Wednesday, November 26, 2008

विभेद का द्वंद..............।
पिता की झिडकियों , झल्‍लाहटों और मां के उलाहनों के साथ ही साथ विभेद के द्वंद के बीच हिना के पौधे पर लगी कोपलें पकती चली गईं। परिवार के संस्‍कार , सच बोलो, बडों का आदर करो, गरीब को मत सताओ, धर्म के मार्ग पर चलो, ईश्‍वर पर भरोसा रखो के तमाम सारे उपदेश जीवन की राह में कदम कदम पर झूठे साबित हुए। झूठों को जीतते और सच का हारते देखा, धर्म के नाम पर अधर्मियों को सम्‍मानित होते और ईश्‍वर पर भरोसा रखने वालों को तिल तिल कर मरते देखा। गरीबों ने हमेशा साइकोलाजकली हमें ब्‍लैकमेल किया। तय करना मुश्किल था कि क्‍या सही है और क्‍या गलत। विभेद के इसी द्वंद से गुजरता हुआ जिंदगी के सफर में उस मुकाम पर पहुंचा जहां कालेज और कस्‍बाई रंगकर्म की दुनियां के कई अलग अलग चरित्र मेरे साथ जुडे। संवेदनाओं के जडें गहरी होती चली गई। स्‍वरूप। सौंदर्य के प्रति आसक्ति तो मेरे स्‍भाव में थी। सच कहूं तो जीवन के स्‍कूल में दाखिला हुआ। स्‍कूल की किताबों में मैने, क्‍या कुछ पढा मुझें आज भी नहीं पता। अनुभूतियों ने विस्‍तार पाया तो शब्‍दों ने कविता का रूप लिया....................। मेरे संस्‍कारों में रची बसी शब्‍द काव्‍य की पहली प्रतिमा कुछ इस तरह बनी..................

दर्द की संभावना हो
प्रीत की प्रश्‍नावली
सूर का हो बाल वर्णन
तुलसी कृत गीतावली
दर्द की संभावना हो प्रीत की प्रश्‍नावली।।
पंखुडी से होंठ कोमल
कोकिला स्‍वर, रूप चंदन
नयन सागर, जुल्‍फ बादल
उम्र पागल देह मधुबन
तुम प्रकाशित दीप दिप दिप दीप दिप दीपावली।
दर्द की संभावना हो प्रीत की प्रश्‍नावली।।
प्‍यार का तुम प्रथम चुंबन
पायलों का गीत रुनझुन
चूडियों की खनखनाहट
लोरियों की मधुर सुनगुन
हो मेरे मानस गगन पर, छा रही तारावली।
दर्द की संभावना हो प्रीत की प्रश्‍नावली।।


इस तरह, इस पहली कविता के साथ हिंदी साहित्‍य की कस्‍बाई जमात में मैने कदम रखा। और रफ़ता रफता यह सिलसिला आगे बढा। जो भी लिखा वह स्‍वांत: सुखाय ही था। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि मेरी सोच कल्‍पना और विचार के कैनवास को विस्‍तार देने में मेरे उन साथियो का ही हाथ रहा जो जीवन मे कदम कदम पर मुझे मिले और कहीं पीछे छूट गए।

(क्रमश:)


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