Tuesday, December 30, 2008


सही रास्‍ते का चुनाव

जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं जब सामने कई रास्‍ते होते हैं और व्‍यक्ति को यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि वह किस रास्‍ते पर कदम बढाए। ऐसा ही कुछ उस दिन मेरे साथ भी था जब मैं कमल के साथ कानपुर जाने के लिए ट्रेन में सवार हुआ था। घर से स्‍टेशन आते समय रास्‍ते में मेरे द्वारा लिखे गए बालगीतों की तारीफ सुन कर मैं खुश तो जरूर हुआ था लेकिन अंतरमन में कहीं एक द्वंद चल रहा था। द्वंद इस बात को लेकर था कि कमल से मुलाकात के बाद से मेरा रोज देर रात तक घर से बाहर रहना, घर पर रहने के दौरान पढाई की किताबों को छोड कविताएं और कहानियां लिखते रहना पिता जी को बहुत नागवार गुजर रहा था। वह हमेशा बडबडाते रहते थे। उनकी चिंता इस बात को लेकर थी कि अगले ही साल उनका रिटायरमेंट था। बहुत सी उम्‍मीदें सजों रखीं थीं उन्‍होंने मुझसे। वैसी ही उम्‍मीदें जैसी कि हर बाप अपनी औलादों से करता है। चूंकि मैं अपने तीन भाई बहनों में सबसे बडा था इस लिए उनका मुझसे उम्‍मीद करना जायज भी था.......लेकिन अफसोस, मैं उनकी उम्‍मीदों पर खरा नहीं उतरा। वह अलग बात है कि मैने कालांतर में उनके द्वारा छोडी गई सभी जिम्‍मेदारियों को भली भांति निभाया लेकिन मेरा वह बूढा बाप मेरी ओर से पूरी तरह निराशा में लिपटा हुआ ही इस दुनिया से चला गया। कचहरी में काम करने वाला वह मामूली क्‍लर्क बेटों को डाक्‍टर और इंजीनियर बनाने का बडा सपना संजोए था और बेटा , यानीकि मैं, कुछ और ही ठाने बैठा था।
वैसे देखा जाए तो शुरू में सब ठीक ठाक चला। हाई स्‍कूल तक मैं बहुत अच्‍छा स्‍कालर रहा लेकिन उसी दौरान मेरी एक छोटी बहन की पैदाइश और उसकी बीमारी को लेकर होने वाली भाग दौड और खर्च ने जहां पिताजी को तोड कर रख दिया वहीं मैं भी स्‍कूल में गलत संगत में पड गया। एक ओर मां और पिताजी मेरी उस छोटी बहन को लेकर डाक्‍टरों के चक्‍कर लगाते फिरते थे वहीं मैं स्‍कूल में कुछ बदमाश लडकों की संगत में स्‍कूल बंक कर फिल्‍में देखने और गांजा व चरस जैसे नशों के फेर में पड गया था। पूरे एक साल हजारों रुपए फूंकने के बाद भी मेरी छोटी बहन जीवित नहीं बची। चूंकि मेरे पिताजी की दुनियां कचहरी और घर के सिवा कुछ भी नहीं थी, शायद इसी लिए जब मेरी वह छोटी बहन मरी तो उसके शव को घर से गंगाघाट तक लेकर जाने के लिए मेरे और पिताजी के सिवा कोई नहीं था। उस मासूम बच्‍ची की लाश को अपनी दोनों बांहों में उठाए पिताजी और मैं टैंपो पकड कर उन्‍नाव से शुक्‍लागंज के गंगा घाट पर गए थे और पंडे ने मेरी उस बहन के शव को एक बडे पत्‍थर से बांध कर गंगा में प्रवाहित कर दिया था। मैं रो रहा था। पिता जी मुझे समझा रहे थे। रोते नहीं बेटा , मैं तुम्‍हारे लिए दूसरी बहन ला दूंगा। मैं लगातार रोए जा रहा था। पिताजी ने भी अपने आंसू आंखों में समेट रखे थे। शायद इस लिए कि मुझ पर उसका बुरा असर न हो। यह वह घटना थी जिसने मेरे मन में एक बात बडी ही गहराई से उतार दी कि व्‍यक्ति को सा‍माजिक होना चाहिए। अगर मेरे पिता जी का कोई सोशल सर्किल होता तो हमें बहन के शव को गंगा में प्रवाहित करने के लिए अकेले नहीं जाना होता। ऐसे जीने से भी क्‍या फायदा कि पैदा हुए ,खाया, पिया, बच्‍चे पैदा किए और मर गए। कुत्‍ते- बिल्लियों की तरह। लानत है ऐसी जिंदगी पर।
शायद यही कारण था कि स्‍कूल में मेरा सर्किल बहुत बडा था। बस एक ही बात थी दिमाग में हमे ऐसा कुछ करना है जिससे कि दुनियां हमें जाने। वह अलग बात है कि अच्‍छे और बुरे में अंतर करने की सलाहियत न होने के कारण मेरे स्‍कूल के सर्किल में दोनों तरह के लोग मुझसे जुडे। संगीत और अभिनय में मेरी रुचि थी सो स्‍कूल में अनिल बवाली मेरा अच्‍छा दोस्‍त था। किशोर कुमार के गाने वह बिल्‍कुल उन्‍हीं की आवाज में गाता था। वह एक हलवाई का बेटा था। अनिल के साथ ही ललित , पूर्णेंदु , कमल किशोर शर्मा और दिलीप लाला भी मेरे दोस्‍त थे।
उधर घर में आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। पैसे न मिलने के कारण इंटरमीडिएट में मैं अपने जूलोजी प्रेक्टिकल की फाइल तक नहीं बना पाया था। किसी तरह मांग जांच काम चलाया। इम्‍तहान हुए लेकिन घर की परेशानियों और वैचारिक उथल पुथल के बीच नतीजा यह निकला कि मैं इंटरमीडिएट में फेल हो गया।
रिजल्‍ट देख कर पिता जी का पारा सातवें आसमान पर था। उन्‍होंने घोषणा कर दी कि अब वह मुझे और आगे नहीं पढा सकते। बस , एक ही ताना था कि जैसे भी हो कुछ कमाओ। कुछ नहीं तो कम से कम अपना खर्च तो निकालो। आखिर दो बच्‍चे और भी हैं घर में। जो भी जमा पूंजी थी उसे तुम्‍हारी बहन के इलाज में खर्च कर चुका हूं मैं। सोचा था कि बेटा बडा होगा तो सहारा देगा और एक यह पैदा हुआ है हमारे घर में जिसे नाटक ड्रामों से ही फुरसत नहीं है। कम से कम ग्रेजुएशन तो कर लेता तो डीएम साहब से हाथ पांव जोड कर क्‍लर्क ही लगवा देता.......लेकिन यह हरामखोर तो इंटर भी नहीं कर पाया। .........अरे कायस्‍थों के घर में जन्‍म लिया है.......पढे लिखेगा नहीं तो क्‍या भीख मांगेगा......ऐसों को तो कोई भीख भी नहीं देता। पिता जी धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। मां, घर के एक कोने में अपनी साडी के पल्‍लू में सिर छुपाए सुबक रही थी। दोनों भाई बहन सहमे हुए से आंखों में आंसू भरे चारपाई पर बैठे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्‍या हो रहा है।
उधर मैं..दुखी भी था और पिता की बातों को लेकर गुस्‍से में भरा हुआ भी। अंतरमन में कहीं कोई संकल्‍प जन्‍म ले रहा था क्‍योंकि मैं और पिता जी , दोनों एक दूसरे की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे थे। अपेक्षाएं हमेशा दुख का कारण बनती हैं। सुखी रहना है तो अपेक्षाओं को त्‍यागना होगा।
मुझे नहीं पता कि पिताजी ने मुझसे अपनी अपेक्षएं त्‍यागीं या नहीं लेकिन उस दिन से ही मैने उनसे की जाने वाली सारी अपेक्षाएं त्‍याग दी थीं। भूल गया था मैं, कि मुझे डाक्‍टर बनना है। सीपीएमटी की तैयारी करनी है। बस एक ही लक्ष्‍य था कि पैसे और नाम कमाना है। पैसे ,कम से कम इतने कि जिससे मैं अपनी पढाई और अपना खर्च उठा सकूं। पिता पर बोझ न बनूं। नाम, कम से कम इतना कि मरूं तो मेरे शहर के लोग तो जानें ही कि कोई शख्‍स था जो मर गया। ........................मैं बडी ही खामोशी के साथ पिताजी को बडबडाता छोड कर घर से बाहर आ गया।
शाम का वक्‍त था......हमेशा कि तरह स्‍कूल के सभी दोस्‍त स्‍कूल के पास वाली रेलवे क्रासिंग पर रामफूल पान वाले की दुकान पर जमा थे। पूर्णेदु और दिलीप लाला गांजे की सिगरेट भरने में लगे थे। अनिल बवाली और ललित अलग खडे आपस में बाताचीत कर रहे थे। मुझे देखते ही दिलीप ने आवाज दी। आ जा यार ओपी। इस बार रिजल्‍ट बहुत खराब रहा........।
हां......मैने सहमति में सिर हिलाया।
लेकिन, यार तू हिंदी में कैसे फेल हो गया...तेरी तो हिंदी बहुत अच्‍छी है ?
पता नहीं यार......मैने एक गहरी सांस भरी। सिगरेट भर रहा है क्‍या...मैने पूछा तो दिलीप ने गांजे से भरी एक सिगरेट मेरी ओर बढा दी.......ले यार, तू भी गम गलत कर ले।
मैने दिलीप से सिगरेट लेकर जलाई और अभी आया कह कर वहीं कुछ दूर खडे अनिल बवाली और ललित की तरफ बढ गया।
यार अनिल मुझे कुछ बात करनी है तुझसे.....................मैं अनिल से मुखातिब हुआ।
तब तक गाडी कानपुर सेट्रल के प्‍लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी और कमल मुझे कंधे पकड कर हिला रहा था। कहां खो गए ओपी.......कानपुर आ गया। आओ चलते हैं।
मैं अचानक चौंक कर उठा था.......हां, आओ चलते हैं।
(क्रमश:)

लघु कथा

क्‍योंकि........?

‘अ’ एक जानवरों का व्‍यापारी है। उसकी बकरी ने एक बच्‍चा दिया है।
‘अ’ खुश है क्‍योंकि.......?
‘ब’ एक (?) है। उसके घर एक बच्‍चा हुआ है। वह खुश है क्‍योंकि...?
‘अ’ अपनी बकरी के बच्‍चे की दिनरात सेवा करता है क्‍योंकि.........?
‘ब’ अपने लडके को खिलाता पिलाता, पढाता लिखाता व प्‍यार करता है क्‍योंकि....?
‘अ’ की बकरी का बच्‍चा अब बडा व तंदरुत हो गया है। ‘अ’ खुश है क्‍योंकि.........?
‘ब’ के लडके न एमबीबीएस कर लिया है। वह डाक्‍टर बन गया है।
’ब’ खुश है क्‍योंकि.......?
‘अ’ बाजार में सीना फुला कर खडा है और उस बकरे की बारह सौ रुपये कीमत मांग रहा है क्‍योकि.......?
(नीलामी पूरे शाबाब पर है)
‘ब’ अपने डाक्‍टर लडके के लिए लडकी वालों से साठ हजार रुपए दहेज मांग रहा है क्‍योंकि...............?
(नीलामी पूरे शाबाब पर है)
बकरी का बच्‍चा जो अब अच्‍छा खास बकरा है, सब कुछ देख रहा है, मगर चुप है क्‍योंकि..............?
लडका जो अब डाक्‍टर है, सब कुछ देख रहा है, मगर चुप है क्‍योंकि......?
वह एक निरीह पशु है !
वह एक निरीह (?) है।
(सारिका के 1-3-1982 के अंक में प्रकाशित)

लघु कथा

रोटी
गंदली नालियों के किनारे बसी टूटे फूटे मकानों की उस झोपड पट्टी में बुधुवा के घर दो दिनों से चूल्‍हा नहीं जला था। बुधुवा का वर्षीय बच्‍चा कलुआ मारे भूख के दरवाजे पर खडा रो रहा था। घर के सामने कूडे के ढेर पर कुछ कुत्‍ते अपने पंजों से कुछ खोदने में जुटे थे।
अचानक नन्‍हें कलुआ की निगाह कूडे के ढेर में किसी चीज पर जाकर अटक गईं और उसके छोटे छोटे पांव उस कूडे के ढेर की ओर बढ चले। कलुआ को देख कूडे के ढेर पर उछल कूद मचाते कुत्‍ते एक ओर हट कर खडे हो गए। कलुआ ने कूडे के ढेर से एक सूखी हुई धूल सनी रोटी, जिसे देख कर वह वहां आया था, अपने हाथों में उठा ली और उसे बडे चाव से खाने लगा। तभी एक कुत्‍ते ने आश्‍चर्य से उसे देखते हुए कहा- ऐ..तुम तो आदमी के बच्‍चे हो, तुम यह कूडे के ढेर में पडी धूल सनी रोटी क्‍यों खा रहे हो। तुम्‍हें तो अच्‍छी रोटी मिलनी चाहिए।
यह सुनकर कलुआ ने उस गंदी रोटी को एक बार ि‍फर गौर से देखा और उसी चाव से उसे खाते हुए वहां उसकी ओर देख रहे कुत्‍तों को घूरने लगा। मानो कह रहा हो- तुम कुत्‍ते हो न, इस लिए यह बात समझते हो।

(दैनिक जागरण के 28-7-1985 के अंक में प्रकाशित)

व्‍यंग्‍य

सिर्फ चारे का सवाल है बाबू

आप मानें या न मानें चारा है बडे काम की चीज। खास कर आज के दौर में इसकी महत्‍ता के विषय में ‘बिन चारा सब सून ’ जैसी कहावत का प्रयोग अतिशयोक्ति न माना जाएगा।
जरा गौर से देखें तो पत्‍ता-पत्‍ता, बूटा-बूटा चारे के हाल से वाकिफ मिलेगा। कहीं कर्मचारी अधिकारी को चारा डालता मिलेगा तो कहीं चतुर अनाडी को अक्‍सर यह भी सुनने में आता ही रहता है कि अमरीका हिंदुस्‍तान सहित पाकिस्‍तान और दूसरे देशों को चारा डाल रहा है।
कसम हिंदुस्‍तान के काल्‍पनिक समाजवाद की यहां तो हर तरफ चारा ही चारा है और शायद यही कारण है कि मुझे हिंदुस्‍तान में रह कर छज्‍जू मियां के घुडसाल की याद बहुत आती है। कसम से......वहां भी चारो तरफ चारा ही चारा होता था, लेकिन एक अच्‍छाई थी कि मियां की घुडसाल से निकले कि चारावाद समाप्‍त, मगर यहां तो पीछा ही नहीं छोडता कमबख्‍त। नजर उठाई कि बस चारा। लगे पडे हैं लोग, जैसे हिंदुस्‍तान में चारा डालने के सिवा कोई काम बचा ही नहीं है।
स्‍कूल में जाओ तो छात्र अध्‍यापक को चारा डालते मिलेंगे। व्‍यापारीगण सीमेंट का प‍रमिट और राशन का कोटा पाने के लिए चारेबाजी में ऐसा मस्‍त होते हैं कि कृष्‍ण की बांसुरी में गोपियां भी उतना मस्‍त न होती होंगी। इतने से ही मामला रफा दफा हो जाए तो भी गनीमत, मगर यहां तो इश्‍क और मुश्‍क में भी चारे का ही बोलबाला है। बनन में बागन में बगरो बसंत की तरह चारा हर कहीं बिखरा पडा है।
जहां तक चुनावी प्रक्रिया में चारे की उपस्थिति का प्रश्‍न है, चारा यहां तो वैसे ही विद्यमान है आफिसों में भ्रष्‍टाचार, आदमी दुर्विचार, पढे‍ लिखों में बेरोजगार और शिक्षा में व्‍यापार। कहीं, कुछ खाली नहीं। सब भरा भरा सा है। बिल्‍कुल चारे से लबरेज, और होना भी चाहिए, क्‍यों कि चारा ही सफलता का मूल मंत्र है।
हमारे एक शोधार्थी मित्र के अनुसार चारेबाजी हिंदुस्‍तान में अंग्रेजों के समय से है। बस अंतर इतना है कि उनके समय में इसे बटरिंग का दर्जा प्राप्‍त था। अंग्रेज गए, आजादी मिली, मंहगाई आई, बटर पिघला....और जनाब ऐसा पिघला कि लोग देखने तक को तरस गए। रह गया सिर्फ चारा....केवल चारा...मात्र चारा।....वैसे, औकात औकात की बात है। बटरिंग के लिए करने और करवाने वाले, दोनों को एक बार सोचना पडता है। अस्‍तु , चारा ही ठीक है। बिना हर्र और फिटकरी के चोखा चोखा रंग, और फिर अब तो बडे बडे लोग चारे का ही इस्‍तेमाल कर रहे हैं। नेता से लेकर अभिनेता तक चारेबाजी से अछूते नहीं हैं। चुनाव में चारे का प्रयोग अपने चरमोत्‍कर्ष पर होता है। इस दौरान जब भी कोई यह कहता है कि –‘ अमुक नेता जनता के आगे चारा डाल रहा है। ‘ मेरी आंखों के सामने अपने घोडों को चारा डालते छज्‍जू मियां नाचने लगते हैं। वैसे आम तौर पर देखा जाए तो चारा है भी जानवरों के इस्‍तेमाल की चीज। उनके आगे ही डाला जात है। .......अब आप मुझसे यह मत पूछिएगा कि ऊपर मैने एक दूसरे को चारा डालने के संबंध में जिन जिन लोगों को जिक्र किया, वह सब एक दूसरे को क्‍या समझते हैं।
फिलहाल इतना ही काफी है कि चारा अपने आप में महान है। इसके बिना तरक्‍की नहीं पाई जा सकती। इसके बिना कोटा परमिट नहीं मिल सकता। इसके बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता।
अभी कुछ ही दिनों की बात है। अखबार में एक खबर छपी थी। जरूरत है एक फडफडाते नारे की। खबर का मजमून था कि कांग्रेस को एक फडफडाते नारे की तलाश है। नारा मिल नहीं रहा है। मुझे लगा कि कोई बोला कांग्रेस को चारा नहीं मिल रहा है। ठीक बोला न.....। नारा चारा का ही पर्याय है। अब नहीं मिल रहा है तो परेशानी लाजमी है, क्‍योकि बिन चारा सब सून। समस्‍या है....सि र्फ कांग्रेस की ही नहीं बल्कि सभी दलों की। चर्चा है। चुनाव सिर पर। नामांकन हो चुके हैं। प्रचार शुरू है। सब कुछ मौजूद है, सिर्फ चारे का सवाल है बाबू।

(पंजाब केसरी के 1-3-1985 के अंक में प्रकाशित)

2 comments:

Neeraj Rohilla said...

बहुत खूब,
पढने में बहुत आनन्द आया । साथ ही ऐसा भी लगा कि जैसे कहीं कहीं मेरी ही कहानी भी है ।

आगे भी इन्तजार रहेगा । इस वर्ड वेरिफ़िकेशन को हटा सके तो टिप्पणी लिखने में आसानी होगी ।

Nitin Sabrangi said...

सर आपका, आपकी लेखनी का, आपकी कल्पना का जवाब नहीं वेसे सवाल भी नहीं है.