सुबह-सुबह बादल का एक टुकड़ा न जाने कब आकर सिरहाने
पर बैठ गया, पता ही नहीं चला। बादल के उसी टुकड़े की ओट से
कभी-कभी सूरज बाहर झांकने की कोशिश करता तो मैं भी अपने बदन ही नहीं सिर को भी
चादर में लपेट लेता। ठंडी हवा के झोंके उस गुनगुनी धूप में एक अलग सा अहसास दे रहे
थे। आहटों से लग रहा था, पिताजी ऑफिस जा चुके हैं और भाई बहन
अपने स्कूल। मुझे भी लगा कि अब बिस्तर छोड़ ही देना चाहिए। इसी बीच किचेन से मां
की आवाज सुनाई दी…….अब उठ भी जा...सोता
ही रहेगा दिन चढ़े तक।
मां की आवाज के साथ ही मैने भी बिस्तर छोड़ा और
बाथरूम में घुस गया। नहा कर बाहर आया तो मेरे तैयार होने से पहले ही मां ने रात की
बची रोटी, सरसों का तेल और नमक चुपड़ कर एक प्लेट में मेरे सामने रख दी… आज नाश्ते में कुछ नहीं बनाया, इसे ही खा ले, वरना बरबाद जाएगी। साथ में एक प्याली चाय भी थी।
कपड़े पहनते पहनते चाय पी, तभी मां की झुंझलाहट भरी आवाज सुनाई दी….कितनी बार
समझाया है, ये गीला तौलिया बिस्तर पर मत रखा कर लेकिन किसी
बात पर ध्यान हीं नहीं देता। पता नहीं कहां दिमाग चलता रहता है इसका।
मुझे भी अपनी गलती का अहसास हुआ, शायद इसी लिए चुपचाप सिर झुकाए मैं अपनी डायरी और पेन उठा कर घर से बाहर
आ गया। पैदल पैदल कॉलेज की ओर जाते समय एक बार फिर रोटी वाली गली का खयाल जीवित हो
उठा….. अरे आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया….अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला। मैं अंदर ही अंदर तय कर लेता
हूं, एक बार तो उस गली में फिर जाना है। आखिर कौन से ऐसे
कारण होते हैं जब एक 20-22 साल की लड़की इतना बेशर्म हो जाती है। वो कौन सी और
कैसी मजबूरी होती है जब कोई लड़की अपने जिस्म को बेच कर दो वक्त की रोटी जुटाती
है। और भी तो बहुत से छोटे-बड़े काम हैं जिनसे रोटी कमाई जा सकती है, फिर जिस्म बेचने का धंधा ही क्यों। ऐसे ही न जाने कितने सवाल दिमाग को
मथ रहे थे। रेलवे क्रॉसिंग तक पहुंचा तो वहीं रामफूल की पान की दुकान पर ललित और
अनिल बवाली बैठे दिखे। मैं भी धीरे-धीरे उन्हीं के पास
पहुंच कर उनके बराबर में ही बैठ गया। ललित ने अपनी आधी पी हुई सिगरेट मेरी ओर बढ़ा
दी। सिगरेट में दो लम्बे-लम्बे कश मारकर मैने वो सिगरेट ललित को वापस लौटा दी।
कुछ राहत सी महसूस हुई। मैं इसी बीच ललित से मुखातिब हुआ….यार, एक बात बता……कभी कानपुर की रोटी वाली गली में गया
है।
हां,क्यों नहीं…मैं तो कई बार जा चुका हूं।
मैं भी एक बार वहां जाना चाहता हूं। तू चलेगा मेरे
साथ….मैने ललित की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।
हां…चल न, आज ही चलते हैं, आज तो पैसे भी हैं जेब में…ललित ने अपनी ऊपर की पॉकेट पर हाथ मारते हुए कहा।
अनिल बवाली भी हमारी इस योजना में शामिल हो गया।
फिर हम सबने अपनी अपनी जेबें टटोलीं। कुल मिलाकर हमारे पास ढाई सौ रूपये थे। इतने
में काम हो जाएगा। और फिर हम कॉलेज जाने के बजाय रेलवे लाइन के किनारे किनारे स्टेशन
के लिए चल पड़े। बालामऊ पैसेंजर के आने का टाइम था। स्टेशन पहुंच कर हमने तीन
टिकट लिए और ट्रेन का इंतजार करने लगे। ललित मुझे बता रहा था कि रोटी वाली गली में
कोठेवालियों से किस तरह मोल भाव करते हैं। और मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था।
वह बता रहा था कि किस तरह पुलिस वाले रोटी वाली गली में आने जाने वालों पर निगाह
रखते हैं और गली से बाहर निकलते ही उसे दबोच लेते हैं। फिर वेश्यावृत्ति का डर
दिखाकर उसके सारे पैसे ऐंठ लेते है। कुछ बदमाश कोठेवालियां भी ग्राहकों के सारे
पैसे छीन लेती हैं, क्योंकि ग्राहक सामाजिक लोक लाज
के डर से इस छीनाझपटी के बारे किसी को नहीं बताता।
ललित की बातें सुन-सुन कर मेरा दिल बहुत जोर-जोर से
धड़क रहा था। आसमान पर बादल थे। हवा भी ठंडी चल रही थी, लेकिन मेरे माथे पर पसीने की बूंदे साफ नजर आ रही थी। एक अजीब सी उहापोह
की स्थिति थी। मुझे ऐसी जगह पर जाना चाहिए या नहीं। पिता जी को पता चला तो क्या
होगा। कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए। लेकिन एक बार जाने और देखने में क्या हर्ज है।
इन कोठेवालियों की जिंदगी के बारे में कुछ पता तो चलेगा। हो सकता है किसी अच्छी
कहानी का आडिया मिल जाए।
यही सब सोचते विचारते ट्रेन आ गई और हम सब उसमें
सवार हो गए। सिर्फ आधे घंटे का सफर कर हम कानपुर सेंट्रल पहुंचे और वहां घंटाघर के
पास से रिक्शे की सवारी करते हुए मूलगंज। चौराहे से दायीं ओर मुड़ते ही किनारे पर
एक पुलिस चौकी थी, जिसके सामने से होते हुए हम आगे
बढ़े। यहां हमारे बाईं ओर कई पतली पतली गलियां थीं जिन्हें रोटी वाली गली ही कहते
हैं। यहां ललित अपनी चौकन्नी निगाहों से इधर उधर देखता हुए एक गली में घुसा तो हम
भी उसके पीछे हो लिए। उसकी हिदायत के मुताबिक हमने अपनी चाल थोड़ी धीमी रखी थी, ताकि चबूतरों के ऊपर बने कोठरीनुमा कमरों के बाहर खड़ी वेश्याओं को अच्छी
तरह से देख सकें।
ललित आगे आगे चल रहा था। मैं और अनिल उसके पीछे थे।
इसी बीच हल्की बूंदाबांदी भी शुरू हो गई थी, जिससे हमारे
कपड़े भीग रहे थे। मैने ललित से कहा भी, कि कहीं रुक ले, लेकिन उसका कहना था कि इन गलियों में ज्यादा देर रहना ठीक नहीं है।
नतीजतन, इन गलियों का पूरा एक चक्कर लगाने के बाद हम एक पान
की दुकान पर सिगरेट लेने के लिए रुके। तभी ललित ने मुझसे पूछा…..क्यों कोई पसंद आई क्या।
मुझसे जवाब नहीं बन रहा था। गलियों में हुए कीचड़
से उठती दुर्गंध, वेश्याओं और ग्राहकों के बीच होता
मोलभाव, इधर उधर से सुनाई देतीं भट्दी गालियों ने दिमाग को
कुंद कर दिया था। तभी ललित ने एक बार फिर पूछा….बता न कोई
पसंद आई क्या। इस सवाल पर एक बार फिर मैने दिमाग पर जोर डाला, तो याद आया। गलियों में घूमते वक्त एक कोठे के बाहर एक नेपाली सी दीखने
वाली लड़की नजर आई थी, उसकी उम्र यही कोई बीस से बाइस वर्ष
के आसपास रही होगी। हाइट मुश्किल से पांच फिट, गोरा चिट्टा, भोला सा आकर्षक चेहरा। आंखें ऐसी कि बिना बोले सबकुछ कह दें। सामने से
गुजरते समय उसने हमपर कोई जुमला नहीं उछाला था, और न ही कोई
छींटाकशी की थी। बस वह एक टक हमें देखे जा रही थी। उसकी आंखों में मुझे दुख, दर्द, याचना और मजबूरी जैसे न जाने कितने भाव नजर
आए थे। शायद यही वजह थी कि मैने ललित को उसके बारे में बताया। ललित भी अपनी सिगरेट
जलाते हुए मेरे आगे आगे चल दिया…..चल,
उसी से बात करते हैं।
हम दोबारा उस लड़की की कोठरी के सामने पहुंचे तो वह
अभी भी वहीं खड़ी थी। बारिश से भीगे कपड़ों में ठंडी हवा के झोंके कंपकपी पैदा कर
रहे थे। गली में चहल पहल भी पहले के मुकाबले कम हो गई थी। ललित ने लड़की के सामने
पहुंच उसे कुछ इशारा किया। उधर से जवाब आया तीनों का डेढ़ सौ रुपया। फिर मोल भाव
के बाद बात सवा सौ रुपये में पक्की हुई। ललित ने अपनी तेज निगाहों से इधर-उधर
देखा, फिर हमें उस लड़की कोठरी में चलने का इशारा कर वह कोठरी में घुस गया। मैं
और अनिल भी उसके पीछे-पीछे अंदर आ गए। छह गुणा आठ फिट की उस कोठरी में चालीस वाट
के बल्ब की रोशनी थी। सामान के नाम पर एक किनारे चारपाई पड़ी थी। उसी के बराबर
में बैठने के लिए दो स्टूल रखे थे। चारपाई के नीचे एक टिफन और कुछ बरतन नजर आ रहे थे। हमारे कोठरी
में घुसते ही उसने उसके दरवाजे अंदर से बंद कर लिए थे। उस वक्त तक मैं ठंड कांप
रहा था। लड़की ने मुझे कांपते देखा तो वह अपने उसी नेपाली लहजे में बोली….चाय मंगा लेते हैं, तुमलोग बहुत भीग गए हो।
उसके इस प्रस्ताव पर मैंने भी सहमति में सिर
हिलाया। तभी उसने कोठरी का दरवाजा थोड़ा सा खोलकर उसमें से झांकते हुए किसी को
आवाज मारी……ओए अब्दुल, चार चाय भेज जल्दी।
फिर उसने कोठरी का दवाजा अंदर से बंद कर लिया और हमसे मुखातिब हुई…..किधर से आया तुम लरका लोग।
जवाब ललित ने दिया…..किदर से
आया, तुझे क्या, अपने काम से काम रख।
ललित के इस जवाब पर लड़की का खिला हुआ चेहरा उतर सा
गया। मैं कुछ बोलना चाहता था लेकिन गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी। अगले ही पल
लड़की का चेहरा भी सख्त हो गया……चलो काम शुरू करो, कौन आएगा पहले।
मैने देखा, ललित बड़ी तेजी
के साथ अपने कपड़े उतार रहा था। उसने अपने कपड़े वहीं दरवाजे के पीछे लगी कीलों पर
टांग दिए। अब वह सिर्फ अंडरवियर में था। लड़की ने उसे लाइट बंद करने इशारा किया और
खुद चारपाई जाकर लेट गई। अंधेरे में जो कुछ भी हो रहा था उसे ललित और उस लड़की की
सांसों की आवाज से समझा जा सकता था। मुश्किल से पांच मिनट बाद ही ललित ने चारपाई
से उठकर लाइट जला दी। लड़की भी अपने कपड़े समेटती उठ खड़ी हुई। इसी बीच दस्तक हुई
तो लड़की ने दरवाजे को थोड़ा सा खोलकर चाय का छीका पकड़ लिया और फिर दरवाजा अंदर
से बंद कर लिया। हम चारो चाय पीने में लग गए। ललित ने इस दौरान अपने कपड़े पहन लिए
थे। कोठरी में पूरी तरह खामोशी पसरी हुई
थी। सब चुप थे। मैं बोलना चाहता था, पूछना चाहता था उस लड़की
से उसका नाम, पता, उसकी कहानी, लेकिन ऐसा लग रहा था कि किसी ने गला दबा रखा है,
हाथ पैरों को लकवा मार गया है। बाहर बारिश तेज हो गई थी।
चाय खत्म हुई तो लड़की ने मुझे चारपाई पर आने का
इशारा किया, लेकिन मेरे तो जिस्म में जैसे जान ही न थी।
तभी अनिल उठ खड़ा हुआ। एक बार फिर कोठरी की लाइट पांच मिनट के लिए बंद हुई। इस बार
जब लाइट जली तो लड़की चारपाई से उठी नहीं। उसने मुझे अपने पास आने का इशारा भर
किया। मेरी ओर से कोई क्रिया न होते देख उसने मेरा एक हाथ पकड़ अपनी ओर खींच लिया।
मैं भी एक जिंदा लाश की तरह उसे ऊपर जा गिरा। उधर अनिल ने लाइट बंद कर दी। वह मेरे
कपड़े उतार रही थी और मैं पूरी तरह बेजान, निढाल। उसने
फुसफुसाते हुए पूछा…..पइली टेम आया इदर….डर लग रहा है।
जवाब में मैं सिर हिलाने तक की हालत में भी नहीं
था। धड़कनें इतनी बढ़ी हुई थीं कि बता नहीं सकता। बस, मैं उससे लिपटा हुआ यूं ही पड़ा रहा। वह मेरे शरीर को धीरे धीरे सहला रही
थी। मेरे बालों में उंगलियां फिरा रही थी। लगभग दस मिनट तक हम यूं ही पड़े रहे।
तभी अंधेरे में ललित की आवाज सुनाई दी…..अबे क्या कर रहा है, अब छोड़ भी दे उसे। मैं भी ललित की आवाज सुनकर चारपाई से उठ गया और लाइट
जला दी। लड़की भी चारपाई से उठ खड़ी हुई थी। ललित उसे पैसे दे रहा था। एक सौ
पच्चिस रुपये सौदे के और बीस रुपये चाय के। रुपये लेते समय लड़की की आंखों में एक
अलग तरह की चमक थी। रुपयों को उसने अपने माथे से लगाया और फिर वही किनारे रखी टीन
की पेटी में डाल दिया……आज सुबह से अबतक का पहला कमाई है ये…मौसम खराब हैं न, तभी कोई ग्राहक नहीं आया। पैसा
रखने के बाद उसने कोठरी के दरवाजे की झीरी बना इधर उधर देखा और हमे बाहर जाने का
इशारा किया। ललित और अनिल तेजी से कोठरी से बाहर निकल गए। मैं भी बाहर जाने वाला
था तभी उसने बांह पकड़कर मुझे अपनी ओर खींचा और मेरे माथे पर एक चुंबन जड़ते हुए
मेरे सिर पर बड़े ही प्यार से हाथ फिराया…..ये अच्छी जगह नहीं
है, फिर कभी यहां मत आना। उसकी आंखें डबडबाई हुई थीं। आंसू की
दो बूंदें उसके गोरे गालों पर ढुलक आई थीं। बहुत से सवाल मेरी आंखों में भी थे और उसकी
आंखें भी बहुत कुछ कहे जा रही थीं। मगर हम दोनों खामोश थे।
तभी ललित ने हाथ पकड़कर मुझे उस कोठरी से बाहर खींच
लिया था…..अब यहीं खड़ा रहेगा या चलेगा भी।
फिर उन्हीं गलियों में होते हुए हम मूलगंज वापस आ गए
थे, जहां से रिक्शा लेकर कानुपुर सेंट्रल स्टेशन पहुंचे। पूरे रास्ते मैं खामोश
ही रहा। ललित और अनिल आपस में बातें करते चल रहे थे। उन दोनों ने कब ट्रेन का टिकट
लिया। हम कब ट्रेन पर सवार हुए। कब उन्नाव आया, मुझे कुछ नहीं
पता। माथे पर उस लड़की के नर्म गुलाबी होंठों के चुंबन का अहसास अभी भी बरकरार था।
उसके स्नेहिल स्पर्श ने मेरे पूरे वजूद को झकझोर कर रख दिया था। एक अलग तरह का सुकून
था, उसके स्पर्श में। बिल्कुल वैसा ही जैसा मां के स्पर्श
में होता है, लेकिन वह मां का स्पर्श तो नहीं था। ……तो फिर क्या था वह। ऊफ…मैने तो उसका नाम तक नहीं पूछा।
(क्रमश:)