Monday, January 5, 2009

हम नहीं, परिस्थितियां बनाती हैं रास्‍ता

उस दिन, सो कर उठा तो वह सुबह दूसरे दिनों की अपेक्षा कुछ अलग सी लगी। मन में एक संकल्‍प था। कुछ कर गुजरने का। नहा- धो कर तैयार हुआ तो मां ने चाय के साथ रात की बची रोटी पर सरसों का तेल और नमक लगाकर रोल बनाया और उसे मेरे हाथों में थमा दिया। मैं चाय के साथ उस रोटी को खा रहा था। गजब का स्‍वाद था उस रोटी में। इसी बीच मां ने धीरे से मुझसे पूछा था....सचमुच कोई काम मिल गया है तुम्‍हें।
उसकी आंखों में अविश्‍वास नजर आ रहा था।
मैने मां को आश्‍वस्‍त करते हुए बताया कि काम की बात हुई है। आज फाइनल होगा कि मुझे कब से जाना है। .......ठीक है......मां ने बड़ी ठंडी सांस भर कर कहा था और फिर मुझे समझाने लगी थी.......देखो बेटा, ऐसा कोई काम मत करना जिससे तुम्‍हारे पिता जी की बदनामी हो। वो तो ऐसे ही तुम्‍हें डांटते रहते हैं....रिटायरमेंट करीब है इस लिए थोड़ा परेशान हैं। वैसे काम की कोई जल्‍दी नहीं है। मैं तो चाहती हूं, ढंग से पढ़ लिख लो और कोई अच्‍छी सरकारी नौकरी करो.......मां बोले जा रही थी और मैं बस.......हूं , कह कर उसके सामने से उठ गया था। पिता जी आफिस जा चुके थे। मैं भी घर से निकल पड़ा था। मुझे परवेज लंगडे से मिलकर लखनऊ के काम के बारे में बात करनी थी और कमल के साथ नाटक राम रहीम की कास्‍ट और तैयारी के बारे में बात कर उसके बाकी साथियों से भी मिलना था। मन में तरह-तरह के विचार चल रहे थे। मुझे याद आ रहे थे बचपन के वह दिन जब मैं घर में अपने मां-बाप का इकलौता लड़का था। मेरे बड़े भाई की मौत के लगभग पांच साल बाद मेरा जन्‍म हुआ था। पिता जी उस समय आजमगढ़ जिले की घोसी तहसील में तैनात थे। तहसील में मालबाबू हुआ करते थे वह। तनख्‍वाह के अलावा ऊपर की आमदनी भी खूब थी। किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। लाड़ दुलार भी खूब था। पिता जी हर रविवार को हमें पिक्‍चर दिखाने मऊ (जो अब जिला बन गया है) ले जाते थे। तरह तरह की कहानियों की किताबें मैं वहां से लाता था जिसमें इंद्रजाल कामिक्‍स, दीवाना तेज साप्‍ताहिक, चंदामामा, चंपक आदि किताबें हुआ करती थीं। मैं जिस मंहगे से मंहगे खिलौने पर हाथ रख देता, पिता जी उसे दिला दिया करते थे। पिता जी को थिएटर का बहुत शौक था। खास तौर पर दरभंगा बिहार की रामनाथ थियेटर कंपनी के ड्रामें उन्‍हें बहुत पसंद थे। कई बार वह मुझे भी अपने साथ ले जाते थे। थिएटर में होने वाले ड्रामों में खास तौर पर सुल्‍ताना डाकू, हरिश्‍चंद तारामती, श्रवण कुमार मुझे बहुत पसंद थे। शायद इसी लिए जब भी मुझे घर से बाहर खेलने जाने का मौका मिलता तो मैं अपने घर के सामने वाले घर के चबूतरे पर अपने साथियों के साथ उन्‍हीं ड्रामों को दोहराने का काम करता। हमारे खेल-खेल में किये जाने वाले उस ड्रामे को देख कर अक्‍सर मोहल्‍ले के बडे़ बूढे़ मेरे पिता जी से कहा करते थे..........सक्‍सेना साहब, आपका बेटा तो एक्‍टर बनेगा। .......और पिता जी हंसते हुए मन ही मन गदगद हो जाते थे। मुझे क्‍या पता था कि नाटक ड्रामों के प्रति इतनी रुचि रखने वाले मेरे पिताजी बाद में इसके विरोधी हो जाएंगे। भूल जाएंगे कि थिएटर आने पर वह रात में घर की कुंडी बाहर से बंद कर ड्रामा देखने चले जाते थे और हम लोग सुबह उनके आने तक घर में बंद रहते थे। ............और अब तो उनकी यही रट है कि नाटक ड्रामा शरीफ घरों के लड़कों का काम नहीं है।
इसी तरह बिना किसी तारतम्‍य की सोचों में डूबता उतराता में कब परवेज लंगडे़ की दुकान तक पहुंच गया, इसका पता ही नहीं चला। परवेज से बात हुई तो उसने बताया कि अभी बाजार मंदा है, इस लिए लखनऊ में चप्‍पलों वाले काम को वह अगले महीने से शुरू करेगा। जिस समय काम शुरू होगा वह मुझे बता देगा। ..........परवेज की इस बात से मैं एक बार फिर निराशा में डूब गया। एक रास्‍ता जो दिखा था उसके दरवाजे खुलने में अभी देर थी।......मैं बड़े अनमने भाव से वहां से उठ गया था। वहां से उठ कर पूड़ी वाली गली में मुंन्‍ना बाजपेई की दुकान पर पहुंचा तो वहां कमल अपने सभी साथियों के साथ मौजूद था। मेरे पहुंचते ही उसने सभी से मेरा परिचय कराया।....... ये मेराज जैदी हैं, तीन बच्‍चों के बाप, कचहरी में मुंशी हैं और बहुत ही अच्‍छे आर्टिस्‍ट हैं। जागेश्‍वर भारती...इनका साडियों पर पेंटिंग का काम है, अच्‍छे चित्रकार होने के साथ ही नाटकों में भी इनका गहरा दखल है। गिरजा शंकर अवस्‍थी.......सप्‍लाई आफिस में क्‍लर्क चार बच्‍चो के पिता। नाटक पर आने वाले खर्च को जुटाने में यह हमारी मदद करेंगे, खुद भी अच्‍छे कलाकार हैं। अरविंद कमल...एक जमीदार परिवार से हैं, केसरगंज जाने वाली सड़क पर इनकी कोठी है, इनके भी अच्‍छे संपर्क हैं, फिलहाल बिजनेस मैनेजमेंट की ट्रेनिंग कर रहे है। डनलप मास्‍टर साहब.........यहीं इंटर कालेज में टीचर हैं और कालेज की सभी सांस्‍कृतिक गतिविधियां इनके द्वारा ही संचालित की जाती है। .................कुल मिला कर परिचय के बाद मुझे एक बात पूरी तरह से समझ में आ गई थी कि उस पूरी टीम में मैं सबसे छोटा था।
.....................खैर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। स्क्रिप्‍ट पढी गई। कास्‍ट तय हुई। मुख्‍य पत्रों में राम के रोल के लिए गिरजाशंकर अवस्‍थी, रहीम के रोल के लिए कमल और फिर इसी तरह सारे पात्र तय हो गए लेकिन नाटक की हिरोइन रजिया के नाम पर आकर बात अटक गई। नाटक के लिए लड़की कहां से लाई जाए। यह अपने आप में एक बड़ी समस्‍या था। उन्‍नाव जैसे छोटे से पिछड़े हुए शहर में कौन अपनी लडकी को नाटक में काम करने देगा ?
अंत में तय हुआ कि गिरजा शंकर अवस्‍थी और अरविंद कमल अपने कुछ परिचित परिवारों में इसकी चर्चा करके देखेंगे। शायद कहीं बात बन जाए। तब तक हम सभी लोग नाटक के प्रचार के लिए वाटर कलर से कम से कम 12 पोस्‍टर बनाएंगे जिसे शहर के मुख्‍य स्‍थानों पर लगाया जा सके। इसके साथ ही नाटक के लिए फंड जुटाने को एक सोविनियर निकालने की बात भी तय हुई जिसके लिए विज्ञापन जुटा कर हम अपने नाटक पर होने वाला खर्च निकालेंगे। यह भी तय हुआ कि नाटक के लिए विज्ञापनदाताओं की लिस्‍ट बना कर हम सभी लोग एक साथ विज्ञापन मांगने चलेंगे। पोस्‍टर बनाने के लिए अगले दिन सभी को कमल के घर पर पहुंचने की बात कह कर हमारी यह मीटिंग खत्‍म हो गई। सभी लोग अपने-अपने घरों को चले गए।
मैं वहीं बडे चौराहे पर पान की दुकान के पास अकेला खड़ा रह गया। यह सोचता हुआ कि खाली इस नाटक ड्रामे से काम नहीं चलने वाला। परवेज वाला मामला भी अभी टल गया। आखिर क्‍या किया जाए...........कहां जाऊं, किससे नौकरी मांगूं............मैने जेब में पड़ी रीजेंट की सिगरेट जला ली थी। अभी दो कश ही मारे थे कि तभी सामने से अनिल बवाली ने आवाज दी.........अरे ओपी, क्‍या हालचाल है। उस दिन क्‍या कह रहे थे तुम.....अनिल मेरे पास आ गया था।
हां, यार उस दिन मै तुमसे बात करना चाह रहा था। मुझे पता चला था कि तुम अपनी आर्केस्‍ट्रा पार्टी बना रहे हो।
हां.........सोचा तो है। अनिल ने बात आगे बढाई। उसने बताया कि वह अभी कल्‍याणी मोहल्‍ले में रहने वाली तारा देवी गुप्‍ता के ग्रुप में गा रहा है। वह सूचना प्रसारण मंत्रालय के स्‍टेज प्रोग्राम करती हैं। प्रोगाम में नाच गाने के अलावा सरकारी योजनाओं का प्रचार प्रसार भी किया जाता है। अनिल ने यह बताया कि उसे एक रात के पचास रुपये मिलते हैं। महीने में अगर दस प्रोग्राम भी मिल गए तो चार पांच सौ रुपये का जुगाड़ हो जाता है................।
.........यह तो बहुत अच्‍छा है, मैने भी तारीफ की, फिर अपना मंतव्‍य स्‍पष्‍ट किया। यार , मुझे भी इसी में कहीं जोड़ न। मेरी इस बात को सुनते ही अनिल ने तपाक से कहा तुझे काम करना है तो अभी मेरे साथ चल। सफीपुर में दो दिन का प्रोग्राम है और इस समय तारादेवी के पास कोई एनाउंसर नहीं है। कालेज में तो तू प्रोग्राम कंपेयर करता है ही। उसे दो-एक जोक, कैरीकेचर वगैरह सुना देना खुश हो जाएगी। बात मेरी समझ में आई और मैं अनिल के साथ तारा देवी के यहां पहुंच गया। आज की भाषा में कहें तो तारादेवी ने मेरा आडीशन लिया और अपने दो दिन के प्रोग्राम के लिए मुझे बुक कर लिया। तारादेवी ने कहा कि अभी वह मुझे एक प्रोग्राम के 25 रुपये देंगी। काम पसंद आने पर इसमें बढौतरी भी हो सकती है।
तारादेवी से दो दिन का प्रोग्राम फाइनल करने के बाद मैं देर शाम बहुत खुशी-खुशी घर लौटा............उस दौर में यह मेरे लिए किसी सफलता से कम नहीं था लेकिन सोच में कहीं यह बात जरूर थी कि मैं घर से क्‍या सोच कर निकला था और बात कहां जा कर बनी........सच, हम नहीं परिस्थितियां ही बनातीं है रास्‍ता।

(क्रमश:)

व्‍यंग्‍य

कड़ी नजर रखे हैं
अपने देश में एक बड़ी अच्‍छी परम्‍परा है। वह है, कडी नजर रखने की। इसकी सर्वाधिक जिम्‍मेदारी पुलिस एवं प्रशासन को सौंप दी गई है। उससे कह दिया गया है कि हर जगह हर स्थिति पर कड़ी नजर रखो। अब दोनों ठहरे अपनी ड्यूटी के पाबंद, सो हर जगह, हर स्थिति पर कड़ी नजर रखे हुए हैं।
जब गुरुद्वारों में गोला बारुद जमा किए जा रहे थे तब भी कड़ी नजर रखे हुए थे। जब पंजाब में हत्‍याएं होना शुरू हुईं तब भी, हवाई जहाजों के अपहरण हुए तब भी, इंदिरा गांधी की हत्‍या हुई तब भी इनकी नजर कड़ी ही थी। चूं कि आदेश था, हर जगह हर स्थिति पर कड़ी नजर रखो।
सिर्फ इतना ही नहीं इंदिरा जी की हत्‍या के बाद दंगे हुए, संत लोंगोवाल मारे गए परन्‍तु इनकी नजर में कहीं कोई मुलाइमियत नहीं आई। एक यही तो खासियत है अपने हिंदुस्‍तान की। यहां जिसे जो काम सौंप दिया जाता है। वह उसे बखूबी निभाता हे। एक बार बता दिया गया कि हर जगह हर स्थिति पर कड़ी नजर रखनी है, तो रखनी है। यहां अपने काम के प्रति हर व्‍यक्ति पूरी तरह से ईमानदार है। जो बाहर से यहां आता है वह भी हो जाता है। कोई एक दूसरे के काम में टांग नहीं अड़ाता। सब अपना अपना अपना काम पूरी मेहनत और लगन से करते हैं।
अब आप ही देखिये, जिसे गोला बारूद जमा करने का काम सौंपा गया वह अपने काम में मस्‍त था। जिन्‍हें हत्‍याएं करनीं थीं वे कर रहे थे। जिन्‍हें दंगा करना था वह दंगा कर रहे थे, पुलिस और प्रशासन को कड़ी नजर रखनी थी, वह रखे हुए थे। कोई किसी को डिस्‍टर्ब नहीं कर रहा था। हर तरफ अमन चैन था। इंदिरा राज था।
अब राजीव राज है। कड़ी नजर रखने के आदेश अब भी बरकरार हैं, और कड़ी नजर रखने वाले भी। हो सकता है कुछ नए आ गए हों। मगर, नजर के कड़कपन में कहीं कोई कमी नहीं आई है। साम्‍प्रदायिक दंगे हो रहे हैं। पंजाब में दनादन हत्‍याएं हो रही हैं। देश इक्‍कीसवीं सदी में जा रहा है। सब आनन्‍द मंगल है।
इस क्रम में पुलिस और प्रशासन से संबद्ध हमारे मित्रों ने आशा व्‍यक्‍त की है कि इक्‍कीसवीं सदी में परिवर्तन के नाम पर लूटमार, दंगा फसाद, आगजनी, पथराव, हत्‍या, बलात्‍कार, जैसे कार्य कम्‍प्‍यूटर के जरिये भले ही होने लगें, परंतु पिछले अनुभवों को देखते हुए उन्‍हें कड़ी नजर रखने का कार्य ही सौंपा जाएगा, क्‍यों कि देश में शांति और व्‍यवस्‍था बनाए रखने के लिए यह बहुत आवश्‍यक है कि हर जगह, हर स्थिति पर पुलिस और प्रशासन अपनी कड़ी नजर रखे।
(अमर उजाला के 11-8 1986 के अंक में प्रकाशित)

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