रात घर लौटा तो, पिताजी सो चुके थे। मां ,जाग रही थी। उसने ही दरवाजा खोला था एक सवाल के साथ….कहां भटकता रहता है आधी आधी रात तकऔर मैं चुप। कोई जवाब न मिलता देख वह किचेन की ओर चली गई थी…..बैठ वहीं, खाना लाती हूं, खा ले, सुबह से यूं ही घूम रहा है।
मैं बाहर वाले कमरे में ही बैठ गया था और वह खाने की थाली टेबल पर रख कर पास ही खड़ी हो गई थी, मेरे सिर पर हाथ फिराते हुए। क्‍यूं परेशान होता। तेरे पिता जी तो बूढ़े हो गए हैं, इसी लिए हर समय कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। घर की हालत तो तुझे पता ही है। मैं खाना खाने की कोशिश करता हूं लेकिन दो चार कौर से ज्‍यादा नहीं खा पाता। अब भूख नहीं है मांमैं खाने की थाली मां के हाथ में थमा बाथरूम में चला जाता हूं। फिर कुल्‍ला करके आंगन में लगे अपने बिस्‍तर परअब तुम भी सो जाओ मां।
और फिर दिन भर की थकी हारी मां भी, थाली को किचेन में रख, अपने बिस्‍तर पर निढाल हो गई थी।
मैने भी चारपाई के पायताने पर रखी चादर सिर तक खींच ली थी। नींद तो आंखों से मीलों दूर थी। मूलगंज की रोटी वाली गली के वो दृश्‍य आंखों में तैर रहे थे। मैं अपने आप को उसे वेश्‍या के उन शब्‍दों से अलग नहीं कर पा रहा था….……..अरे, आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया…..अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।
(क्रमश:)




Thursday, November 28, 2013

Wednesday, May 26, 2010

ये हैं हमारे कमल किशोर सक्‍सेना


ये हैं मेरे अभिन्‍न मित्र और प्रेरक कमल किशोर सक्‍सेना। इन्‍हीं की प्रेरणा से मैने व्‍यावसायिक लेखन की दुनियां में कदम रखा था। पत्रकारिता भी इन्‍हीं के साथ रह कर सीखी। आजकल कमल जी पटना में हैं। एक दौर था जब पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के व्‍यंग्‍य लेखकों में श्रद्धेय केपी सक्‍सेना के बाद अगर किसी व्‍यंग्‍य लेखक को पहचाना जाता था तो वह हमारे कमल किशोर सक्‍सेना ही थे। दैनिक जागरण में वह नियमित रूप से छपते थे। रेडियों के लिए इन्‍होंने तमाम 'हवामहल' लिखे। 'सस्‍ते दामाद की दुकान' उनकी चर्चित व्‍यंग्‍य रचना थी। वक्‍त के थपेड़ों ने इनकी सारी मेधा को दारू में डुबो दिया। अब नए सिरे से लिखना शुरू किया है। मेरी ओर से बहुत बहुत शुभकामनाएं। इन्‍होंने अपना एक ब्‍लाग भी अभी हाल ही में बनाया है।
मित्रों वक्‍त मिले तो कमल जी के ब्‍लाग कमल के किस्‍से डाट ब्‍लागस्‍पाट डाट काम पर अवश्‍य लॉगइन करें।

Saturday, March 20, 2010

जियो तो ऐसे…………..

गौर से देखें तो पाएंगे, जिंदगी हर कदम एक नया सब‍क देती है। जाने अनजाने, हम उस सबक को पढ़ते हैं। भूल जाते हैं, लेकिन इससे वह सबक निष्‍प्रयोज्‍य नहीं हो जाता। वह हमारे अंदर कहीं न कहीं अपनी एक जगह बना लेता है। भाषा के स्‍तर पर। संवेदना के स्‍तर पर। सोच के स्‍तर पर। नजरिए के स्‍तर पर……।
याद नहीं, वह दिन कौन सा था। उस दिन, जिंदगी के एक नए सफर की तैयारी हुई थी। नए अनुभव की तैयारी। बड़े चौराहे से लौटते हुए अचानक परवेज लंगड़े ने आवाज दी, तो मैं उसकी दुकान की ओर बढ़ गया।
दरअसल तारा देवी और स्‍टेज प्रोग्राम के चक्‍कर में मैं परवेज लंगड़े वाली योजना को भूल ही गया था।
दुकान पर पहुंच कर, दुआ सलाम के बाद वहीं चप्‍पलों की एक गठरी पर बैठ गया। कैसे हो परवेज भाई…..मैने सवाल किया। मै तो ठीक हूं यार तुम कैसे हो….परवेज ने मेरी ओर देखा।
ठीक हूं…मैने जवाब दिया। वो, क्‍या है कि तारा देवी गुप्‍ता के साथ स्‍टेज प्रोग्राम कर रहा था। इसी लिए इधर आना नहीं हुआ। ठीक है यार, कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। परवेज ने मुझे प्रोत्‍साहित किया और साथ ही एक हांक मारी।……….अरे ओ कलुआ। दो चाय ले आ मलाई मार के। यार आया है अपना। परवेज एक बार फिर मुझसे मुखातिब हुआ। कानपुर चलेगा…..माल लेने जाना है। चल, घुमा के लाता हूं ?
मैने भी सहमति में सिर हिला दिया।
चाय आ गई थी। वही धरमशाले के सामने के ठेले वाले की चाय। 15 पैसे की एक कप। गजब का स्‍वाद होता था उस चाय में। पूरे उन्‍नाव में इससे सस्‍ती चाय कहीं नहीं मिलती थी। यही वजह थी कि सुबह से शाम तक वहां लाइन नहीं टूटती थी। ऐस लगता था जैसे पूरा शहर चाय पर ही जिंदा है। सबको चाय चाहिए। खैर, चाय खत्‍म कर हम दोनो दुकान से उठे ओर पूड़ी वाली गली होते हुए रेलवे स्‍टेशन आ गए। रास्‍ते में परवेज ने विल्‍स की एक सिगरेट भी पिलाई। उस समय चार आने की एक सिगरेट आती थी। मैं तो दस पैसे वाली रीजेन्‍ट से ही काम चला लेता था, लेकिन जब परवेज साथ होता था तो वह मुझे रीजेंट नहीं पीने देता था। जेब में भरी नोटों की गड्डी पर हाथ मार कर बोलता था- यार, कमाते किस दिन के लिए हैं, खाओ पिओ, ऐश करो, क्‍या रखा है इस दुनिया में। सब यही रह जाना है। सच, परवेज की इस बिंदास तबीयत पर मैं फिदा था। कोई चिंता नहीं, न पढ़ाई की, न लिखाई की, न परिवार की, न घर की, बार की, न व्‍यापार की। जो मिला पहना, जो मिला खाया, जहां नींद आई वहीं सो गए। बिल्‍कुल अलमस्‍त। फकीरों से भी कहीं आगे। ……..और एक मैं था। चिंताओ का पिटारा। क्‍या खाऊं, क्‍या पहनूं, क्‍या पढूं, कहां जाऊं, क्‍या करूं। ओफ……….लगता था पागल हो जाऊंगा।
मैं अभी विचारों के समुंदर में तैर ही रहा था कि परवेज ने मेरी पीठ पर एक धौल जमाई- अरे कहां गुम हो गए शहजादे।
वह जब ज्‍यादा मस्‍ती में होता, तो मुझे इसी नाम से पुकरता था।
ट्रेन आ चुकी थी। वही बालामऊ पैसिंजर। दूधियों की ट्रेन। जिसपर रेलवे का कोई कानून लागू नहीं होता। किसी को बींड़ी सिगरेट लेना रह गया हो तो ड्राइवर या गार्ड को हांक मार कर अगली क्रासिंग पर ट्रेन रुकवा लेता, और फिर वापस आकर हॉक मार देता। हां, भाई चलो ड्राइवर साहब। और ट्रेन फिर चल देती। सिर्फ इतना ही नहीं ,कालेज गोल कर पिक्‍चर देखनी हो तो भी इससे मुफीद कोई और सवारी नहीं। डेढ़ रुपये का आना-डेढ़ रुपये का जाना।
परवेज के साथ मैं भी ट्रेन में सवार हो गया। परवेज बता रहा था कि आजकल धंधा ठीक चल रहा है। लखनऊ चारबाग रेलवे स्‍टेशन की छोटी लाइन की फुटपाथ पर फड़ लगा कर अच्‍छी कमाई हो रही है। मूलगंज से माल (चप्‍पलें) उठा कर लखनऊ भेजना है।
‘ एक चप्‍पल की कीमत क्‍या होगी ’-मैं भी धंधे की बारीकियां समझने की कोशिश करने लगा। परवेज बता रहा था। थोक में एक जोड़ी चप्‍पल साढ़े सात रुपये की पड़ती है और बीस से पच्‍चीस रुपए जोड़ी में आसानी से बिक जाती है। और ज्‍यादा कमाई करनी हो तो रिपिट का काम और जोड़ लो। मेरे पास तो कोई लड़का नहीं है। वरना नोट तो बोरों में भरके लाऊं।
उस दौरान परवेज की बातें सुन कर ऐसा लगता था कि दुनियां में उससे धनवान और उससे बड़ा व्‍यापारी और कोई नहीं है। कभी-कभी तो मैं तुलना करने लगता था। एक ओर होते थे पुराने जमाने के मैट्रिक पास मेरे पिता जी जो, हर महीने मां के साथ बैठ कर अपनी तनख्‍वाह के चंद हजार रुपयों का हिसाब किताब जोड़ते। मकान का किराया, दूध वाले का बिल, बिजली का‍ बिल, बच्‍चों की फीस, ईंधन, राशन, सब्‍जी और न जाने क्‍या-क्‍या। दोनों की बातचीत जब अंतिम पड़ाव पर पहुंचती तो कुछ इस तरह के फैसले होते। गुड्डन (मेरी छोटी बहन) की स्‍कूल की ड्रेस अगले महीने देखेंगे। काम वाली को हटा दें तो ठीक रहेगा।……….और दूसरी ओर अनपढ़ परवेज। एकदम अलमस्‍त। यार ओपी, चल तुझे कबाब पराठे खिलवाता हूं। मूलगंज में रोटी वाली गली तक तो चलना ही है। सामने कोई भिखारी आ गया, कोई लाचार दिख गया तो परवेज अपनी पूरी जेब भी खाली कर सकता था। मैं गवाह हूं इसका। कई बार माल लेने जाते वक्‍त ट्रेन में परवेज अपने सारे पैसे गरीबों में बांट दिया करता था। मैं पूछता, अब माल का क्‍या होगा ? वह हंस देता। होना क्‍या है, माल आएगा। जेब में पड़ी विल्‍स फिल्‍टर की डिब्‍बी और आखिरी बचे दस के नोट को हवा में लहराता हुआ वह ट्रेन में जुआ खेल रहे लोगों के बीच जा कर बैठ जाता। गजब का कानफीडेंस था उसमें, जो पिताजी में कभी देखने को नहीं मिला।
पिताजी खर्च में जितना कतर ब्‍यों करते, उतना ही दुखी नजर आते। परवेज जिस बेतरतीबी से खर्च करता, उतना ही मस्‍त नजर आता। मै भी मन ही मन फैसला कर लेता हूं। एक बार जरूर इसके धंधे में हाथ डाल कर देखूंगा। उस समय परवेज मेरा रोल मॉडल बन गया था। एक पैर से कमजोर होने के बावजूद गजब की हिम्‍मत थी उसमें। गजब की जिंदादिली। वह अक्‍सर कहता था-‘ शहजादे, जियो तो ऐसे, जैसे कि सब तुम्‍हारा है, मरो तो ऐसे, जैसे तुम्‍हारा कुछ भी नहीं ।’
ट्रेन कानपुर पहुंच जाती है। हम दोनो पैदल-पैदल घंटाघर पहुंचते हैं, और वहां से रिक्‍शा पकड़ मूलगंज। चौराहे पर उतरते ही दाहिनी ओर मेस्‍टन रोड जाने वाले रास्‍ते के शुरू में ही बाएं किनारे पर पुलिस चौकी और फिर लगभग सौ कदम आगे चलते ही दुकानों के बीच से जाने वाली कुछ पतली-पतली गलियां और उनमें ताक-झांक करते कुछ लोग।
इन गलियों की चर्चा तो बहुत सुनी थी। देखने का मौका आज मिला। यह कानपुर की बदनाम बस्‍ती थी। थी, इस लिए कि अब वहां ऐसा कुछ भी नहीं है।
(क्रमश:)

Monday, January 25, 2010

एक वर्ष बाद

पूरे एक वर्ष बाद आज फिर लिखने बैठा हूं। जैसा कि मैने पहले ही कहा था कि किसी भी काम को शुरू करना बहुत मुश्किल होता है, और उसे अंजाम तक पहुंचाना और भी मुश्किल। वक्‍त के थपेड़े कहां से कहां उड़ा ले जाते हैं। ऐसा ही एक थपेड़ा मुझे भी लगा, अभी पिछले दिनों। तो ब्‍लाग पर कोई पोस्‍ट डालने का मौका ही नहीं लगा। जिंदगी को सहेजने में ही
पूरा एक साल बीत गया। आज मैं बहुत खुश हूं। पहली खुशी इस बात की कि एक दोस्‍त के एसएमएस ने नए सिरे से लिखने का हौसला दिया है। उसका एसएमएस था- सुना था जि़दगी इम्‍तहान लेती है, मगर ये साले इम्‍तहान तो जिदगी लेने पर लगे हैं।
जाने क्‍यूं इस एसएमएस ने एक बार फिर लिखने का हौसला दिया है। मुझे लगा कि इम्‍तहान तो चलते रहेंगे। जिंदगी इतनी आसान नहीं कि कोई इम्‍तहान इसे समेट ले जाए। रही दूसरी खुशी की बात तो वह यह कि आज मुझे अपना 21 साल पहले खोया हुआ एक दोस्‍त मेराज जैदी मिल गया। उसकी तस्‍वीर भी मिली जो इस पोस्‍ट के सा‍थ आपके सामने है। अपनी पिछली पोस्‍ट में मैने उसका जिक्र किया था कि उसने ही उन्‍नाव की कचहरी में एक वकील के यहां मुझे मुंशीगीरी का काम दिलाया था। उस समय वहां कचहरी में उससे अच्‍छा कोई मुंशी नहीं था। आज पता चला कि वह मुम्‍बई में है। उससे आज फोन पर बात भी हुई। टीवी सीरियल्‍स के लिए स्क्रिप्‍ट एवं डायलाग लिख रहा है।
मेराज से बात कर आज फिर मुझे वही शेर याद आ रहा है जिस शेर पर मैने अपनी पिछली पोस्‍ट को समाप्‍त किया था:- खुली छतों के दिये कब के बुझ गए होते, कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।सच, हम सभी दोस्‍त खुली छतों के दिये जैसे ही तो थे। आज मेराज के रूप में एक खोया हुआ दिया मिला है जो मुम्‍बई में अपनी रोशनी बिखेर रहा है। मुझे उम्‍मीद ही नहीं भरोसा है कि हमारी दोस्‍ती के दिये जहां जहां भी होंगे, वहां रोशनी की कोई कमी नहीं होगी।
मित्रों, अगली पोस्‍ट में अपनी उसी कहानी पर वापस लौटूंगा जहां से मैं अचानक लापता हो गया था। कोशिश करूंगा कि हर सप्‍ताह कम से कम एक पोस्‍ट आपको जरूर पढ़ने को मिले।
नेट से मेराज को जो प्रोफाइल मिला है वह इस प्रकार है:-
MAIRAJ ZAIDI (born 22.11.1949 at Chaudhrana, Unnao)
Stage Artist & Dialogue Writer.
Stage Plays'Agra Baazar' directed by Habib Tanveer (68 shows ).'Charan Das Choor' directed by Habib Tanveer (8 shows).Contribution : He acted in these Plays.
'Curfew' adopted from Novel 'Shahar Mein Curfew' written by Vibhuti Narain Rao'Tamacha' 'Raj Darshan'Contribution : Direction, Screen Play, Acting & Dialogue Writing.
T.V. Serials 'Raja Ka Baaja' directed by Sayeed Mirza (27 episodes have been telecast on DD-I)'Farz' : Nimbus Productions (17 episodes.)'Chamatkaar' directed by Partho Ghosh. (6 episodes)'Rishtey' (Telecast on Sony)Contribution: Dialogue Writing.'Ghadar - 1857' based on The First war of Independence directed by Sanjay Khan.Contribution: Research Story, Screen Play & Dialogue Writing.


Friday, January 30, 2009

धार्मिक होना भी जरूरी
धर्म चाहे कोई भी हो, मेरा मानना है कि व्‍यक्ति का धार्मिक होना भी जरूरी है। आज हम जिस हिंदू मुसलमान सिख या ईसाई के नाम पर आपस में लड़ते झगड़ते हैं, वह वास्‍तव में धर्म नही है। हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई तो अलग अलग संप्रदाय हैं। हम उनके अनुयायी मात्र हैं। संप्रदायों में वर्चस्‍व को लेकर झगड़ा हो सकता है। धर्म पर कोई झगड़ा नहीं। मेरा मानना कि, धर्म हमें संकटों से उबरे की शक्ति देता है। धर्म हमें अपने कर्तव्‍य मार्ग पर चलन की प्रेरणा देता है। जब हम यह मानते हैं कि इस सृष्टि से अलग कोई एक सर्वशक्तिमान है और हम सब की डोर उसके हाथ में है, तो हम बड़े से बड़े संकट के समय में भी रिलैक्‍स हो जाते है। एक तरह से कहा जाए तो धर्म आस्‍था और विश्‍वास का दूसरा नाम है। वह अलग बात है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण इससे बिल्‍कुल अलग है। उनकी भाषा में यही कहा जाता है कि जहां विश्‍वास होता है वहां ज्ञान नहीं होता, लेकिन कभी कभी मानसिक शांति के लिए ज्ञान शून्‍यता एवं विचार शून्‍यता एक औषधि का कार्य करती है। संभवत: इसे ही ध्‍यान कहते हैं। जो व्‍यक्ति इस स्थिति से गुजर जाता है वह वह बड़े से बड़े संकट का सामना कर अपने आप में एक ऐसी ऊर्जा का समावेष कर लेता है जो जीवन पथ पर आगे बढ़ने में उसकी मदद करती है।
यहां धर्म चर्चा मैं सिर्फ इस लिए कर रहा हूं कि जिन संकटों से गुजर कर मेरे पिता जी ने अपने परिवार को संभाला वह ईश्‍वर के प्रति उनकी अगाध आस्‍था और विश्‍वास का ही परिणाम था। ऐसा वह अक्‍सर कहा करते थे....और यह आस्‍था एवं विश्‍वास उन्‍हें अपने पूर्वजों से संस्‍कार में मिला। कुछ ऐसे ही संस्‍कार मुझमें भी रहे। मेरी ननिहाल में तो भक्ति रस की गंगा बहती थी। हमारे नाना बाराबंकी के पीरबटावन मोहल्‍ले में रहा करते थे। अक्‍सर गर्मियों की छुट्टियों में हम लोग वहां जाया करते थे। नाना जी का नियम था कि वह सुबह चार बजे सभी को जगा दिया करते थे और फिर खुद हारमोनियम लेकर प्रभाती गाते थे और हम सभी उनके साथ स्‍वर मिलाया करते थे। उनकी वह प्रभाती आज भी मुझे याद आती है........जागिए कौशल किशोर पंछी गण बोले, जागिए कौशल किशोर।
मुझे अभी भी याद है जब नाना जी रेलवे से रिटायर होने के बाद घर में ही ईश्‍वर भजन में लीन रहते थे। इसके अलावा उन्‍हें होम्‍योपैथी का भी अच्‍छा ज्ञान था इस लिए वह अपनी पेंशन के कुछ पैसों से दवाएं खरीद कर लाते थे और मोहल्‍ले के उन लोगों का नि:शुल्‍क इलाज किया करते थे जो गरीब थे। छुट्टियों में हम लोगों के पहुंचने पर वह हमे अपने साथ विभिन्‍न संतों के सत्‍संग में ले जाते थे। घर में खाली समय मिलता तो वह हमे रामायाण, सुख सागर और गीता जैसे ग्रंथ देकर कहते कि हम उसे पढ़ कर उन्‍हें सुनाएं। इस प्रक्रिया का लाभ आज हमें समझ में आता है। बचपन में विभिन्‍न धर्मग्रंथों के पाठ ने जहां हमारी भाषा को समृद्ध किया वहीं धर्म के प्रति हमारी आस्‍था को मजबूत किया। इसी ने हमें गरीबों की सहायता, दीन दुखियों की मदद और सत्‍य की राह पर चलने का हौसला भी दिया। काम, क्रोध, लोभ, मोह से मुक्‍त होने की सीख दी।
वह अलग बात है कि, जीवन की राहों पर जिस नए सत्‍य से हमारा साक्षात्‍कार हुआ उसके चलते हम तमाम बार व्‍यक्गित हितों के लिए इन राहों से भटके। कभी जानबूझ कर तो कभी अनजाने में......लेकिन अच्‍छे संस्‍कारों ने हमें हमेशा बाचाए रखा। मैने कभी भी यह दावा नहीं किया कि मैं सत्‍यवादी हरिश्‍चंद हूं। मैं एक आदर्श व्‍यक्ति हूं। मेरा अनुकरण किया जा सकता है। ऐसा मैने कभी नहीं कहा। मैं हमेशा एक सामान्‍य व्‍यक्ति की तरह जिया। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप समय-समय पर बदलता रहा। .........क्‍यों कि मैं जानता था कि इस परिवर्तनशील समय में अगर मैने अपने आप को नहीं बदला तो जीवन की दौड़ में कहीं पीछे छूट जाऊंगा।
मैं पीछे छूटना नहीं चाहता था। कर्म को प्रधान मानते हुए मैं कोशिशों में लगा रहा। कुछ दिनों बाद मेराज ने बताया कि उसने एक वकील साहब से बात की है। अगर मैं चाहूं तो उनके यहां मुंशी का काम कर सकता हूं। मेराज की बात सुनकर मैने भी हां कर दी और अगले दिन से काम पर पहुंच गया। बड़े मुंशी ने मुझे मुकदमों से संबंधित कोर्ट के कागजात तैयार करने बताए। पांच रूपये रोज पर बात तय हुई थी। मैं पूरी मेहनत और लगन से काम करने लगा। शाम को बड़े मुंशी कचहरी से मेरे साथ सब्‍जी मंडी तक पैदल आते थे और वहां से सब्जियां खरीद कर अपने बच्‍चों के लिए कु्छ न कुछ मिठाई आदि लेकर तब घर जाते थे। बड़े मुंशी की ड्यूटी सुबह आठ बजे वकील साहब के घर से शुरू होती थी। वकील साहब के घर का सामान लाना। मिलने जुलने आने वालों को चाय आदि पिलाना भी बड़े मुंशी की ड्यूटी में शामिल था। इसके बाद वह दस बजे कचहरी आ जाते थे। पूरे दिन काम कर मुंशी जी को तीस से चालिस रुपये रोज की आमदनी थी। इसी आमदनी से उनके परिवार का भरण पोषण होता था। मुंशी जी भी अपनी इस स्थिति से पूरी तरह संतुष्‍ट थे। वह बताते थे कि, वह जब कचहरी पहली बार आए थे तो उनकी उम्र सिंर्फ अठारह साल की थी और आज वह 40 वर्ष के हैं। मुंशी जी की बातें मेरे अंदर विचारों का एक ऐसा तूफान खड़ा कर देती थीं कि मैं कभी कभी तो घंटो मुंशी जी के बारे में ही सोचता रह जाता था, और फिर अपने आप से यह सवाल करता था कि क्‍या मैं भी मुंशी जी की तरह ही..................।
नहीं नहीं , मैं बहुत तेजी के साथ अपना सिर झटक देता था। इतने से गुजारा नहीं होगा। वह और बात थी कि जब से मैने कचहरी जाना शुरु किया था मैंने अपने खर्च के लिए घर से पैसे लेना बिल्‍कुल बंद कर दिया था। बीच बीच में तारा देवी गुप्‍ता के स्‍टेज प्रोग्राम भी मिल जाते थे। इस तरह कहा जाए तो अपनी गाड़ी सरकने लगी थी। सिगरेट पान और लेखन सामग्री का खर्च निकलने लगा था। यदा कदा सरिता, मुक्‍ता और गृहशोभा में रचनाएं भी छपने लगी थीं। मैने इंटरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भर दिया था। मुझे अपने आप पर विश्‍वास था और ईश्‍वर पर भरोसा, साथ ही जहन में गूंजता किसी शायर का वह शेर-
खुली छतों के दिये कब के बुझ गए होते।
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।।
(क्रमश:)