पहली कोपल
हिना पर रंग तो बहुत पिसने के बाद चढा। बीजारोपण हुआ मस्तों की नगरी वाराणसी के कबीर चौरा में। बीज में छुपे जीवन ने सिर उठाया। आजमगढ जिले की घोसी तहसील में एक नन्हा पौधा अपनी धरती से बाहर आया। नन्हीं नन्हीं अपनी दोनो भुजाओं को फैलाए हुए। मां और पिता के स्नेहिल गर्म सानिध्य से कोपलें फूटीं। नितांत निश्छल, निर्विवाद, निर्विकार। दुनियां के तमाम झंझावातों से बेखबर। एक वाक्य में कहूं तो प्यार ही प्यार बेशुमार.........। कहीं कोई कमी नहीं। वक्त अपनी रफ़तार से आगे बढता रहा। मां ने दुनियावी शब्द जंजाल से पहला परिचय कराया जो आम के बाग में लगने वाले प्राइमरी स्कूलों से गुजर कर कस्बों के स्कूलों का सफर तय करता हुआ कालेज तक पहुंचा। वह एक आदमी जिसके बारे में मां ने बताया था कि वह मेरा पिता है। जिसने हर पल अब तक किसी कवच की तरह मेरी रक्षा की थी अब बूढा हो चला था। उसके चौडे कंधे जिसपर सिर टिका कर मैने सुरक्षा के अहसास भरी न जाने कितनी नीदें ली होंगी, अब झुक गए थे। वह रिटायर हो गया था। घर चलाने के लिए मां पहले से सजग थी, इसी लिए उसने मेरे साथ ही साथ हाई स्कूल , इंटर और उसके बाद संगीत में प्रभाकर किया। अब वह एक स्कूल में संगीत की शिक्षिका थी। पूजा पाठ घर के काम और संगीत, बस वहीं उसकी दिनचर्या थी। मेरे अलावा एक बेटी और एक बेटे का भी बोझ था उनपर। बूढा बाप दिन भर अपनी पुरानी फाइलों में अपने फंड और बैंक की उन पुरानी पासबुकों को उठाता धरता रहता जिसमें पैसे के नाम पर कुछ भी नहीं था। क्यों कि उनकी जिंदगी का फलसफा ही खाओ पिओ ऐश करों मितरां वाला रहा। कल किसने देखा है वह अक्सर कहा करते थे। लेकिन जब, न खाओ, न पिओ, न ऐश करो की स्थिति हो, शरीर साथ न दे और सामने हो परिवार को चलाने की समस्या तो फ्रस्टेशन में लडने झगने के सिवा आदमी क्या करे..............।
मैं जानता हूं उनका कोई कुसूर नहीं था। मुझे साहित्य और अभिनय में रुचि थी। वह मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे। वह मेरे लिए जियोलाजी और बाटनी की किताबों का बंदोबस्त करते और में गोर्की, स्टालिन, हिटलर और टाल्सटाय को पढ रहा होता। वह मुझे साइंस क्विज में भेजते तो मैं आपने साथियों के साथ अपने नए शो के लिए होने वाले नाटक की रिहर्सल में पहुच जाता। साइंस की किताब के बीच कभी जब उन्हें तारशंकर वधोपाध्याय अथवा अमृता प्रीतम छुपी मिल जातीं तो वह बिफर उठते। यह लडका कुछ नहीं करेगा जिंदगी में। कुलीगीरी भी नसीब नहीं होगी इसे। अरे, हराम का माल नहीं है ये, तेरी मां पूरे दिन खटती है स्कूल में। मेरी पेंशन न मिले तो भूखों मरोगे सब के सब...................। किसी रात नाटक का शो होता और देर रात घर पहुचता तो पूरा घर सिर पर उठा लेते। हरामखोर, यह वक्त है घर लौटने का। पूरे दिन नचनिया, पदनिया बना घूमता है। न कोई काम न धाम। कहीं सब्जी का ठेला लगाता तो भी दो पैसे कमा कर लाता...................। उनके शब्द कानों में शीशे की तरह पिघलते थे उस वक्त।
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