Thursday, January 15, 2009


असंतुष्‍ट रहो और आगे बढ़ो
संतोषम् फल दायकम् का सूत्र वाक्‍य जिस किसी भी विद्वान ने लिखा हो, मैं व्‍यक्तिगत रूप से उनसे सहमत नहीं हूं। जीवन की राहों पर चलते हुए मैने जो महसूस किया उसके अनुसार अगर आगे बढ़ना है तो असंतुष्‍ट रहना बहुत जरूरी है। उस दिन तारा देवी गुप्‍ता से मिल कर आने के बाद अगले दिन मैं पूर्व नियत कार्यक्रम के अनुरूप सुबह 10 बजे कमल के घर पहुंच गया। कमल के अन्‍य साथी मेराज जैदी, गिरजा शंकर अवस्‍थी, अरविंद, जागेश्‍वर भारती आदि सभी वहां पहले से मौजूद थे। पेंट ब्रश आदि लेकर हम सभी लोग नाटक राम रहीम के पोस्‍टर बनाने में लग गए। इसी काम के दौरान बातचीत में यह पता चला कि मेराज जैदी की भी साहित्‍य में खासी रुचि है। उर्दू साहित्‍य का बहुत अच्‍छा कलेक्‍शन उस‍के पास है। मेराज का दावा था कि उर्दू साहित्‍य हिंदी से कहीं अधिक समृद्ध है। चूंकि मैं उस पूरे ग्रुप में सबसे छोटा था और साहित्‍य के बारे में मेरी जानकारी भी अन्‍य सभी के मुकाबले नगण्‍य थी इस लिए मैं चुपचाप उन सभी की बातचीत सुनता रहा। बीच बीच में मैं भी हां हूं कर देता था। इस बीच मेराज उर्दू के कई लेखकों और उनकी रचनाओं का जिक्र करता रहा। मुख्‍य रूप से सआदत हसन मंटों एवं इस्‍मत चुग्‍ताई की कहानियों का जो वर्णन उसने किया उसने मेरे अंदर भी एक उन्‍हें पढने की इच्‍छा जाग्रत कर दी। लेकिन एक समस्‍या थी कि मैं उर्दू नहीं पढ सकता था। मैने अपनी बात मेराज के सामने रखी तो उसने बडी सहजता से कहा......उर्दू नहीं जानते तो क्‍या हुआ। तुम मेरे घर आओ, मैं तुम्‍हें मंटो और इस्‍मत चुगताई की कई अच्‍छी कहानियां पढ कर सुनाऊंगा। उसका कहना था कि वह कहानियां तो ऐसी हैं कि उसे चाहे जितनी बार पढो, वह न सिफ नई लगती हैं बल्कि व्‍यक्ति की संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती हैं। .....मैने सहमति में सिर हिला दिया था।
शाम होते होते हम लोगों ने लगभग एक दर्जन पोस्‍टर बना डाले थे। बाकी पोस्‍टर अगले दिन बनाने की बात तय कर हम लोग कमल के घर से निकल पड़े। मैं वहां से सीधे घर आया और फिर कपडे आदि बदल कर रात के प्रोग्राम के बारे में मां को बताया। यह भी बताया कि लखनऊ वाले काम में अभी समय लगेगा। फिलहाल मैं आर्कस्‍ट्रा के प्रोग्राम में जा रहा हूं। मेरे घर से निकलने तक पिता जी कचहरी से वा‍पिस नहीं आए थे। मैं उनके आने से पहले ही घर से निकल लेना चाहता था क्‍योंकि उनके आने के बाद यह गारंटी नहीं थी कि वह मुझे किसी आर्केस्‍ट्रा पार्टी में काम करने देंगे या नहीं। उनकी समस्‍या यही थी कि वह आर्थिक रूप से परेशान भी रहते थे लेकिन उनकी शहंशाही में कहीं कोई कमी नहीं थी। उनकी शहंशाही का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार घर के सामने से एक ठेला निकला। ठेले पर टमाटर लदे थे। पिताजी उससे मोलभाव करने लगे। पूरे ठेले का क्‍या लोगे। कुछ लोगों ने टोका भी। सक्‍सेना साहब, इतने टमाटर लेकर क्‍या करोगे ? पिताजी नहीं माने ठेले पर रखे पूरे 30 किलो टमाटर खरीद लिए। टमाटर सड़ कर फिकें नहीं इस लिए बाद में उसे मोहल्‍ले में बांटा गया। उसका सास बनवाने के लिए बोतने खरीदी गई। सास बनवाने के लिए जो पैसे खर्च किए गए वह अलग। मैं और मां उनके इस अंदाज को लेकर हमेशा परेशान रहते थे। उन्‍हें सुधारने की हिम्‍मत हम दोनों में से किसी को नहीं थी।
खैर, बात चल रही थी कि मैं घर से अनिल बवाली के यहां जाने के लिए निकल पड़ा। अनिल के घर पहुंचा तो वह मेरा ही इंतजार कर रहा था। हम दोनों वहां से तारादेवी गुप्‍ता के घर कल्‍याणी पहूंच गए। तारा देवी के घर पर पूरा जमावडा था। लखनऊ से तमाम आर्टिस्‍ट वहां आए हुए थे। डांसर रेखा गर्ग, गिटारिस्‍ट आलोक सक्‍सेना, ढोलक, कांगो और बांगो और हारमोनियम के कलाकार अलग। कार्यक्रम की रिहर्सल चल रही थी। तारा देवी ने मुझे देखा तो अपने पास बुला‍ लिया। सबसे परिचय करवाया........ओपी नाम है इसका, अभी नया बच्‍चा है। कई अच्‍छे कैरीकेचर हैं इसके पास। मेहनत करेगा तो सीख जाएगा। आज और कल के दोनों प्रोग्राम यही एनाउंस करेगा। ......तारा देवी ने मेरी पीठ पर हाथ रखा।....मेरा हौसला बढाते हुए वह मुझे हाल के बीच तक लाई और बोली.......चल शुरू हो जा बेटा, एक ट्रायल हो जाए......।
मैने भी सहमति में सिर हिलाया और फिर जेब से कलम कागज निकाल कर कार्यक्रम का सीक्‍वेंस नोट करने लगा। इंट्रोडक्‍शन म्‍यूजिक के बाद मंच के इंस्‍ट्रूमेंटल कलाकारों का परिचय और फिर कुछ हल्‍की फुल्‍की शेरो शायरी के साथ किशोर कुमार के कुछ फिल्‍मी गाने, रेखा का डांस आदि आदि......। सीक्‍वेंस नोट करने के बाद मैने बतौर रिहर्सल एनांउसमेंट शुरू किया। ट्रायल के तौर पर कुछ शेरो शायरी और कैरीकेचर के साथ फिल्‍मी कलाकारों की आवाज में कुछ आइटम सुनाए तो्र वहां मौजूद कलाकारों में से कुछ ने तो मुंह बिचका लिया.....कुछ ने हौसला बढाया। कोई बात नहीं .....अभी नया है। धीरे धीर सब सीख जाएगा। इसी बीच गिटारिस्‍ट आलोक बोला .....हां, ठीक है , गांव के प्रोग्राम में तो चल ही सकता है। फिर वह और तारादेवी गुप्‍ता हाल से बाहर जाकर एक कोने में कुछ खुसर पुसर करने लगे। थोडी देर बाद तारा देवी ने मुझे आवाज दी......अरे, ओपी.....देखना बाहर दो जीपें खडी हैं। सब से बोलो पैकअप करें, चलने का टाइम हो गया है। मैने सभी को अपने अपने इंस्‍ट्रूमेंट समेटने को कहा। सामान पैक होने के बाद सभी लोग अपना अपना सामान उठा कर जीप की ओर चल दिए। मैं भी उनके सामान उठवाने में लग गया।
उस रात जब प्रोग्राम खत्‍म हुआ तो तारादेवी ने चलते समय मुझे 50 रुपये दिये और कहा कि कल के प्रोग्राम का एडवांस दे दिया है। टाइम पर पहुंच जाना। सच मानिए, उस दिन मिले पचास रुपये मुझे पचास लाख जैसे लग रहे थे। वह अलग बात है कि पिता जी के अच्‍छे समय में, मैं उस जैसे न जाने कितने पचास रुपये अपने स्‍कूल के दोस्‍तो को खिलाने पिलाने में उडा दिया करता था।
उस रात प्रोग्राम से लौटते समय जीप ने मुझे और अनिल बवाली को बडे चौराहे पर ही उतार दिया था। यहां से मैं और अनिल बवाल अपने अपने घरों के लिए चल दिय थे। रात के 3 बजे थे। जेब में पचास रुपये की गर्मी मैं बडी शिद्दत के साथ महसूस कर रहा था। साथ ही हिसाब जोडता जा रहा था कि अगर महीने में 15 प्रोग्राम मिलें तब कहीं जाकर महीने में पौने चार सौ रुपये कमा पाऊंगा। जरूरी नहीं कि महीने में 15 प्रोग्राम मिल ही जाएं......कम भी हो सकते हैं और ज्‍यादा भी ? इस तरह पचास रुपये कमा कर मैं खुश तो था पर संतुष्‍ट नहीं था...........मैने सोच लिया था कि इसके साथ ही साथ हमें कोई और काम भी करना होगा। संतुष्‍ट हुए कि प्रगति रुकी.........।
(क्रमश:)

व्‍यंग्‍य
सत्‍ताधीश बनाम आम आदमी

उस दिन प्रधानमंत्री का राष्‍ट्र के नाम संदेश सुनते सुनते मेरी आंख लग गई। मेरा समूचा अस्ति‍त्‍व सपनों की दुनियां में खो गया। मैने देखा कि अपने देश में एक नई व्‍यवस्‍था लागू हो गई है, जिसमें स्‍वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर पर दो मंच बने हैं। एक पर अपने प्रधानमंत्री खड़े हैं, बु‍लेट प्रूफ शीशे के पीछे, एसपीजी के जवानों से घिरे हुए और दूसरे मंच के पीछे एक आम आदमी खड़ा हुआ है बिना किसी सुरक्षा व्‍यवस्‍था के.....पूरी तरह असुरक्षित। यही तो फर्क है आदमी और प्रधानमंत्री होने में।
खैर, व्‍यवस्‍था यह है कि अपने प्रधानमंत्री और वह आम आदमी साथ-साथ राष्‍ट्र के नाम संदेश प्रसारित करेंगे। संदेश का प्रसारण शुरू होता है......प्‍यारे देशवासियों नमस्‍कार.....दोनों गंभीर मुद्र में हैं। प्रधानमंत्री क्‍यों गंभीर हैं पता नहीं। हो सकता है गंभीर और चिंतित दिखना प्रधानमंत्री पद की अनिवार्यता हो, लेकिन दूसरे मंच पर खड़ा आम आदमी गंभीर और चिंतित होने के साथ ही साथ दुखी भी है.....शायद इस लिए कि वह जानता है कि चाहे वह लाल किले की प्राचीर से बोले, बोट क्‍लब से बोले, सुदूर से बोले, पीलीभीत से बोले या कुम्‍हेर से.......उसकी आवज उसी तरह गुम कर दी जाएगी, मिट दी जाएगी जिस तरह संसद की कार्रवाई के टीवी प्रसारण में सांसदों के वा‍स्‍तविक चरित्र को उजागर करने वाले अंश मिटा दिए जाते हैं।
फिलहाल , राष्‍ट्र के नाम संदेश प्रसारित होना शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री बोल रहे हैं। दूसरे मंच से आम आदमी बोल रहा है। दोनों की आवाजें एक दूसरे में गड-मड हो रही हैं। सरकारी भाषा में अर्थ का अनर्थ हो रहा है। प्रबुद्धजनों की भाषा में अनर्थ को अर्थ मिल रहा है।
प्रधानमंत्री बोल रहे हैं......एक साल पहले सरकार को जो विरासत मिली थी, उसमें सुधार लाने के लिए एक साल की जद्दोजहद के बाद कामयाबी मिली है...।
आम आदमी बोल रहा है....बहुत कामयाबी मिली है, हमने विश्‍वबैंक और हर्षद मेहता के हाथों की कठपुतली बन कर उनकी ही बुद्धि से पूरे देश का बजट बनाया है, ताकि देश की अर्थव्‍यवस्‍था और देश को खोखला करने की हमारी सत्‍तासित परंपरा जीवित रहे, बोफोर्स जीवित रहे, हर्षद मेहता जीवित रहे.......।
प्रधानमंत्री बोल रहे हैं.........देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के मामले में हमें काफी कामयाबी मिली है। एक साल पहले तक हमें अपना सोना तक गिरवी रखना पड़ रहा था और उस समय तो सिर्फ एक हजार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्र का भंडार बचा था हमारे पास जो मात्र एक सप्‍ताह में खर्च हो जाता, लेकिन सरकार ने सावधानी से फूंक फूंक कर कदम उठाए और आज.............
इसी बीच आम आदमी की आवाज उभरे लगती है...........और आज हमने अपने देश का सोना गिरवी रखने के स्‍थान पर पूरे देश की अर्थव्‍यवस्‍था को गिरवी रख दिया है। उद्देश्‍य पैसा लाना है। विदेशी मुद्रा लाना है। चाहे वह अंदर से आए या बाहर से। सोना गिरवी रख कर आए या पूरा देश गिरवी रख कर.....।
उधर प्रधानमंत्री बोल रहे हैं.........बाहर के लोग यहां परियोजनाओं में पैसा लगाएंगे तो भी वह परियोजनाएं यहीं रहेंगी। चाहे वह उद्योग हो , रेल हो, या सड़क हो....सब कुछ यहीं रहेगा।
आम आदमी बोल रहा है.........हां सब कुछ यहीं रहेगा, यहां के उद्योग, यहां के कारखाने, यहां की सड़कें, यहां के पुल, यहां की हरीभरी धरती, यहां की कल-कल करती नदियां, सब यहीं रहेगा। ठीक उसी तरह जैसे आजादी के पहले था। अंग्रेज न उस समय कुछ उठा कर ले गए थे और न इस बार कुछ ले जाया जाएगा........सब कुछ यहीं रहेगा।
प्रधानमंत्री बोल रहे हैं........देश के ऊसर क्षेत्रों को विकसित करने के लिए कार्यक्रम बनाए गए हैं। इसके लिए सरकार ने अलग से विभाग बनाया है। काफी धनराशि का प्रावधान भी किया है।
आम आदमी बोल रहा है........‍हमारी सरकार बहुत समझदार है। उसको चलाने वाले बहुत काबिल हैं। हमेशा देश और देशवासियों के हित के लिए कार्य करते हैं। संभवत: इसी लिए खेती योग्‍य भूमि किसानों से छीन कर उसपर होटल और मकान बनाए जा रहे हैं, वहीं ऊसर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए पूरा एक विभाग बना कर करोड़ों रुपए खर्च करने की योजना तैयार की गई है। सिर्फ इतना ही नहीं, हमारे शासकों को देश के आर्थिक हित की कितनी चिंता है, इसका एक नमूना यह भी है कि वह विदेशों को जिस मूल्‍य पर खाद्यान्‍न निर्यात कर रहे हैं उससे कई गुना अधिक मूल्‍य पर विदेशों से खाद्यान्‍न खरीद रहे हैं। उनकी दलीलों के अनुसार देश का अर्थिक हित इसी तरह के सौदों में सुरक्षित रहेगा।
फिर प्रधानमंत्री की आवाज उभर रही है......देश को तोड़ने वाले संघर्षो पर अगले तीन वर्ष के लिए रोक लगा दी जानी चाहिए....।
आम आदमी बोल रहा है........जरूर, जरूर रोक लगा दी जानी चाहिए, ऐसी हर आवाज और ऐसे हर संघर्ष पर रोक लगा दी जानी चाहिए जो देश अर्थात उनकी कुर्सी को हिलाने और तोड़ने में सक्षम हो, क्‍योंकि उनके लिए तो देश मात्र उनकी कुर्सी तक ही सीमित है...।
इस तरह राष्‍ट्र के नाम संदेश का प्रसारण चल ही रहा था कि मेरे मानस पटल पर दृश्‍य बदलने लगता है। सामने मंच के पीछे गतिविधियां बढती नजर आती हैं। अचानक कोई फुसफुसाता है........अरे कोई रोको उसे....उसका बोलना ठीक नहीं है।
.....और तभी कोई, आम आदमी के नीचे से मंच रूपी उसका आधार खींच लेता है। आम आदमी लड़खड़ा कर गिरता है। मंच के आसपास भगदड़ मच जाती है। कोई उस आम आदमी का सिर कुचल देता है। थोड़ी देर बाद सबकुछ शांत हो जाता है। अखबारों में बड़े-बड़े हेडलाइंस छपते हैं........स्‍वतंत्रता दिवस समारोह में भगदड़। राष्‍ट्र के नाम संदेश देते आम आदमी की कुचलने से मृत्‍यु। घटना की जांच के लिए आयोग गठित। आम आदमी की सुरक्षा को ध्‍यान में रखते हुए उसके द्वारा राष्‍ट्र के नाम संदेश प्रसारण की नई व्‍यवस्‍था भंग.....अब सिर्फ प्रधानमंत्री बोलेंगे....सिर्फ प्रधानमंत्री। इसी बीच जाने क्‍यूं अचानक मैं चीख पड़ता हूं....मेरी नींद टूट जाती है। सामने देखतो हूं तो कुछ भी नहीं है, सिर्फ बिजली चले जाने से बंद पड़े टीवी की देश के भविष्‍य की तरह धुधली पड़ी स्‍क्रीन के सिवा.....कुछ नहीं .....कुछ भी नहीं।
(अमर उजाला के 4-10-1992 के अंक में प्रकाशित)

No comments: