Thursday, December 25, 2008

रचनाधर्मिता में बाजारवाद
चार्चित व्‍यंग्‍य लेखक कमल किशोर सक्‍सेना से पहली मुलाकात के बाद देर रात घर लौटने के बाद से सुबह तक दो शब्‍द मुझे पूरी रात परेशान किए रहे। एक शब्‍द था लेखन और दूसरा व्‍यावसायिक लेखन अर्थात प्रोफेशनल राइटिंग। उस समय, जहां तक मैं समझ पाया कि लेखन स्‍वतंत्र रूप से अपने मौलिक विचारों, अनुभवों और संवेदनाओं को साहित्‍य की किसी भी विधा में उतार देना मात्र है, और व्‍यावसायिक लेखन समाज की वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में प्रकाशक की मांग के अनुरूप अपने विचारों को साहित्‍य की किसी भी विधा के ऐसे रूप में आकार देना है जो न सिर्फ विचारों के स्‍तर पर पाठक को आंदोलित कर सके बल्कि उसे खरीदने के लिए पाठक को बाध्‍य भी कर सके। कुल मिला कर नतीजा यह निकला कि अगर छपने के लिए लिखना है तो बाजार और उसकी मांग पर नजर रखना बहुत जरूरी है।
.....................ि‍फलहाल वैचारिक द्वंद के बीच किसी तरह रात कटी। पढने लिखने और आपसी मुलाकातों का यह सिलसिला चल निकला। मूल रूप से मैं कविताएं लिखता था, इस लिए उन पत्रिकाओं को विशेष रूप से पढना शुरू किया जिनमें कविताएं प्रकाशित होती थीं। अब शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता जिस दिन हमारी कमल से मुलाकात न होती हो। हमारे बीच सहजता इतनी थी कि आहिस्‍ता आहिस्‍ता कमल जी मेरे लिए कमल और मैं उनके लिए ओपी हो गया। वक्‍त गुजरता गया एक महीने में मैंने जहां जहां जितनी भी रचनाएं भेजीं वह संपादक के अभिवादन एवं खेद सहित की पर्चियों के साथ वापिस आ गईं। इस असफलता को लेकर मन बहुत दुखी था। मैं और कमल रात में उन्‍नाव के उसी बडे चौराहे की चाय की दुकान पर बैठे थे। मैने आशंका व्‍यक्‍त की...........शायद मैं स्‍तरीय नहीं लिखता।
कमल ने अपने थैले से बीडी निकालते हुए मुझे हौसला दिया........नहीं, ऐसा नहीं है, तुम अच्‍छा लिखते हो लेकिन हो सकता है तुमने अपनी जो रचना जिस पत्रिका के लिए भेजी वह उसके अनुरूप न रही हो। इस लिए लिखना जारी रखो...........। कमल ने एक बीडी मेरी ओर भी बढा दी जिसमें एक लम्‍बा कश लेकर मैने बडा सुकून सा महसूस किया।
कमल ने भी अपनी बीडी में लम्‍बा कश लगा कर ढेर सारा गाढा धुआं उगला और मुझसे मुखातिब हुआ..................तुम कविताओं और गजल के साथ ही साथ अन्‍य विधाओं में क्‍यों नहीं कोशिश करते ? आचानक मेरी सवालिया निगाहें कमल की ओर उठ जाती हैं........? कमल मुझे समझा रहे थे.........देखो, बाल साहित्‍य लिखने वालों की बहुत कमी है, नाटकों पर भी कोई काम नहीं हो रहा है। शैक्‍सपियर, विजय तेंदुलकर, शंकर शेष, सुशील कुमार सिंह जैसे कुछ चर्चित नाटककारों के नाटकों को मंचित करने के सिवा रंगमंच से जुडे लोगों के पास अच्‍छी स्क्रिप्‍ट नहीं है। ऐसे में अगर कोई अच्‍छा नाटक लिख सको और कोई इप्‍टा जैसी कोई बडी संस्‍था उसका मंचन करे तो एक दिन में तुम्‍हारा नाम चर्चा में आ सकता है। इसी लिए मैने भी कुछ नाटक लिखे हैं।
............कमल की इन बातों पर मैने भी सहमति में सिर हिलाया। इसी बीच चाय वाला मिट़टी के कुल्‍हड में हम दोनों को चाय पकडा गया। कुल्‍हड मुंह के पास ले जाते ही अदरक वाली चाय की भाप के साथ मिट़टी की एक सोंधी गंध नथुनों से होती हुई दिमाग में जाकर बस गई। रचनाएं न छपने से हुई निराशा कुछ हद तक कम हुई थी.............तुम ठीक कहते हो कमल भाई, अब काव्‍य के साथ दूसरी विधाओं में भी कोशिश करूंगा।
यार मैं सोच रहा हूं कि अपनी एक लघु नाटिका सस्‍ते दामाद की दुकान का मंचन करू.......कमल ने बातचीत के सिलसिले को आगे बढाया।
अच्‍छा आइडिया है......मैने भी हामी भरी....।
इसमें कोई बडा नाटक भी जोड लेते हैं........मैने सुझाव दिया।
यह वह दौर था जब जगह जगह हिंदू मुस्लिम विवाद हो रहे थे। ऐसे में हम दोनों की बातचीत में यह तय हुआ कि हिंदू मुस्लिम एकता पर कोई अच्‍छी स्क्रिप्‍ट हो तो उसे तैयार किया जा सकता है। योजना बनी कि कानपुर चल कर यूनिवर्सल बुक डिपो से कोई स्क्रिप्‍ट लाई जाए। कमल ने बताया कि उसके कुछ मित्र हैं जो इस प्रोजेक्‍ट में हमारे साथ होंगे। उसने कहा कि वह उन सबसे हमें मिलवाएगा। उन मित्रों में कचहरी में मुंशीगीरी करने वाले मेराज जैदी, सप्‍लाई दफ़तर के एक क्‍लर्क गिरजा शंकर अवस्‍‍थी, डनलप मास्‍टर साहब और साडियों पर पेंटिंग करने वाले एक व्‍यक्ति के साथ ही साथ और भी कई नाम उसने गिनाए। कुल मिला कर एक पूरी टीम थी उसके पास और अब मै भी उस टीम का हिस्‍सा हो गया था। अगले दिन कानपुर जा कर स्क्रिट लाने की बात तय करके हम लोग अपने अपने घर की ओर चल दिये। उस समय रात के दो बजे थे। सूनी सडक पर मैं पैदल यह सोचता चला जा रहा था कि क्‍यों न हिंदू मुस्लिम एकता पर कोई गजल लिखी जाए..........क्‍योंकि यह उस समय का सबसे बिकाऊ मुद़दा था। मैं यूं ही कुछ गुनगुनाने लगा था। रात के सन्‍नाटे में सूनी सपाट सडक पर अकेले गुनगुनाते हुए चलने का अपना ही मजा था। लगभग पौन घंटे पैदल चलने के बाद जब मैं घर पहुंचा तो गुनगुनाहट के साथ उभरे कुछ शब्‍द इस अपरिपक्‍व रचनाकार की नई गजल के शेरों में तब्‍दील हो चुके थे। आइये उस गजल से आपको भी रूबरू कराता हूं..........
गजल
दो कदम और जरा आपको चलना होगा।
अपना दावा है जमाने को बदला होगा।।
वो जो फुटपाथ पे किस्‍मत के भरोसे बैठे।
आज उठकर उन्‍हें फौलाद में ढलना होगा।।
ह से हिंदू है अगर म से मुसलमा कोई।
मिल के दोनों को अब हम में बदलना होगा।।
अब तो ये जिद है दिल चाहे नजारे देखें।
गर नजर है तो नजारों को बदलना होगा।1
जो अभी तक किसी शायर की गजल के से थे।
आज पूरा उन्‍हें दीवान सा बनना होगा।।
(13-6-1982 के स्‍वतंत्र भारत में प्रकाशित)
गजल

भरे हैं पेट जिनके सिर्फ ये उनकी खता है।
हमारे बीच हैं कातिल यहां सबको पता है।।
जिसने रात अपने भाइयों को कत्‍ल कर डाला।
अब के दौर में वो आदमी ही देवता है।।
जिम्‍मा है हिफाजत का हमारी जिसके सर।
वो खुद ही अपना सर बचाता घूमता है।।
एक लानत बन गया है धर्म भी।
आग में जलता हुआ हिंदोस्‍तां है।।
खून से डूबी हुई सडकों पे वो।
पागल ही तो है, मोहब्‍बत ढूंढता है।।
(दैनिक जागरण में प्रकाशित)
(क्रमश:)

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