गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

शिक्षक कौन...............
शिक्षक सिर्फ वही नहीं होते जो स्‍कूलों और कालेजों में हमें किताबी ज्ञान देते हैं। वह शिक्षक मेरी नजर में ज्‍यादा सम्‍मान के योग्‍य हैं जो दुयावी जिंदगी में हमें जीवन के संघर्ष पथ पर आगे बढने की प्रेरणा देते हैं। राह दिखाते हैं। ऐसे ही एक शिक्षक का जिक्र यहां करना चाहूंगा जो मुझे एक कवि गोष्‍ठी में दोस्‍त की शक्‍ल में मिले। नाम है कमल किशोर सक्‍सेना। एक दौर था जब कानपुर उन्‍नाव और लखनऊ के आस पास के क्षेत्रों में प्रतिष्ठित व्‍यंगकार के रूप में केपी सक्‍सेना के बाद अगर कोई नाम पहचाना जाता था तो वह कमल किशोर सक्‍सेना का नाम था। दैनिक जागरण और दिल्‍ली प्रेस की पत्रिकाओं में वह नियमित रूप से छपते थे। चूंकि उस समय तक मेरी कोई रचना कहीं नहीं छपी थी और न ही मुझे रचनाओं के प्रकाशन की प्रक्रिया और तौर तरीके पता थे, इस लिए मैं अपनी जानकारी बढाने के लिए वाकवि गोष्‍ठी से लौटते वक्‍त उनके साथ हो लिया। सर्दियों के दिन। उस रात उन्‍नाव शहर का वह बडा चौराहा घने कोहरे में डूबा हुआ था। रात के 12 बजे थे, मगर चौराहे पर पूरी रौनक थी। कई रिक्‍शे वाले चौराह के एक कोने पर बनी चाय की दुकान पर लगी पत्‍थर के कोयले की अंगीठी के आस पास चिपके हुए थे। वहीं कुछ लोग मैनपुरी तंबाकू की दुकान पर जमा थे। तंबाकू की एक फंकी के बाद ऐसी ठंड में उसकी गर्मी से माथे पर आने वाला पसीना सचमुच बडा सुकून देता था। तंबाकू खाना नुकासानदेह है यह जानते हुए भी यह शगल हमने भी पाला हुआ था। चाय वाले को दो चाय का आर्डर देकर मैं भी तंबाकूवाले की तरफ बढा। मैने कमल जी से पूछा......आप भी खाते हैं मैनपुरी ? उन्‍होंने इनकार में सिर हिलाया और कघे पर लटक रहे अपने खादी के झोले से चमन बीडी का एक बंडल और माचिस निकाल ली। मैं तो यह पीता हूं। तुम भी पिओगे। मैन भी उनसे राब्‍ता कायम करने की गरज से हामी भर दी और वहीं चाय वाले के सामने पडी बेंच पर उनके पास बैठ गया। उन्‍होने बीडी जला कर मुझे दी और खुद एक गहरा कश लेकर ढेर सारा धुआ उगल दिया। मैने भी एक लंम्‍बा कश मारा तो खांसी उठ पडी। सचमुच माथे पर पसीना आ गया। वह हंसे। पहली बार पी है। ........न नहीं। सिगरेठ पीता रहा हूं। यह जरा हार्ड है।
इस तरह बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। वह बता रहे थे। किस तरह अपनी रचना को एक फुल स्‍केप साइज पेपर पर कम से कम डेढ इंच हाशिया छोड कर साफ साफ लिखना चाहिए और उसके साथ संपादक के नाम एक पत्र जिसमें यह लिखा हो कि यह रचना आप की मौलिक अप्रकाशित और अप्रसारित है। इसके साथ ही रचना के प्रकाशन का अनुरोध किया जाना चाहिए। उन्‍होंने यह भी बताया कि रचना और इस पत्र के साथ एक खाली लिफाफा जिसपर आपका पता लिखा हो और टिकट लगा है साथ में नत्‍थी करना चाहिए ताकि अगर आपकी रचना का उपयोग संबंधित पत्र अथवा पत्रिका में न हो पाए तो वह आपको वापिस मिल सके।
इस तरह वह पूरी प्रक्रिया मुझे समझा रहे थे और मै अंदर ही अंदर सपने बुनने लग गया था। इस बीच चाय भी आकर उदरस्‍थ हो चुकी थी। रात के तीन बज रहे थे। हम उठ खडे हुए। अच्‍छा तो चलें ओपी..............। उन्‍होंने मेरी तरफ हाथ बढाया तो मैने भी झिझकते हुए अपना हाथ उनकी ओर बढा दिया। झिझक इस लिए कि मेरे सामने क्षेत्र का एक चर्चित व्‍यंग्‍य लेखक खडा था। मैं थोडा असहज था लेकिन वो पूरी तरह सहज। बोले मिलते रहना...........। मैने कहा अगर आपको असुविधा न हो तो मैं कल दिन में आपके घर आ जाऊं। हां हां क्‍यों नहीं। उन्‍होंने सहमति व्‍यक्‍त की और हम एक दूसरे की विपरीत दिशा में चल पडे। दरअसल शहर के एक छोर पर मेरा घर था तो दूसरे पर उनका।
उस रात भले ही हम विपरीत दिशा में चले हों लेकिन अंतरमन से मैं उनके साथ रहा। घर पहुंच कर भी नींद नहीं आई। कालेज के लिए तैयार हुआ और कदम खुद ब खुद कमल के घर की ओर चल पडे। वहां पहुंचने पर कमल ने मेरा बडी ही गर्मजोशी से स्‍वागत किया। लगा ही नहीं कि यह हमारी दूसरी मुलाकात है। उन्‍होंने अपनी मां पिता और भाई से मिलवाया। मां ने चाय बनाई तो हम अपना अपना प्‍याला पकड कर छत पर बने कमरे में आ गए। यह कमल का कमरा था। आवास विकास से पहले रेलवे लाइन के किनारे बना कमल का यह घर अभी नया ही था। दीवारो पर प्‍लास्‍टर नहीं था। फर्श पर ईंटें बिछी थीं। बिजली का कनेक्‍श भी नहीं था। कमल ने बताया कि उनके पिता जी ने अपने पूरे जीवन की कमाई में धीरे धीरे यह घर बनया। अब कुछ पैसे इकट़ठे होंगे तो बिजली का कनेक्‍शन लेंगे।
इसी तरह बात करते हुए हम वहां पडी एक चारपाई पर बैठ गए। चारपाई के पास ही एक स्‍टूल पर कमल का राइटिंग पैड और एक कांच के गिलास में कुछ पेन पेंसिल रबर आदि लिखने का सामान रख था। एक आलमारी में कुछ किताबें और फाइलें रखीं थीं। कमल ने मुझे अपनी प्रकाशित रचाओं को कलेक्‍शन दिखाना शुरू किया। दैनिक जागरण , स्‍वतंत्र भारत, साप्‍ताहिक सुमन, सरिता, मुक्‍ता आदि कितनी ही पत्रिकाओं में उनके व्‍यंग्‍य छपे थे। आल इंडिया रेडियों के सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम हवामहल में उनकी लिखी हास्‍य नाटिका सस्‍ते दामाद की दुकान उस समय खूब चर्चा में थी। मैने उनसे पूछा.....अच्‍छा यह बाताइये कि लिखते समय विषयों का चयन कैसे करते हैं। उनका सीघा सा कहना था कि आप जिस जिस पत्र अथवा पत्रिका के लिए लिखना चाहते हैं पहले उसे पूरी गंभीरता के साथ लगातार पढें ताकि आपको उसकी मांग के बारे में पता चल सके। प्रोफेशनल राइटिंग का यही एक आसान तरीका है। इसके अलावा लेखन के विषय अगर सम सा‍मयिक हों तो ज्‍यादा बेहतर होगा। सिर्फ इतना ही नहीं छपने के लिए नियमित लिखने की आदत भी बहुत जरूरी है।
उन्‍होंने बताया कि लेखन की दुनियां में पैर जमाने के लिए यह जरूरी है कि एक लक्ष्‍य बनाएं कि रोज कम से कम तीन या चार रचनाएं विभिन्‍न पत्र पत्रिकाओं को भेजें। आम तौर पर नवोदित रचनाकारों की रचनाओं को प्रतिष्टित पत्र पत्रिकाओं के संपादक उतना तरजीह नहीं देते, लेकिन अगर हर रोज आपकी एक रचना उसकी टेबल पर पहुंचेगी तो कभी न कभी वह उसे देखने को मजबूर होगा। जिस दिन उसने आपकी रचना को देखा और एक रचना भी उसे क्लिक कर गई तो समझो बात बन गई। इसके साथ ही लगातार लिखने से आपके लेखन में पैनापन भी आता जाएगा..............। इस प्रकार बातों का यह सिलसिला पूरे दिन इसी तरह चलता रहा। मैने खाना भी वहीं खाया और रात दस बजे घर लौटा तो ऐसा लगा जैसे कालेज में एक लंबी क्‍लास अटेंड करके लौटा हूं।

(यहां प्रस्‍तुत मेरी एक प्रकाशित रचना दोस्‍त एवं बडे भाई कमल किशोर सक्‍सेना को समर्पित है)

अमिट हस्‍ताक्षर
हमें
बार बार क्‍यों कुरेदते हो तुम ?
क्‍यों देते हो / ऐसी
अनर्गल शिक्षा।
क्‍यों जोर देते हो.........
इस बात पर
कि मैं,
राम कष्‍ण गांधी
बु्द्ध ईसा नानक
मोहम्‍मद या अंबेडकर के
पद चिन्‍हों पर चलूं।
नींद से जागो / सोचो
यही पद चिन्‍ह
हमारे वर्तामान की ठोकरें हैं।
पल पल
भूत होता होता
हमारा वर्तमान
उलझा पडा है
इन्‍हीं ठोकरों में।
अस्‍तु / हमें
किसी का प्रतिरूप
बनने की शिक्षा मत दो।
दूसरों के पद चिन्‍हों पर
चलने को मत कहो।
हमें / स्‍थापित करने दो
जीवन की
नई परिभाषाएं
जीवन के
नए मूल्‍य
बिल्‍कुल मौलिक...............।
ताकि / हो सकें
इतिहास के पन्‍नों पर
हमारे भी..............
अमिट हस्‍ताक्षर
*********
(3 मार्च 1996 के अमर उजाला में प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

indianrj ने कहा…

हमें / स्‍थापित करने दो/ जीवन किनई परिभाषाएं/ जीवन के नए मूल्‍य
बिल्‍कुल मौलिक...............।/ताकि / हो इतिहास के पन्‍नों पर
हमारे भी..............अमिट हस्‍ताक्षर"
क्या बात है. बहुत ही सुंदर लिखा है.