जुनून हो तो सफलता मिलती है
किसी भी काम के प्रति जुनून हो तो सफलता अवश्य मिलती है। यह बात आज मेरी समझ में आती है। उस दिन कमल के साथ मैं कानपुर के विभिन्न बड़े बुक स्टालों पर घूमा। हमने मिलकर एक नाटक राम रहीम की स्क्रिप्ट सलेक्ट की और उन्नाव वापिस आ गए। कानपुर से लौटते वक्त भी मैं पूरी तरह खामोश ही रहा। एक अंतरद्वंद था मेरे भीतर। एक तूफान। कुछ करना है........कुछ करना है। उन्नाव पहुंचे तो हमने यह तय किया कि कल दोपहर हम उस टीम की एक मीटिंग करते हैं जिसे इस नाटक में काम करना है। तय हुआ कि कल दोपहर हम बडे़ चौराहे के बराबर में ही पूड़ी वाली गली में मुन्ना बाजपेई की पूडी की दुकान में मिलेंगे। नाटक से जुडे सभी साथियों को सूचना देने का काम कमल करेंगे। यह तय करके हम मैं और कमल अपने अपने घरों की ओर चल दिये। अभी शाम के पांच बजे थे। रास्ते में मेरा स्कूल और स्कूल के सामने परवेज लंगडे की चप्पल की दुकान थी। पैदल चलते हुए जब मैं स्कूल के सामने तक पहुंचा तो परवेज लंगडा अपनी दुकान पर बैठा था। मैं उसके पास रुक गया। मुझे देखते ही उसने भी मुझे आवाज दी। कहां जा रहे हो ओपी भाई। आओ चाय ले लो।......और उसकी आवाज सुनते ही मैं उसकी ओर बढ गया। परवेज ने चाय का आर्डर दिया और हम दोनों बातचीत में मशगूल हो गए। परवेज की अपनी अलग एक दुनिया थी। परवेज बता रहा था..........यार आज तो बालामऊ पैसिंजर से माल लेने कानपुर गया था। रास्ते में जबरदस्त जुआ हुआ। पूरे डेढ हजार रुपये जीता हूं आज।
दरअसल, उन्नाव से कानपुर और लखनऊ जाने वाली ट्रेनों में डेली पैसिंजर्स खूब जुआ खेलते थे। उन जुआरियों में उन्नाव से परवेज और विजय रेडियोज के मालिक विजय मुख्य थे जिन्हें मैं जानता था। उस जमाने में जब हम दो रुपये और पांच रुपये को बडी रकम मानते थे यह लोग सैकडों रुपये का जुआ खेल डालते थे। परवेज मुझे अपने जुए में हार जीत की बात बता रहा था लेकिन मेरा दिमाग कहीं और ही चल रहा था।
मौका देख कर मैने परवेज से कहा- यार मैं भी कुछ काम करना चाहता हूं जिसमें दो पैसे मिल सकें। मुझे भी कोई काम बताओ ?
परवेज ने कहा- तुम्हें पता है ओपी भाई हम कुछ पढे लिखे तो हैं नहीं। अपना चप्पल बेचने का काम है। इसी से गुजारा चलता है। तुम अगर चाहो तो यह धंधा शुरू कर सकते हो, मैं इसमें तुम्हारी पूरी मदद करूंगा।
मैने कहा- यार, मैं कोई धंधा शुरू करने की स्थिति में नहीं हूं। मैं तो नौकरी करना चाहता हूं। कोई भी हो......कैसी भी हो.....मुझे अब अपने मां बाप के सहारे नहीं रहना। मुझे अपने खर्चे खुद निकालने हैं।
परवेज ने उस समय बडा ही घूर कर मुझे देखा था। मानों कह रहा हो....तुम्हें क्या जरूरत काम की। तुम्हारे पिता जी तो एक अच्छे सरकारी मुलाजिम हैं। अच्छी पहचान है उनकी शहर में। तुम्हें क्या पडी है नौकरी की........तुम्हें तो अपनी पढाई की चिंता करनी चाहिए ?
अब मैं उसे क्या बताता कि घर में कैसी कैसी लानतें झेलनी पडती हैं मुझे। पिता जी रिटायर होने की स्थिति में हैं और मैने अभी अपना ग्रेजुएशन भी पूरा नहीं किया है। बच्चे देर से हों तो मां बाप को यह समस्या भुगतनी ही पड़ती है।
फिलहाल परवेज ने मुझे एक आफर दिया कि वह लखनऊ चारबाग रेलवे स्टेशन की छोटी लाइन के प्लेटफार्म के बाहर सडक के किनारे फुटपाथ पर चप्पलों की फड़ लगाता है। वहां आवाज लगा कर चप्पलें बेची जाती हैं। कानपुर से जो चप्पल 10-12 रुपये जोडी लाई जाती हैं उसे वहां 25 से 30 रुपये जोडी बेचते हैं। उसे इस काम में एक आदमी की जरूरत है अगर मैं चाहूं तो उसके साथ आ सकता हूं। इस काम के लिए वह मुझे एक दिन में 10 रुपये देने को तैयार था। उसका कहना था कि आम तौर पर ऐसे काम के लिए 7 से 8 रुपये, पर डे पर लडके मिल जाते हैं।
परवेज की बात सुन कर मैने उससे कहा कि मैं कल सोच कर उसे इस विषय में बताऊंगा।
इसी बताचीत के दौरान हमने अपनी चाय खत्म की और मैं वहां से अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में मैं सोचता चला जा रहा था। परवेज का बताया काम मुझे करना चाहिए या नहीं ? पूरे रास्ते सोच विचार कर मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि मेहनत मजदूरी कर अपनी रोटी कमाना कोई गलत बात नहीं है। कहीं न कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी। अभी हमारी क्वालीफिकेशन ही क्या है जो हमें कोई ढंग का काम मिलेगा। मैने मन ही मन तय कर लिया था कि परवेज के साथ काम करूंगा। महीन में तीन सौ रुपये मिलेंगे। खिलाने पिलाने में परवेज कभी कंजूसी नहीं करता था। ऐसे में अपने सिगरेट बीडी का खर्च निकाल कर कम से कम दो सौ रुपये मासिक तो बचा ही लूंगा, इंटरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भरूंगा और जैसे भी हो अपना ग्रेजुएशन पूरा करूंगा और इसके लिए पिता जी से एक भी पैसा नहीं लूंगा।
यही सब सोचते सोचते मैं घर पहुंच गया। रात में मैने खाना खाते वक्त मां और पिता जी के सामने यह घोषणा कर दी कि मैं इस साल कालेज में एडमीशन नहीं लूंगा और इंटरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भरूंगा। मैने बता दिया कि मुझे लखनऊ में एक काम मिल गया है। इस लिए मैं लखनऊ जा रहा हूं। मां और पिता जी ने मुझसे बहुत पूंछा कि क्या काम मिला है.......लेकिन मैंने उनसे कुछ नहीं बताया। मैं जानता था कि अगर मैने उन्हें बता दिया तो दोनों में से कोई मुझे जाने नहीं देगा। बस मैने इतना बताया था कि महीने में मुझे तीन सौ रुपये मिलेंगे।
खाना खा पीकर मैं अपने बिस्तर पर लेट गया था। दोनो भाई बहन भी सो गए थे। बाहर के कमरे से मां और पिताजी के आपस में बातचीत के जो अस्पष्ट स्वर अंदर के कमरे तक आ रहे थे उससे मैने अंदाजा लगाया कि वह इस बात को लेकर चिंतित थे कि मैं क्या करने जा रहा हूं। उधर मैं इस सोच विचार में था कि मैं जो कुछ करने जा रहा हूं वह सही है या नहीं। मुझे अक्सर पिता जी द्वारा सुनाई जाने वाली वह कहानियां याद आ रहीं थीं जिसमें वह हमें बताया करते थे कि हम लोग एक जमीदार खानदान से ताल्लुक रखते हैं। किसी समय में हमारे बाबा जी और उनके पिता का शाहजहांपुर में जमीदारा था। वहां लोग उन्हें हजेला साहब के नाम से जानते थे। हजेला साहब की कोठी के नाम से मशहूर उनकी कोठी आज भी शाहजहांपुर में है। भाइयों से अलग होने के बाद हमारे बाबा जी ने बनारस स्टेट में महाराजा बनारस की फौज में लेफटीनेंट के ओहदे पर नौकरी कर ली थी। हमारे बाबा जी महाराजा बनारस के सबसे करीबी लोगों में थे और उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध भी लड़ा था। एक लडाई जीत कर आने के बाद महाराजा बनारस ने गंगापार रामनगर में अपने किले का एक हिस्सा हमारे बाबा को बतौर इनाम दिया था। जिसे बेच कर उन्होंने रामनगर और फिर बनारस में अपना घर बनाया था। राजशाही के वक्त जब महाराजा बनारस के पुत्र कुंवर विभूतिनारायण सिंह और मेरे पिता जी में जबरदस्त दोस्ताना था। एक ही अंग्रेज ट्यूटर दोंनों को पढाने आता था। पिता जी अक्सर अपनी फाइलों में सहेज कर रखे गए उस अंग्रेज ट्यूटर का सर्टीफिकेट हम लोगों को दिखाया करते थे। मेरे पिता जी ही बताते थे कि वह और कुंवर विभूति नारायण सिंह बचपन में बहुत शैतान थे। एक बार विभूति नारायण सिंह के कहने पर मेरे पिता जी और उनके साथियों ने एक खेत से कुछ ककडियां तोड ली थीं जिसकी शिकायत खेत मालिक ने भरे दरबार में महाराजा बनारस से की थी जिस पर महाराजा बनारस ने न सिंर्फ उस किसान से माफी मांगी थी बल्कि मुआजे के तौर पर उसको साल की पूरी फसल का भुगतान भी किया था। साथ ही मेरे पिता जी और उस समय के कुंवर विभूति नारायण सिंह को बहुत डांट पड़ी थी। बाद में इस घटना से गुस्सा हो कर पिताजी और विभूति नारायण सिंह ने उस किसान के पूरे खलिहान में आग लगा दी थी और उनकी इस हरकत को राज पुरोहित ने देख लिया था। इसका मुआवजा भी राजा बनारस ने अदा किया था।
इसी तरह अपने बचपन के तमाम किस्से पिताजी घर में अक्सर सुनाया करते थे। ऐसे में एक बात घर के हम सभी लोगों के दिमाग में बैठी हुई थी कि हम एक राजघराने का हिस्सा रहे हैं, इस लिए हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे हमारी रायलटी को धक्का लगे। इसे अनुवांशिक कहें या और जो भी कुछ.....शायद आज भी हमारे मिजाज में वह राजशाही ठसक बरकरार है। वह अलग बात है कि उस रात मैने इन तमाम बातों को दिमाग से झटका और इस सत्य को स्वीकार कर लिया कि राजशाही जब रही होगी तब रही होगी। सच यह है कि मेरा पिता इस समय कचहरी का एक सामान्य क्लर्क है और उसकी आमदनी इस समय इतनी नहीं है कि वह अपने परिवार की ठीक प्रकार से परवरिश कर सके। ऐसे में हमें कुछ न कुछ करना ही होगा........करना ही होगा.......करना ही होगा.........।
धीरे-धीरे नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया था, मगर मेरा जुनून और गहरा हो गया था।
(क्रमश:)
व्यंग्य
21 वीं सदी और बिहार की पुलिस
‘ढम ढमा ढम ढम........होशियार, खबरदार अब हम इक्कीसवीं सदी में जा रहे हैं।‘ एक शोर उठा और हमें लगा कि शहर में कोई नया सर्कस आया है। अभी हम यह समझ भी न पाए थे कि हमारे इक्कीसवीं सदी में जाने से कौन सा इंकलाब आएगा, तभी अचानक अखबार में छपे बिहार पुलिस के एक कारनामे ने सबकुछ स्पष्ट करके रख दिया। उसने बता दिया कि इक्कीसवीं सदी में जाने का अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं कि कंप्यूटर प्रणाली का इस्तेमाल कर तमाम काम करने वाले हाथों को बेकाम कर दिया जाए, भूखे नंगे गरीब किसान मजदूरों की एक ऐसी फौज तैयार कर दी जाए जो मुट्ठीभर सरमाएदारों के सामने रोए-गिडगिडाए और अपने जीवन की भीख मांगे, बल्कि यह भी कि इस सदी में एक ऐसा इतिहास गढा जाए जिसकी अपनी एक मौलिकता हो.......जिसपर कुछ खास लोग गर्व कर सकें।
सच, अभी कितने पिछडे हुए थे हम। बीसवीं सदी में जो थे। अब आप ही बताइये, क्या यह एक राष्ट्रीय दुख का विषय नहीं कि हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी महात्मागांधी को राष्ट्रद्रोही नहीं साबित कर सके और न चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, राम प्रसाद बिस्मिल को गुंडा कातिल और लुटेरा।.....आखिर क्या करते रहे अबतक हम। शायद इसी लिए अबतक बीसवीं सदी में थे। अगर यह सबकुछ कर लिया होता तो इक्कीसवीं सदी में न पहुंच जाते।
खैर, देर आए दुरुस्त आए। अब चिंता की कोई बात नहीं है। हम प्रवेश कर गए हैं इक्कीसवीं सदी में। अच्छी तरह से पहुंच जाने के तमाम-तमाम लोग प्रयासरत भी हैं, और शायद इस मामले में सबसे ज्यादा सक्रिय है बिहार की पुलिस। पहले भी रही है। खास लोगों की नजर पहचानती है वो। जानती है कि इक्कीसवीं सदी में जाने के लिए क्या-क्या करना है। इसी लिए तो वह चाहे कैदियों की आंख फोडने का दायित्व हो अथवा कुछ खास इशारों पर गरीबों के घर उजाडने, उनकी बहन बेटियों की इज्जत लूटने का, सब कुछ बखूबी निभाती रही है।
आज उसने भीष्म साहनी, शानी और महीप सिंह सहित देश के दो दर्जन नामी गिरामी साहित्यकारों एवं उनके पत्रों को नक्सलवादी घोषित कर ही दिया है। अब वह दिन दूर नहीं जब वह बापू को राष्ट्रद्रोही, आजाद, भगत, बटुक और बिस्मिल को गुंडा कातिल और लुटेरा बताएगी। फैज और इकबाल को लफंगा और मवाली करार देगी, जिसपर खुशी से नाचे, झूमे और गाएंगे उन लोगो के दिल जो इक्कीसवीं सदी में जाने का सपना संजोने और उसे साकार करने में लगे है।.......और फिर आयोजित होंगे, बडे-बडे समारोह जिनमें पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ यह वर्ग विशेष यह घोषणा करेगा कि अब हम इक्कीसवीं सदी में पहुंच गए हैं, और साथ ही यह घोषणा भी होगी कि हम इस खुशी के मौके पर बिहार पुलिस को ‘ पुलिस आफ द इक्कीसवीं सदी ‘ के पुरस्कार से सम्मानित करते हैं।
(अमर उजाला के 2 फरवरी 1986 के अंक में प्रकाशित)
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