Friday, January 30, 2009

धार्मिक होना भी जरूरी
धर्म चाहे कोई भी हो, मेरा मानना है कि व्‍यक्ति का धार्मिक होना भी जरूरी है। आज हम जिस हिंदू मुसलमान सिख या ईसाई के नाम पर आपस में लड़ते झगड़ते हैं, वह वास्‍तव में धर्म नही है। हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई तो अलग अलग संप्रदाय हैं। हम उनके अनुयायी मात्र हैं। संप्रदायों में वर्चस्‍व को लेकर झगड़ा हो सकता है। धर्म पर कोई झगड़ा नहीं। मेरा मानना कि, धर्म हमें संकटों से उबरे की शक्ति देता है। धर्म हमें अपने कर्तव्‍य मार्ग पर चलन की प्रेरणा देता है। जब हम यह मानते हैं कि इस सृष्टि से अलग कोई एक सर्वशक्तिमान है और हम सब की डोर उसके हाथ में है, तो हम बड़े से बड़े संकट के समय में भी रिलैक्‍स हो जाते है। एक तरह से कहा जाए तो धर्म आस्‍था और विश्‍वास का दूसरा नाम है। वह अलग बात है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण इससे बिल्‍कुल अलग है। उनकी भाषा में यही कहा जाता है कि जहां विश्‍वास होता है वहां ज्ञान नहीं होता, लेकिन कभी कभी मानसिक शांति के लिए ज्ञान शून्‍यता एवं विचार शून्‍यता एक औषधि का कार्य करती है। संभवत: इसे ही ध्‍यान कहते हैं। जो व्‍यक्ति इस स्थिति से गुजर जाता है वह वह बड़े से बड़े संकट का सामना कर अपने आप में एक ऐसी ऊर्जा का समावेष कर लेता है जो जीवन पथ पर आगे बढ़ने में उसकी मदद करती है।
यहां धर्म चर्चा मैं सिर्फ इस लिए कर रहा हूं कि जिन संकटों से गुजर कर मेरे पिता जी ने अपने परिवार को संभाला वह ईश्‍वर के प्रति उनकी अगाध आस्‍था और विश्‍वास का ही परिणाम था। ऐसा वह अक्‍सर कहा करते थे....और यह आस्‍था एवं विश्‍वास उन्‍हें अपने पूर्वजों से संस्‍कार में मिला। कुछ ऐसे ही संस्‍कार मुझमें भी रहे। मेरी ननिहाल में तो भक्ति रस की गंगा बहती थी। हमारे नाना बाराबंकी के पीरबटावन मोहल्‍ले में रहा करते थे। अक्‍सर गर्मियों की छुट्टियों में हम लोग वहां जाया करते थे। नाना जी का नियम था कि वह सुबह चार बजे सभी को जगा दिया करते थे और फिर खुद हारमोनियम लेकर प्रभाती गाते थे और हम सभी उनके साथ स्‍वर मिलाया करते थे। उनकी वह प्रभाती आज भी मुझे याद आती है........जागिए कौशल किशोर पंछी गण बोले, जागिए कौशल किशोर।
मुझे अभी भी याद है जब नाना जी रेलवे से रिटायर होने के बाद घर में ही ईश्‍वर भजन में लीन रहते थे। इसके अलावा उन्‍हें होम्‍योपैथी का भी अच्‍छा ज्ञान था इस लिए वह अपनी पेंशन के कुछ पैसों से दवाएं खरीद कर लाते थे और मोहल्‍ले के उन लोगों का नि:शुल्‍क इलाज किया करते थे जो गरीब थे। छुट्टियों में हम लोगों के पहुंचने पर वह हमे अपने साथ विभिन्‍न संतों के सत्‍संग में ले जाते थे। घर में खाली समय मिलता तो वह हमे रामायाण, सुख सागर और गीता जैसे ग्रंथ देकर कहते कि हम उसे पढ़ कर उन्‍हें सुनाएं। इस प्रक्रिया का लाभ आज हमें समझ में आता है। बचपन में विभिन्‍न धर्मग्रंथों के पाठ ने जहां हमारी भाषा को समृद्ध किया वहीं धर्म के प्रति हमारी आस्‍था को मजबूत किया। इसी ने हमें गरीबों की सहायता, दीन दुखियों की मदद और सत्‍य की राह पर चलने का हौसला भी दिया। काम, क्रोध, लोभ, मोह से मुक्‍त होने की सीख दी।
वह अलग बात है कि, जीवन की राहों पर जिस नए सत्‍य से हमारा साक्षात्‍कार हुआ उसके चलते हम तमाम बार व्‍यक्गित हितों के लिए इन राहों से भटके। कभी जानबूझ कर तो कभी अनजाने में......लेकिन अच्‍छे संस्‍कारों ने हमें हमेशा बाचाए रखा। मैने कभी भी यह दावा नहीं किया कि मैं सत्‍यवादी हरिश्‍चंद हूं। मैं एक आदर्श व्‍यक्ति हूं। मेरा अनुकरण किया जा सकता है। ऐसा मैने कभी नहीं कहा। मैं हमेशा एक सामान्‍य व्‍यक्ति की तरह जिया। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप समय-समय पर बदलता रहा। .........क्‍यों कि मैं जानता था कि इस परिवर्तनशील समय में अगर मैने अपने आप को नहीं बदला तो जीवन की दौड़ में कहीं पीछे छूट जाऊंगा।
मैं पीछे छूटना नहीं चाहता था। कर्म को प्रधान मानते हुए मैं कोशिशों में लगा रहा। कुछ दिनों बाद मेराज ने बताया कि उसने एक वकील साहब से बात की है। अगर मैं चाहूं तो उनके यहां मुंशी का काम कर सकता हूं। मेराज की बात सुनकर मैने भी हां कर दी और अगले दिन से काम पर पहुंच गया। बड़े मुंशी ने मुझे मुकदमों से संबंधित कोर्ट के कागजात तैयार करने बताए। पांच रूपये रोज पर बात तय हुई थी। मैं पूरी मेहनत और लगन से काम करने लगा। शाम को बड़े मुंशी कचहरी से मेरे साथ सब्‍जी मंडी तक पैदल आते थे और वहां से सब्जियां खरीद कर अपने बच्‍चों के लिए कु्छ न कुछ मिठाई आदि लेकर तब घर जाते थे। बड़े मुंशी की ड्यूटी सुबह आठ बजे वकील साहब के घर से शुरू होती थी। वकील साहब के घर का सामान लाना। मिलने जुलने आने वालों को चाय आदि पिलाना भी बड़े मुंशी की ड्यूटी में शामिल था। इसके बाद वह दस बजे कचहरी आ जाते थे। पूरे दिन काम कर मुंशी जी को तीस से चालिस रुपये रोज की आमदनी थी। इसी आमदनी से उनके परिवार का भरण पोषण होता था। मुंशी जी भी अपनी इस स्थिति से पूरी तरह संतुष्‍ट थे। वह बताते थे कि, वह जब कचहरी पहली बार आए थे तो उनकी उम्र सिंर्फ अठारह साल की थी और आज वह 40 वर्ष के हैं। मुंशी जी की बातें मेरे अंदर विचारों का एक ऐसा तूफान खड़ा कर देती थीं कि मैं कभी कभी तो घंटो मुंशी जी के बारे में ही सोचता रह जाता था, और फिर अपने आप से यह सवाल करता था कि क्‍या मैं भी मुंशी जी की तरह ही..................।
नहीं नहीं , मैं बहुत तेजी के साथ अपना सिर झटक देता था। इतने से गुजारा नहीं होगा। वह और बात थी कि जब से मैने कचहरी जाना शुरु किया था मैंने अपने खर्च के लिए घर से पैसे लेना बिल्‍कुल बंद कर दिया था। बीच बीच में तारा देवी गुप्‍ता के स्‍टेज प्रोग्राम भी मिल जाते थे। इस तरह कहा जाए तो अपनी गाड़ी सरकने लगी थी। सिगरेट पान और लेखन सामग्री का खर्च निकलने लगा था। यदा कदा सरिता, मुक्‍ता और गृहशोभा में रचनाएं भी छपने लगी थीं। मैने इंटरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भर दिया था। मुझे अपने आप पर विश्‍वास था और ईश्‍वर पर भरोसा, साथ ही जहन में गूंजता किसी शायर का वह शेर-
खुली छतों के दिये कब के बुझ गए होते।
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।।
(क्रमश:)

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