Sunday, July 29, 2018

नया अनुभव


सुबह-सुबह बादल का एक टुकड़ा न जाने कब आकर सिरहाने पर बैठ गया, पता ही नहीं चला। बादल के उसी टुकड़े की ओट से कभी-कभी सूरज बाहर झांकने की कोशिश करता तो मैं भी अपने बदन ही नहीं सिर को भी चादर में लपेट लेता। ठंडी हवा के झोंके उस गुनगुनी धूप में एक अलग सा अहसास दे रहे थे। आहटों से लग रहा था, पिताजी ऑफिस जा चुके हैं और भाई बहन अपने स्‍कूल। मुझे भी लगा कि अब बिस्‍तर छोड़ ही देना चाहिए। इसी बीच किचेन से मां की आवाज सुनाई दी…….अब उठ भी जा...सोता ही रहेगा दिन चढ़े तक।
मां की आवाज के साथ ही मैने भी बिस्‍तर छोड़ा और बाथरूम में घुस गया। नहा कर बाहर आया तो मेरे तैयार होने से पहले ही मां ने रात की बची रोटी, सरसों का तेल और नमक चुपड़ कर एक प्‍लेट में मेरे सामने रख दी आज नाश्‍ते में कुछ नहीं बनाया, इसे ही खा ले, वरना बरबाद जाएगी। साथ में एक प्‍याली चाय भी थी।
कपड़े पहनते पहनते चाय पी, तभी मां की झुंझलाहट भरी आवाज सुनाई दी….कितनी बार समझाया है, ये गीला तौलिया बिस्‍तर पर मत रखा कर लेकिन किसी बात पर ध्‍यान हीं नहीं देता। पता नहीं कहां दिमाग चलता रहता है इसका।
मुझे भी अपनी गलती का अहसास हुआ, शायद इसी लिए चुपचाप सिर झुकाए मैं अपनी डायरी और पेन उठा कर घर से बाहर आ गया। पैदल पैदल कॉलेज की ओर जाते समय एक बार फिर रोटी वाली गली का खयाल जीवित हो उठा….. अरे आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया….अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला। मैं अंदर ही अंदर तय कर लेता हूं, एक बार तो उस गली में फिर जाना है। आखिर कौन से ऐसे कारण होते हैं जब एक 20-22 साल की लड़की इतना बेशर्म हो जाती है। वो कौन सी और कैसी मजबूरी होती है जब कोई लड़की अपने जिस्‍म को बेच कर दो वक्‍त की रोटी जुटाती है। और भी तो बहुत से छोटे-बड़े काम हैं जिनसे रोटी कमाई जा सकती है, फिर जिस्‍म बेचने का धंधा ही क्‍यों। ऐसे ही न जाने कितने सवाल दिमाग को मथ रहे थे। रेलवे क्रॉसिंग तक पहुंचा तो वहीं रामफूल की पान की दुकान पर ललित और अनिल बवाली बैठे दिखे। मैं भी धीरे-धीरे उन्‍हीं के पास पहुंच कर उनके बराबर में ही बैठ गया। ललित ने अपनी आधी पी हुई सिगरेट मेरी ओर बढ़ा दी। सिगरेट में दो लम्‍बे-लम्‍बे कश मारकर मैने वो सिगरेट ललित को वापस लौटा दी। कुछ राहत सी महसूस हुई। मैं इसी बीच ललित से मुखातिब हुआ….यार, एक बात बता……कभी कानपुर की रोटी वाली गली में गया है।
हां,क्‍यों नहींमैं तो कई बार जा चुका हूं।
मैं भी एक बार वहां जाना चाहता हूं। तू चलेगा मेरे साथ….मैने ललित की ओर प्रश्‍नवाचक निगाहों से देखा।
हांचल न, आज ही चलते हैं, आज तो पैसे भी हैं जेब मेंललित ने अपनी ऊपर की पॉकेट पर हाथ मारते हुए कहा।
अनिल बवाली भी हमारी इस योजना में शामिल हो गया। फिर हम सबने अपनी अपनी जेबें टटोलीं। कुल मिलाकर हमारे पास ढाई सौ रूपये थे। इतने में काम हो जाएगा। और फिर हम कॉलेज जाने के बजाय रेलवे लाइन के किनारे किनारे स्‍टेशन के लिए चल पड़े। बालामऊ पैसेंजर के आने का टाइम था। स्‍टेशन पहुंच कर हमने तीन टिकट लिए और ट्रेन का इंतजार करने लगे। ललित मुझे बता रहा था कि रोटी वाली गली में कोठेवालियों से किस तरह मोल भाव करते हैं। और मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था। वह बता रहा था कि किस तरह पुलिस वाले रोटी वाली गली में आने जाने वालों पर निगाह रखते हैं और गली से बाहर निकलते ही उसे दबोच लेते हैं। फिर वेश्‍यावृत्ति का डर दिखाकर उसके सारे पैसे ऐंठ लेते है। कुछ बदमाश कोठेवालियां भी ग्राहकों के सारे पैसे छीन लेती हैं, क्‍योंकि ग्राहक सामाजिक लोक लाज के डर से इस छीनाझपटी के बारे किसी को नहीं बताता।
ललित की बातें सुन-सुन कर मेरा दिल बहुत जोर-जोर से धड़क रहा था। आसमान पर बादल थे। हवा भी ठंडी चल रही थी, लेकिन मेरे माथे पर पसीने की बूंदे साफ नजर आ रही थी। एक अजीब सी उहापोह की स्थिति थी। मुझे ऐसी जगह पर जाना चाहिए या नहीं। पिता जी को पता चला तो क्‍या होगा। कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए। लेकिन एक बार जाने और देखने में क्‍या हर्ज है। इन कोठेवालियों की जिंदगी के बारे में कुछ पता तो चलेगा। हो सकता है किसी अच्‍छी कहानी का आडिया मिल जाए।
यही सब सोचते विचारते ट्रेन आ गई और हम सब उसमें सवार हो गए। सिर्फ आधे घंटे का सफर कर हम कानपुर सेंट्रल पहुंचे और वहां घंटाघर के पास से रिक्‍शे की सवारी करते हुए मूलगंज। चौराहे से दायीं ओर मुड़ते ही किनारे पर एक पुलिस चौकी थी, जिसके सामने से होते हुए हम आगे बढ़े। यहां हमारे बाईं ओर कई पतली पतली गलियां थीं जिन्‍हें रोटी वाली गली ही कहते हैं। यहां ललित अपनी चौकन्‍नी निगाहों से इधर उधर देखता हुए एक गली में घुसा तो हम भी उसके पीछे हो लिए। उसकी हिदायत के मुताबिक हमने अपनी चाल थोड़ी धीमी रखी थी, ताकि चबूतरों के ऊपर बने कोठरीनुमा कमरों के बाहर खड़ी वेश्‍याओं को अच्‍छी तरह से देख सकें।
ललित आगे आगे चल रहा था। मैं और अनिल उसके पीछे थे। इसी बीच हल्‍की बूंदाबांदी भी शुरू हो गई थी, जिससे हमारे कपड़े भीग रहे थे। मैने ललित से कहा भी, कि कहीं रुक ले, लेकिन उसका कहना था कि इन गलियों में ज्‍यादा देर रहना ठीक नहीं है। नतीजतन, इन गलियों का पूरा एक चक्‍कर लगाने के बाद हम एक पान की दुकान पर सिगरेट लेने के लिए रुके। तभी ललित ने मुझसे पूछा…..क्‍यों कोई पसंद आई क्‍या।
मुझसे जवाब नहीं बन रहा था। गलियों में हुए कीचड़ से उठती दुर्गंध, वेश्‍याओं और ग्राहकों के बीच होता मोलभाव, इधर उधर से सुनाई देतीं भट्दी गालियों ने दिमाग को कुंद कर दिया था। तभी ललित ने एक बार फिर पूछा….बता न कोई पसंद आई क्‍या। इस सवाल पर एक बार फिर मैने दिमाग पर जोर डाला, तो याद आया। गलियों में घूमते वक्‍त एक कोठे के बाहर एक नेपाली सी दीखने वाली लड़की नजर आई थी, उसकी उम्र यही कोई बीस से बाइस वर्ष के आसपास रही होगी। हाइट मुश्किल से पांच फिट, गोरा चिट्टा, भोला सा आकर्षक चेहरा। आंखें ऐसी कि बिना बोले सबकुछ कह दें। सामने से गुजरते समय उसने हमपर कोई जुमला नहीं उछाला था, और न ही कोई छींटाकशी की थी। बस वह एक टक हमें देखे जा रही थी। उसकी आंखों में मुझे दुख, दर्द, याचना और मजबूरी जैसे न जाने कितने भाव नजर आए थे। शायद यही वजह थी कि मैने ललित को उसके बारे में बताया। ललित भी अपनी सिगरेट जलाते हुए मेरे आगे आगे चल दिया…..चल, उसी से बात करते हैं।
हम दोबारा उस लड़की की कोठरी के सामने पहुंचे तो वह अभी भी वहीं खड़ी थी। बारिश से भीगे कपड़ों में ठंडी हवा के झोंके कंपकपी पैदा कर रहे थे। गली में चहल पहल भी पहले के मुकाबले कम हो गई थी। ललित ने लड़की के सामने पहुंच उसे कुछ इशारा किया। उधर से जवाब आया तीनों का डेढ़ सौ रुपया। फिर मोल भाव के बाद बात सवा सौ रुपये में पक्‍की हुई। ललित ने अपनी तेज निगाहों से इधर-उधर देखा, फिर हमें उस लड़की कोठरी में चलने का इशारा कर वह कोठरी में घुस गया। मैं और अनिल भी उसके पीछे-पीछे अंदर आ गए। छह गुणा आठ फिट की उस कोठरी में चालीस वाट के बल्‍ब की रोशनी थी। सामान के नाम पर एक किनारे चारपाई पड़ी थी। उसी के बराबर में बैठने के लिए दो स्‍टूल रखे थे। चारपाई के नीचे एक  टिफन और कुछ बरतन नजर आ रहे थे। हमारे कोठरी में घुसते ही उसने उसके दरवाजे अंदर से बंद कर लिए थे। उस वक्‍त तक मैं ठंड कांप रहा था। लड़की ने मुझे कांपते देखा तो वह अपने उसी नेपाली लहजे में बोली….चाय मंगा लेते हैं, तुमलोग बहुत भीग गए हो।
उसके इस प्रस्‍ताव पर मैंने भी सहमति में सिर हिलाया। तभी उसने कोठरी का दरवाजा थोड़ा सा खोलकर उसमें से झांकते हुए किसी को आवाज मारी……ओए अब्‍दुल, चार चाय भेज जल्‍दी। फिर उसने कोठरी का दवाजा अंदर से बंद कर लिया और हमसे मुखातिब हुई…..किधर से आया तुम लरका लोग।
जवाब ललित ने दिया…..किदर से आया, तुझे क्‍या, अपने काम से काम रख।
ललित के इस जवाब पर लड़की का खिला हुआ चेहरा उतर सा गया। मैं कुछ बोलना चाहता था लेकिन गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी। अगले ही पल लड़की का चेहरा भी सख्‍त हो गया……चलो काम शुरू करो, कौन आएगा पहले।
मैने देखा, ललित बड़ी तेजी के साथ अपने कपड़े उतार रहा था। उसने अपने कपड़े वहीं दरवाजे के पीछे लगी कीलों पर टांग दिए। अब वह सिर्फ अंडरवियर में था। लड़की ने उसे लाइट बंद करने इशारा किया और खुद चारपाई जाकर लेट गई। अंधेरे में जो कुछ भी हो रहा था उसे ललित और उस लड़की की सांसों की आवाज से समझा जा सकता था। मुश्किल से पांच मिनट बाद ही ललित ने चारपाई से उठकर लाइट जला दी। लड़की भी अपने कपड़े समेटती उठ खड़ी हुई। इसी बीच दस्‍तक हुई तो लड़की ने दरवाजे को थोड़ा सा खोलकर चाय का छीका पकड़ लिया और फिर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। हम चारो चाय पीने में लग गए। ललित ने इस दौरान अपने कपड़े पहन लिए थे।  कोठरी में पूरी तरह खामोशी पसरी हुई थी। सब चुप थे। मैं बोलना चाहता था, पूछना चाहता था उस लड़की से उसका नाम, पता, उसकी कहानी, लेकिन ऐसा लग रहा था कि किसी ने गला दबा रखा है, हाथ पैरों को लकवा मार गया है। बाहर बारिश तेज हो गई थी।
चाय खत्‍म हुई तो लड़की ने मुझे चारपाई पर आने का इशारा किया, लेकिन मेरे तो जिस्‍म में जैसे जान ही न थी। तभी अनिल उठ खड़ा हुआ। एक बार फिर कोठरी की लाइट पांच मिनट के लिए बंद हुई। इस बार जब लाइट जली तो लड़की चारपाई से उठी नहीं। उसने मुझे अपने पास आने का इशारा भर किया। मेरी ओर से कोई क्रिया न होते देख उसने मेरा एक हाथ पकड़ अपनी ओर खींच लिया। मैं भी एक जिंदा लाश की तरह उसे ऊपर जा गिरा। उधर अनिल ने लाइट बंद कर दी। वह मेरे कपड़े उतार रही थी और मैं पूरी तरह बेजान, निढाल। उसने फुसफुसाते हुए पूछा…..पइली टेम आया इदर….डर लग रहा है।
जवाब में मैं सिर हिलाने तक की हालत में भी नहीं था। धड़कनें इतनी बढ़ी हुई थीं कि बता नहीं सकता। बस, मैं उससे लिपटा हुआ यूं ही पड़ा रहा। वह मेरे शरीर को धीरे धीरे सहला रही थी। मेरे बालों में उंगलियां फिरा रही थी। लगभग दस मिनट तक हम यूं ही पड़े रहे। तभी अंधेरे में ललित की आवाज सुनाई दी…..अबे क्‍या कर रहा है, अब छोड़ भी दे उसे। मैं भी ललित की आवाज सुनकर चारपाई से उठ गया और लाइट जला दी। लड़की भी चारपाई से उठ खड़ी हुई थी। ललित उसे पैसे दे रहा था। एक सौ पच्चिस रुपये सौदे के और बीस रुपये चाय के। रुपये लेते समय लड़की की आंखों में एक अलग तरह की चमक थी। रुपयों को उसने अपने माथे से लगाया और फिर वही किनारे रखी टीन की पेटी में डाल दिया……आज सुबह से अबतक का पहला कमाई है येमौसम खराब हैं न, तभी कोई ग्राहक नहीं आया। पैसा रखने के बाद उसने कोठरी के दरवाजे की झीरी बना इधर उधर देखा और हमे बाहर जाने का इशारा किया। ललित और अनिल तेजी से कोठरी से बाहर निकल गए। मैं भी बाहर जाने वाला था तभी उसने बांह पकड़कर मुझे अपनी ओर खींचा और मेरे माथे पर एक चुंबन जड़ते हुए मेरे सिर पर बड़े ही प्‍यार से हाथ फिराया…..ये अच्‍छी जगह नहीं है, फिर कभी यहां मत आना। उसकी आंखें डबडबाई हुई थीं। आंसू की दो बूंदें उसके गोरे गालों पर ढुलक आई थीं। बहुत से सवाल मेरी आंखों में भी थे और उसकी आंखें भी बहुत कुछ कहे जा रही थीं। मगर हम दोनों खामोश थे।
तभी ललित ने हाथ पकड़कर मुझे उस कोठरी से बाहर खींच लिया था…..अब यहीं खड़ा रहेगा या चलेगा भी।
फिर उन्‍हीं गलियों में होते हुए हम मूलगंज वापस आ गए थे, जहां से रिक्‍शा लेकर कानुपुर सेंट्रल स्‍टेशन पहुंचे। पूरे रास्‍ते मैं खामोश ही रहा। ल‍लित और अनिल आपस में बातें करते चल रहे थे। उन दोनों ने कब ट्रेन का टिकट लिया। हम कब ट्रेन पर सवार हुए। कब उन्‍नाव आया, मुझे कुछ नहीं पता। माथे पर उस लड़की के नर्म गुलाबी होंठों के चुंबन का अहसास अभी भी बरकरार था। उसके स्‍नेहिल स्‍पर्श ने मेरे पूरे वजूद को झकझोर कर रख दिया था। एक अलग तरह का सुकून था, उसके स्‍पर्श में। बिल्‍कुल वैसा ही जैसा मां के स्‍पर्श में होता है, लेकिन वह मां का स्‍पर्श तो नहीं था। ……तो फिर क्‍या था वह। ऊफमैने तो उसका नाम तक नहीं पूछा।
(क्रमश:)


Tuesday, July 3, 2018

दिल बोलता है



हां, ये सच है…..! दिल बोलता है…….बताता है, क्‍या गलत है और क्‍या सही। उस दिन मेरा भी बोला था, मगर जिज्ञासाओं के समंदर की लहरों के थपेड़े इतना शोर किए हुए थे कि दिल की आवाज उसमें कहीं दब सी गई थी। परवेज मुझे समझा रहा था- देख शहजादे, चप्‍पलों की फैक्‍ट्री तक इन्‍हीं गलियों से होकर जाना है। बीच में कहीं रुकना नहीं, मेरे पीछे-पीछे चलते रहना। कोई आवाज दे या फिर इशारा करे तो रुकना नहीं।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि परवेज मुझे इतना क्‍यूं समझा रहा है। आखिर ऐसा क्‍या है इस गली में। खैर, मैने भी सिर हिलाकर हामी भरी और परवेज के पीछे-पीछे हो लिया। मूलगंज की उन तंग गलियों में घुसते ही सस्‍ते सौंदर्य प्रसाधनों की गंध मेरे नथुनों से टकराई। गली के दोनों ओर छोटे-छोटे कोठरीनुमा कमरों जिन्‍हें लोग कोठे कहते हैं, के दरवाजों पर खड़ी लड़कियां और औरतें, हर आने जाने वाले को छेड़ रही थी……..अरे, आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया…..अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।
इसी तरह के और भी न जाने कितने अल्‍फाज मेरे कानों में पड़ते जा रहे थे और मैं तेज कदमों से परवेज के पीछे-पीछे लगभग दौड़ सा रहा था। मेरा दिल बहुत तेजी के साथ धड़क रहा था। इतना तेज मानो सीने के बाहर निकल पड़ेगा। कोठरियों के बाहर चबूतरों पर खड़ी लड़कियों के मुंह से निकलने वाली भद्दी गालियां और तमाम अश्‍लील इशारे।
उफ, यहां तो एक अलग ही दुनियां थी। किसी तरह, कई संकरी गलियों से होते हुए हम चप्‍पल बनाने वाली एक फैक्‍ट्री तक पहुंचे। रास्‍ते में, मैं तो पूरी तरह चुप रहा लेकिन परवेज पूरी तरह बिंदास, एकदम मस्‍ती के मूड में उन कोठेवालियों के फिकरों का जवाब देते ठहाके लगाते यहां तक पहुंचा। फैक्‍ट्री में घुसते ही चप्‍पलें बनाने में जुटे कारीगरों के काम करने से होने वाली आवाजों, और चमड़े की गंध ने मेरी तंद्रा भंग कर दी। परवेज मुझसे मुखातिब हुआ……क्‍यों शहजादे, आज देख लिया नजारा मूलगंज की रोटी वाली गली का। परवेज के इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं इतना डरा और सहमा हुआ था कि सबकुछ देखने सुनने के बाद भी ऐसा लग रहा था कि मैने कुछ भी नहीं देखा, कुछ भी नहीं सुना। मेरा गला सूख रहा था। फैक्‍ट्री में ही सामने रखे मिट्टी के एक बड़े घड़े से निकाल कर दो गिलास पानी पिया, तब जाकर राहत महसूस हुई। रास्‍ते के सारे दृश्‍य दिमाग में तूफान उठाए हुए थे। उधर परवेज चप्‍पलों को देखने और उनका मोल-भाव करने में लग गया था। तकरीबन एक घंटा हम इस फैक्‍ट्री में रहे। परवेज ने यहां से चार बोरी चप्‍पलें खरीदीं। वह खुश था……बहुत बढिया माल मिला है प्‍यारे। पंद्रह रुपये जोड़ी खरीदी हैं, पैंतीस रुपये में आराम से बेच डालूंगा…….एक रिक्‍शा तो पकड़ स्‍टेशन तक का……उसने मुझे इशारा किया। मैं फैक्‍ट्री से बाहर आया और एक रिक्‍शे वाले को रोका।
परवेज ने चप्‍पलों से भरे चारो बोरे रिक्‍शे पर लाद दिए और उन्‍हीं बोरों पर हम भी सवार हो गए। रिक्‍शा चला ही था कि उसने रिक्‍शे वाले को हांक मारी………शहजाद के होटल पर रोकना, कुछ खा पीकर चलेंगे। मैंने परवेज की ओर सवालिया नजरों से देखा तो उसने मुझे आश्‍वस्‍त किया……कबाब परांठे खिलाता हूं तुझे। क्‍या कबाब बनाता है, खा के देखना। मजा न आए पैसे वापस। उसके इस अंदाज पर मैं मुस्‍करा भर दिया।
शहजाद का होटल आ गया था। हम दोनों रिक्‍शे से उतरे और होटल में जाने लगे, तभी परवेज ने रिक्‍शे वाले को भी आवाज दी, अरे, तू भी आ न भाई, वहां क्‍यूं खड़ा है। छोड़ दे रिक्‍शा वहीं बाहर, कोई नहीं ले जा रहा सामान। रिक्‍शे वाला भी हमारे साथ होटल में अंदर आ गया। वह दूसरी टेबल पर बैठने लगा तो परवेज ने हाथ पकड़ कर उसे अपने पास बिठा लिया। अरे, यहां बैठ न हमारे साथ। और फिर हांक मारी…..शहजाद भाई, तीन प्‍लेट कबाब परांठे लगा दो, मगर जल्‍दी….ट्रेन छूट जाएगी। उधर गद्दी पर बैठे शहजाद ने भी सुर में सुर मिलाया…..अभी लाया भाई। अरे ओ फरीद……दो नंबर पे तीन कबाब परांठे लगा, बहुत जल्‍दी।
कबाब परांठे खाने के बाद हम कानपुर सेंट्रल रेलवे स्‍टेशन आ गए। चप्‍पलों के बोरे ट्रेन में लाद दिए गए। परवेज को सीधे लखनऊ जाना था और मुझे उन्‍नाव में उतर जाना था। ट्रेन चलने में अभी देर थी। परवेज प्‍लेटफार्म के एक किनारे पर खड़ा विल्‍स नेवीकट की सिगरेट फूंक रहा था और मैं वहीं एक बेंच पर बैठा था। रोटी वाली गली का माहौल अब भी मेरे दिमाग में घूम रहा था। रही कोठों की बात तो उस समय तक कोठों के बारे में मुझे उतना ही ज्ञान था, जितना फिल्‍मों में देखा था, लेकिन यहां तो कुछ और ही नजारा देखने को मिला। यही वजह थी कि सवाल पर सवाल मेरे किशोर मन को मथे जा रहे थे। इसी बीच ट्रेन चलने को हुई तो परवेज और मैं डिब्‍बे के अंदर आ गए। ट्रेन चल पड़ी लेकिन मैं पूरी तरह खामोश था। परवेज हमेशा की तरह जुआरियों की मंडली में जाकर बैठ गया था। बात-बात पर उसके ठहाके पूरे डिब्‍बे में गूंज रहे थे, और मेरे जहन में गूंज रहे थे रोटी वाली गली की  वेश्‍याओं के वो शब्‍द…… अरे, आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया…..अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।
ट्रेन उन्‍नाव जंक्‍शन पर रुकी तो मैने परवेज को हांक मारी। भाई परवेज चलता हुं मैं….!
परवेज ने भी वहीं जुआरियों के पास बैठे - बैठे हाथ हिला कर सहमति दी…….ठीक है शहजादे, फिर मिलते हैं।
उसे लखनऊ जाना था। मैं उन्‍नाव स्‍टेशन के प्‍लेटफार्म पर ट्रेन से उतरा तो शाम हो चुकी थी। सिर बहुत भारी-भारी सा लग रहा था। जैसे किसी ने एक बोझ सा रख दिया हो उसपर। पैदल-पैदल पूड़ी वाली गली, बड़ा चौराहा और छोटा चौराहा होते हुए मैं घर पहुंच गया था। मां ने पूछा भी…..कहां था पूरे दिन। इस सवाल का कोई जवाब नहीं था मेरे पास। मुंह हाथ धोकर बाहर के कमरे में एक किताब लेकर बैठ गया। पिता जी अंदर के कमरे में हमेशा की तरह बड़बड़ा रहे थे………कुछ करना धरना नहीं है इसे, दिन भर आवारा लड़कों के साथ घूमता फिरता है। घर में बिना कुछ किए धरे रोटी मिल जाती है। जब कमा के लाएगा तब पता चलेगा कि रोटी की कीमत क्‍या होती है।
पिता जी की आवाज हमेशा की तरह कानों में सीसा घोल रही थी। इस आवाज को सुन झुझला उठा था मैं। हुंह….इस घर में तो एक पल भी चैन से नहीं बैठ सकता….। हाथ में पकड़ी किताब को वही मेज पर पटकते हुए मैं कमरे से बाहर जाने लगा तो मां ने पीछे से आवाज दी……अरे, अब कहां जा रहा है…..कुछ खा तो ले।
नहीं खाना है मुझे….मैं गुस्‍से में पैर पटकते हुए फिर घर से बाहर आ गया था। मन बहुत अशांत था। आखिर, इस घर को तो छोड़ना ही होगा। मैं घर से चला जाऊं तो पिताजी पर कम से कम एक आदमी के खर्च का बोझ तो कम हो। मेरे कदम धीमे-धीमे तहसील के सामने वाले ढाबे की ओर बढ़ रहे थे, जहां शाम से ही भजन मंडली के लोग जमा होते थे….जैसे-जैसे ढाबा करीब आ रहा था, ढोलक और मजीरे की ताल पर भजनहारों की आवाजें सुनाई पड़ने लगी थीं….. मंगल भवन, अमंगल हारी, द्रवहु सो दशरथ अजर बिहारीरामा हो रामा। थोड़ी देर वहीं बैठा लेकिन मन बेचैन था, अंदर ही अंदर कुछ उबल सा रहा था। शायद यही वजह थी की बड़े अनमने मन से वहां उठा। शाम पूरी तरह ढल चुकी थी। अंधेरा हो गया था और मैं सड़क के किनारे किनारे यूं ही चला जा रहा था। न कोई मंजिल थी और न ठिकाना। बस, यूं ही चला जा रहा था।
देर रात घर लौटा तो, पिताजी सो चुके थे। मां ,जाग रही थी। उसने ही दरवाजा खोला था एक सवाल के साथ….कहां भटकता रहता है आधी आधी रात तकऔर मैं चुप। कोई जवाब न मिलता देख वह किचेन की ओर चली गई थी…..बैठ वहीं, खाना लाती हूं, खा ले, सुबह से यूं ही घूम रहा है।
मैं बाहर वाले कमरे में ही बैठ गया था और वह खाने की थाली टेबल पर रख कर पास ही खड़ी हो गई थी, मेरे सिर पर हाथ फिराते हुए। क्‍यूं परेशान होता। तेरे पिता जी तो बूढ़े हो गए हैं, इसी लिए हर समय कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। घर की हालत तो तुझे पता ही है। मैं खाना खाने की कोशिश करता हूं लेकिन दो चार कौर से ज्‍यादा नहीं खा पाता। अब भूख नहीं है मांमैं खाने की थाली मां के हाथ में थमा बाथरूम में चला जाता हूं। फिर कुल्‍ला करके आंगन में लगे अपने बिस्‍तर परअब तुम भी सो जाओ मां।
और फिर दिन भर की थकी हारी मां भी, थाली को किचेन में रख, अपने बिस्‍तर पर निढाल हो गई थी।
मैने भी चारपाई के पायताने पर रखी चादर सिर तक खींच ली थी। नींद तो आंखों से मीलों दूर थी। मूलगंज की रोटी वाली गली के वो दृश्‍य आंखों में तैर रहे थे। मैं अपने आप को उसे वेश्‍या के उन शब्‍दों से अलग नहीं कर पा रहा था….……..अरे, आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया…..अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।
(क्रमश:)