tag:blogger.com,1999:blog-7927983908007858552024-02-18T21:08:47.123-08:00ओपी की दुनियाop saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.comBlogger19125tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-59402741232009279932018-07-29T01:25:00.003-07:002018-07-29T01:25:43.676-07:00नया अनुभव<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal">
</div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;">सुबह-सुबह बादल का एक टुकड़ा न जाने कब आकर सिरहाने
पर बैठ गया</span><span style="font-family: Mangal, serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> पता ही नहीं चला। बादल के उसी टुकड़े की ओट से
कभी-कभी सूरज बाहर झांकने की कोशिश करता तो मैं भी अपने बदन ही नहीं सिर को भी
चादर में लपेट लेता। ठंडी हवा के झोंके उस गुनगुनी धूप में एक अलग सा अहसास दे रहे
थे। आहटों से लग रहा था</span>,<span lang="HI"> पिताजी ऑफिस जा चुके हैं और भाई बहन
अपने स्कूल। मुझे भी लगा कि अब बिस्तर छोड़ ही देना चाहिए। इसी बीच किचेन से मां
की आवाज सुनाई दी</span>…….<span lang="HI">अब उठ भी जा</span>...<span lang="HI">सोता
ही रहेगा दिन चढ़े तक।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">मां की आवाज के साथ ही मैने भी बिस्तर छोड़ा और
बाथरूम में घुस गया। नहा कर बाहर आया तो मेरे तैयार होने से पहले ही मां ने रात की
बची रोटी</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> सरसों का तेल और नमक चुपड़ कर एक प्लेट में मेरे सामने रख दी</span>…<span lang="HI"> आज नाश्ते में कुछ नहीं बनाया</span>,<span lang="HI"> इसे ही खा ले</span>,<span lang="HI"> वरना बरबाद जाएगी। साथ में एक प्याली चाय भी थी।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">कपड़े पहनते पहनते चाय पी</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> तभी मां की झुंझलाहट भरी आवाज सुनाई दी</span>….<span lang="HI">कितनी बार
समझाया है</span>,<span lang="HI"> ये गीला तौलिया बिस्तर पर मत रखा कर लेकिन किसी
बात पर ध्यान हीं नहीं देता। पता नहीं कहां दिमाग चलता रहता है इसका। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">मुझे भी अपनी गलती का अहसास हुआ</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> शायद इसी लिए चुपचाप सिर झुकाए मैं अपनी डायरी और पेन उठा कर घर से बाहर
आ गया। पैदल पैदल कॉलेज की ओर जाते समय एक बार फिर रोटी वाली गली का खयाल जीवित हो
उठा</span>…..<span lang="HI"> अरे आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया</span>….<span lang="HI">अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला। मैं अंदर ही अंदर तय कर लेता
हूं</span>,<span lang="HI"> एक बार तो उस गली में फिर जाना है। आखिर कौन से ऐसे
कारण होते हैं जब एक 20-22 साल की लड़की इतना बेशर्म हो जाती है। वो कौन सी और
कैसी मजबूरी होती है जब कोई लड़की अपने जिस्म को बेच कर दो वक्त की रोटी जुटाती
है। और भी तो बहुत से छोटे-बड़े काम हैं जिनसे रोटी कमाई जा सकती है</span>,<span lang="HI"> फिर जिस्म बेचने का धंधा ही क्यों। ऐसे ही न जाने कितने सवाल दिमाग को
मथ रहे थे। रेलवे क्रॉसिंग तक पहुंचा तो वहीं रामफूल की पान की दुकान पर ललित और
अनिल बवाली बैठे दिखे। मैं भी धीरे</span>-<span lang="HI">धीरे उन्हीं के पास
पहुंच कर उनके बराबर में ही बैठ गया। ललित ने अपनी आधी पी हुई सिगरेट मेरी ओर बढ़ा
दी। सिगरेट में दो लम्बे-लम्बे कश मारकर मैने वो सिगरेट ललित को वापस लौटा दी।
कुछ राहत सी महसूस हुई। मैं इसी बीच ललित से मुखातिब हुआ</span>….<span lang="HI">यार</span>,<span lang="HI"> एक बात बता</span>……<span lang="HI">कभी कानपुर की रोटी वाली गली में गया
है।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">हां</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI">क्यों नहीं</span>…<span lang="HI">मैं तो कई बार जा चुका हूं।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">मैं भी एक बार वहां जाना चाहता हूं। तू चलेगा मेरे
साथ</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">….<span lang="HI">मैने ललित की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">हां</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">…<span lang="HI">चल न</span>,<span lang="HI"> आज ही चलते हैं</span>,<span lang="HI"> आज तो पैसे भी हैं जेब में</span>…<span lang="HI">ललित ने अपनी ऊपर की पॉकेट पर हाथ मारते हुए कहा। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">अनिल बवाली भी हमारी इस योजना में शामिल हो गया।
फिर हम सबने अपनी अपनी जेबें टटोलीं। कुल मिलाकर हमारे पास ढाई सौ रूपये थे। इतने
में काम हो जाएगा। और फिर हम कॉलेज जाने के बजाय रेलवे लाइन के किनारे किनारे स्टेशन
के लिए चल पड़े। बालामऊ पैसेंजर के आने का टाइम था। स्टेशन पहुंच कर हमने तीन
टिकट लिए और ट्रेन का इंतजार करने लगे। ललित मुझे बता रहा था कि रोटी वाली गली में
कोठेवालियों से किस तरह मोल भाव करते हैं। और मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था।
वह बता रहा था कि किस तरह पुलिस वाले रोटी वाली गली में आने जाने वालों पर निगाह
रखते हैं और गली से बाहर निकलते ही उसे दबोच लेते हैं। फिर वेश्यावृत्ति का डर
दिखाकर उसके सारे पैसे ऐंठ लेते है। कुछ बदमाश कोठेवालियां भी ग्राहकों के सारे
पैसे छीन लेती हैं</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> क्योंकि ग्राहक सामाजिक लोक लाज
के डर से इस छीनाझपटी के बारे किसी को नहीं बताता। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">ललित की बातें सुन-सुन कर मेरा दिल बहुत जोर-जोर से
धड़क रहा था। आसमान पर बादल थे। हवा भी ठंडी चल रही थी</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> लेकिन मेरे माथे पर पसीने की बूंदे साफ नजर आ रही थी। एक अजीब सी उहापोह
की स्थिति थी। मुझे ऐसी जगह पर जाना चाहिए या नहीं। पिता जी को पता चला तो क्या
होगा। कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए। लेकिन एक बार जाने और देखने में क्या हर्ज है।
इन कोठेवालियों की जिंदगी के बारे में कुछ पता तो चलेगा। हो सकता है किसी अच्छी
कहानी का आडिया मिल जाए। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">यही सब सोचते विचारते ट्रेन आ गई और हम सब उसमें
सवार हो गए। सिर्फ आधे घंटे का सफर कर हम कानपुर सेंट्रल पहुंचे और वहां घंटाघर के
पास से रिक्शे की सवारी करते हुए मूलगंज। चौराहे से दायीं ओर मुड़ते ही किनारे पर
एक पुलिस चौकी थी</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> जिसके सामने से होते हुए हम आगे
बढ़े। यहां हमारे बाईं ओर कई पतली पतली गलियां थीं जिन्हें रोटी वाली गली ही कहते
हैं। यहां ललित अपनी चौकन्नी निगाहों से इधर उधर देखता हुए एक गली में घुसा तो हम
भी उसके पीछे हो लिए। उसकी हिदायत के मुताबिक हमने अपनी चाल थोड़ी धीमी रखी थी</span>,<span lang="HI"> ताकि चबूतरों के ऊपर बने कोठरीनुमा कमरों के बाहर खड़ी वेश्याओं को अच्छी
तरह से देख सकें। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">ललित आगे आगे चल रहा था। मैं और अनिल उसके पीछे थे।
इसी बीच हल्की बूंदाबांदी भी शुरू हो गई थी</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> जिससे हमारे
कपड़े भीग रहे थे। मैने ललित से कहा भी</span>,<span lang="HI"> कि कहीं रुक ले</span>,<span lang="HI"> लेकिन उसका कहना था कि इन गलियों में ज्यादा देर रहना ठीक नहीं है।
नतीजतन</span>,<span lang="HI"> इन गलियों का पूरा एक चक्कर लगाने के बाद हम एक पान
की दुकान पर सिगरेट लेने के लिए रुके। तभी ललित ने मुझसे पूछा</span>…..<span lang="HI">क्यों कोई पसंद आई क्या।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">मुझसे जवाब नहीं बन रहा था। गलियों में हुए कीचड़
से उठती दुर्गंध</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> वेश्याओं और ग्राहकों के बीच होता
मोलभाव</span>,<span lang="HI"> इधर उधर से सुनाई देतीं भट्दी गालियों ने दिमाग को
कुंद कर दिया था। तभी ललित ने एक बार फिर पूछा</span>….<span lang="HI">बता न कोई
पसंद आई क्या। इस सवाल पर एक बार फिर मैने दिमाग पर जोर डाला</span>,<span lang="HI"> तो याद आया। गलियों में घूमते वक्त एक कोठे के बाहर एक नेपाली सी दीखने
वाली लड़की नजर आई थी</span>,<span lang="HI"> उसकी उम्र यही कोई बीस से बाइस वर्ष
के आसपास रही होगी। हाइट मुश्किल से पांच फिट</span>,<span lang="HI"> गोरा चिट्टा</span>,<span lang="HI"> भोला सा आकर्षक चेहरा। आंखें ऐसी कि बिना बोले सबकुछ कह दें। सामने से
गुजरते समय उसने हमपर कोई जुमला नहीं उछाला था</span>,<span lang="HI"> और न ही कोई
छींटाकशी की थी। बस वह एक टक हमें देखे जा रही थी। उसकी आंखों में मुझे दुख</span>,<span lang="HI"> दर्द</span>,<span lang="HI"> याचना और मजबूरी जैसे न जाने कितने भाव नजर
आए थे। शायद यही वजह थी कि मैने ललित को उसके बारे में बताया। ललित भी अपनी सिगरेट
जलाते हुए मेरे आगे आगे चल दिया</span>…..<span lang="HI">चल</span>,<span lang="HI">
उसी से बात करते हैं।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">हम दोबारा उस लड़की की कोठरी के सामने पहुंचे तो वह
अभी भी वहीं खड़ी थी। बारिश से भीगे कपड़ों में ठंडी हवा के झोंके कंपकपी पैदा कर
रहे थे। गली में चहल पहल भी पहले के मुकाबले कम हो गई थी। ललित ने लड़की के सामने
पहुंच उसे कुछ इशारा किया। उधर से जवाब आया तीनों का डेढ़ सौ रुपया। फिर मोल भाव
के बाद बात सवा सौ रुपये में पक्की हुई। ललित ने अपनी तेज निगाहों से इधर-उधर
देखा</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> फिर हमें उस लड़की कोठरी में चलने का इशारा कर वह कोठरी में घुस गया। मैं
और अनिल भी उसके पीछे-पीछे अंदर आ गए। छह गुणा आठ फिट की उस कोठरी में चालीस वाट
के बल्ब की रोशनी थी। सामान के नाम पर एक किनारे चारपाई पड़ी थी। उसी के बराबर
में बैठने के लिए दो स्टूल रखे थे। चारपाई के नीचे एक<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>टिफन और कुछ बरतन नजर आ रहे थे। हमारे कोठरी
में घुसते ही उसने उसके दरवाजे अंदर से बंद कर लिए थे। उस वक्त तक मैं ठंड कांप
रहा था। लड़की ने मुझे कांपते देखा तो वह अपने उसी नेपाली लहजे में बोली</span>….<span lang="HI">चाय मंगा लेते हैं</span>,<span lang="HI"> तुमलोग बहुत भीग गए हो।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">उसके इस प्रस्ताव पर मैंने भी सहमति में सिर
हिलाया। तभी उसने कोठरी का दरवाजा थोड़ा सा खोलकर उसमें से झांकते हुए किसी को
आवाज मारी</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">……<span lang="HI">ओए अब्दुल</span>,<span lang="HI"> चार चाय भेज जल्दी।
फिर उसने कोठरी का दवाजा अंदर से बंद कर लिया और हमसे मुखातिब हुई</span>…..<span lang="HI">किधर से आया तुम लरका लोग।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">जवाब ललित ने दिया</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">…..<span lang="HI">किदर से
आया</span>,<span lang="HI"> तुझे क्या</span>,<span lang="HI"> अपने काम से काम रख।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">ललित के इस जवाब पर लड़की का खिला हुआ चेहरा उतर सा
गया। मैं कुछ बोलना चाहता था लेकिन गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी। अगले ही पल
लड़की का चेहरा भी सख्त हो गया</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">……<span lang="HI">चलो काम शुरू करो</span>,<span lang="HI"> कौन आएगा पहले। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">मैने देखा</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> ललित बड़ी तेजी
के साथ अपने कपड़े उतार रहा था। उसने अपने कपड़े वहीं दरवाजे के पीछे लगी कीलों पर
टांग दिए। अब वह सिर्फ अंडरवियर में था। लड़की ने उसे लाइट बंद करने इशारा किया और
खुद चारपाई जाकर लेट गई। अंधेरे में जो कुछ भी हो रहा था उसे ललित और उस लड़की की
सांसों की आवाज से समझा जा सकता था। मुश्किल से पांच मिनट बाद ही ललित ने चारपाई
से उठकर लाइट जला दी। लड़की भी अपने कपड़े समेटती उठ खड़ी हुई। इसी बीच दस्तक हुई
तो लड़की ने दरवाजे को थोड़ा सा खोलकर चाय का छीका पकड़ लिया और फिर दरवाजा अंदर
से बंद कर लिया। हम चारो चाय पीने में लग गए। ललित ने इस दौरान अपने कपड़े पहन लिए
थे।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कोठरी में पूरी तरह खामोशी पसरी हुई
थी। सब चुप थे। मैं बोलना चाहता था</span>,<span lang="HI"> पूछना चाहता था उस लड़की
से उसका नाम</span>,<span lang="HI"> पता</span>,<span lang="HI"> उसकी कहानी</span>,<span lang="HI"> लेकिन ऐसा लग रहा था कि किसी ने गला दबा रखा है</span>,<span lang="HI">
हाथ पैरों को लकवा मार गया है। बाहर बारिश तेज हो गई थी। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">चाय खत्म हुई तो लड़की ने मुझे चारपाई पर आने का
इशारा किया</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> लेकिन मेरे तो जिस्म में जैसे जान ही न थी।
तभी अनिल उठ खड़ा हुआ। एक बार फिर कोठरी की लाइट पांच मिनट के लिए बंद हुई। इस बार
जब लाइट जली तो लड़की चारपाई से उठी नहीं। उसने मुझे अपने पास आने का इशारा भर
किया। मेरी ओर से कोई क्रिया न होते देख उसने मेरा एक हाथ पकड़ अपनी ओर खींच लिया।
मैं भी एक जिंदा लाश की तरह उसे ऊपर जा गिरा। उधर अनिल ने लाइट बंद कर दी। वह मेरे
कपड़े उतार रही थी और मैं पूरी तरह बेजान</span>,<span lang="HI"> निढाल। उसने
फुसफुसाते हुए पूछा</span>…..<span lang="HI">पइली टेम आया इदर</span>….<span lang="HI">डर लग रहा है। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">जवाब में मैं सिर हिलाने तक की हालत में भी नहीं
था। धड़कनें इतनी बढ़ी हुई थीं कि बता नहीं सकता। बस</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> मैं उससे लिपटा हुआ यूं ही पड़ा रहा। वह मेरे शरीर को धीरे धीरे सहला रही
थी। मेरे बालों में उंगलियां फिरा रही थी। लगभग दस मिनट तक हम यूं ही पड़े रहे।
तभी अंधेरे में ललित की आवाज सुनाई दी</span>…..<span lang="HI">अबे क्या कर रहा है</span>,<span lang="HI"> अब छोड़ भी दे उसे। मैं भी ललित की आवाज सुनकर चारपाई से उठ गया और लाइट
जला दी। लड़की भी चारपाई से उठ खड़ी हुई थी। ललित उसे पैसे दे रहा था। एक सौ
पच्चिस रुपये सौदे के और बीस रुपये चाय के। रुपये लेते समय लड़की की आंखों में एक
अलग तरह की चमक थी। रुपयों को उसने अपने माथे से लगाया और फिर वही किनारे रखी टीन
की पेटी में डाल दिया</span>……<span lang="HI">आज सुबह से अबतक का पहला कमाई है ये</span>…<span lang="HI">मौसम खराब हैं न</span>,<span lang="HI"> तभी कोई ग्राहक नहीं आया। पैसा
रखने के बाद उसने कोठरी के दरवाजे की झीरी बना इधर उधर देखा और हमे बाहर जाने का
इशारा किया। ललित और अनिल तेजी से कोठरी से बाहर निकल गए। मैं भी बाहर जाने वाला
था तभी उसने बांह पकड़कर मुझे अपनी ओर खींचा और मेरे माथे पर एक चुंबन जड़ते हुए
मेरे सिर पर बड़े ही प्यार से हाथ फिराया</span>…..<span lang="HI">ये अच्छी जगह नहीं
है</span>,<span lang="HI"> फिर कभी यहां मत आना। उसकी आंखें डबडबाई हुई थीं। आंसू की
दो बूंदें उसके गोरे गालों पर ढुलक आई थीं। बहुत से सवाल मेरी आंखों में भी थे और उसकी
आंखें भी बहुत कुछ कहे जा रही थीं। मगर हम दोनों खामोश थे।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">तभी ललित ने हाथ पकड़कर मुझे उस कोठरी से बाहर खींच
लिया था</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">…..<span lang="HI">अब यहीं खड़ा रहेगा या चलेगा भी। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">फिर उन्हीं गलियों में होते हुए हम मूलगंज वापस आ गए
थे</span><span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">,<span lang="HI"> जहां से रिक्शा लेकर कानुपुर सेंट्रल स्टेशन पहुंचे। पूरे रास्ते मैं खामोश
ही रहा। ललित और अनिल आपस में बातें करते चल रहे थे। उन दोनों ने कब ट्रेन का टिकट
लिया। हम कब ट्रेन पर सवार हुए। कब उन्नाव आया</span>,<span lang="HI"> मुझे कुछ नहीं
पता। माथे पर उस लड़की के नर्म गुलाबी होंठों के चुंबन का अहसास अभी भी बरकरार था।
उसके स्नेहिल स्पर्श ने मेरे पूरे वजूद को झकझोर कर रख दिया था। एक अलग तरह का सुकून
था</span>,<span lang="HI"> उसके स्पर्श में। बिल्कुल वैसा ही जैसा मां के स्पर्श
में होता है</span>,<span lang="HI"> लेकिन वह मां का स्पर्श तो नहीं था। </span>……<span lang="HI">तो फिर क्या था वह। ऊफ</span>…<span lang="HI">मैने तो उसका नाम तक नहीं पूछा।
</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">(<span lang="HI">क्रमश:</span>)</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<br /><br />
</div>
op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-6102298118800922092018-07-03T23:19:00.003-07:002018-07-04T01:04:53.015-07:00दिल बोलता है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हां</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> ये सच है</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…..! </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">दिल बोलता है</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…….</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">बताता है</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> क्या गलत है और क्या सही। </span></span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">उस दिन मेरा भी बोला था</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> मगर जिज्ञासाओं के समंदर की लहरों के थपेड़े
इतना शोर किए हुए थे कि दिल की आवाज उसमें कहीं दब सी गई थी। परवेज मुझे समझा रहा
था- देख शहजादे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> चप्पलों की फैक्ट्री तक इन्हीं गलियों से होकर जाना है। बीच में कहीं
रुकना नहीं</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> मेरे पीछे-पीछे चलते रहना। कोई आवाज दे या फिर इशारा करे तो रुकना नहीं। </span><span style="mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मैं समझ नहीं पा रहा था कि
परवेज मुझे इतना क्यूं समझा रहा है। आखिर ऐसा क्या है इस गली में। खैर</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> मैने भी सिर हिलाकर हामी
भरी और परवेज के पीछे-पीछे हो लिया। मूलगंज की उन तंग गलियों में घुसते ही सस्ते
सौंदर्य प्रसाधनों की गंध मेरे नथुनों से टकराई। गली के दोनों ओर छोटे-छोटे
कोठरीनुमा कमरों जिन्हें लोग कोठे कहते हैं</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> के दरवाजों पर खड़ी लड़कियां और औरतें</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> हर आने जाने वाले को छेड़
रही थी</span><span style="mso-bidi-language: HI;">……..</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अरे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…..</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।</span><span style="mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इसी तरह के और भी न जाने
कितने अल्फाज मेरे कानों में पड़ते जा रहे थे और मैं तेज कदमों से परवेज के
पीछे-पीछे लगभग दौड़ सा रहा था। मेरा दिल बहुत तेजी के साथ धड़क रहा था। इतना तेज
मानो सीने के बाहर निकल पड़ेगा। कोठरियों के बाहर चबूतरों पर खड़ी लड़कियों के
मुंह से निकलने वाली भद्दी गालियां और तमाम अश्लील इशारे। </span><span style="mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">उफ</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> यहां तो एक अलग ही दुनियां
थी। किसी तरह</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> कई संकरी गलियों से होते हुए हम चप्पल बनाने वाली एक फैक्ट्री तक पहुंचे।
रास्ते में</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> मैं तो पूरी तरह चुप रहा लेकिन परवेज पूरी तरह बिंदास</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> एकदम मस्ती के मूड में उन
कोठेवालियों के फिकरों का जवाब देते ठहाके लगाते यहां तक पहुंचा। फैक्ट्री में
घुसते ही चप्पलें बनाने में जुटे कारीगरों के काम करने से होने वाली आवाजों</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> और चमड़े की गंध ने मेरी
तंद्रा भंग कर दी। परवेज मुझसे मुखातिब हुआ</span><span style="mso-bidi-language: HI;">……</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">क्यों शहजादे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> आज देख लिया नजारा मूलगंज की रोटी वाली गली का।
परवेज के इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं इतना डरा और सहमा हुआ था कि
सबकुछ देखने सुनने के बाद भी ऐसा लग रहा था कि मैने कुछ भी नहीं देखा</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> कुछ भी नहीं सुना। मेरा
गला सूख रहा था। फैक्ट्री में ही सामने रखे मिट्टी के एक बड़े घड़े से निकाल कर
दो गिलास पानी पिया</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> तब जाकर राहत महसूस हुई। रास्ते के सारे दृश्य दिमाग में
तूफान उठाए हुए थे। उधर परवेज चप्पलों को देखने और उनका मोल-भाव करने में लग गया
था। तकरीबन एक घंटा हम इस फैक्ट्री में रहे। परवेज ने यहां से चार बोरी चप्पलें
खरीदीं। वह खुश था</span><span style="mso-bidi-language: HI;">……</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">बहुत बढिया माल मिला है प्यारे। पंद्रह रुपये जोड़ी खरीदी
हैं</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> पैंतीस रुपये में आराम से बेच डालूंगा</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…….</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एक रिक्शा तो पकड़ स्टेशन तक का</span><span style="mso-bidi-language: HI;">……</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">उसने मुझे इशारा किया। मैं
फैक्ट्री से बाहर आया और एक रिक्शे वाले को रोका। </span><span style="mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">परवेज ने चप्पलों से भरे
चारो बोरे रिक्शे पर लाद दिए और उन्हीं बोरों पर हम भी सवार हो गए। रिक्शा चला
ही था कि उसने रिक्शे वाले को हांक मारी</span><span style="mso-bidi-language: HI;">………</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">शहजाद के होटल पर रोकना</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> कुछ खा पीकर चलेंगे। मैंने
परवेज की ओर सवालिया नजरों से देखा तो उसने मुझे आश्वस्त किया</span><span style="mso-bidi-language: HI;">……</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">कबाब परांठे खिलाता हूं
तुझे। क्या कबाब बनाता है</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> खा के देखना। मजा न आए पैसे वापस। उसके इस अंदाज पर मैं
मुस्करा भर दिया।</span><span style="mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">शहजाद का होटल आ गया था। हम
दोनों रिक्शे से उतरे और होटल में जाने लगे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> तभी परवेज ने रिक्शे वाले को भी आवाज दी</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> अरे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> तू भी आ न भाई</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> वहां क्यूं खड़ा है। छोड़
दे रिक्शा वहीं बाहर</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> कोई नहीं ले जा रहा सामान। रिक्शे वाला भी हमारे साथ होटल
में अंदर आ गया। वह दूसरी टेबल पर बैठने लगा तो परवेज ने हाथ पकड़ कर उसे अपने पास
बिठा लिया। अरे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> यहां बैठ न हमारे साथ। और फिर हांक मारी</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…..</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">शहजाद भाई</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> </span></span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">तीन प्लेट कबाब परांठे लगा
दो</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> मगर जल्दी</span><span style="mso-bidi-language: HI;">….</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ट्रेन छूट जाएगी। उधर गद्दी पर बैठे शहजाद ने भी सुर में
सुर मिलाया</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…..</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अभी लाया भाई। अरे ओ फरीद</span><span style="mso-bidi-language: HI;">……</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">दो नंबर पे
तीन कबाब परांठे लगा</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> बहुत जल्दी।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">कबाब परांठे खाने के बाद हम कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन आ
गए। चप्पलों के बोरे ट्रेन में लाद दिए गए। परवेज को सीधे लखनऊ जाना था और मुझे
उन्नाव में उतर जाना था। ट्रेन चलने में अभी देर थी। परवेज प्लेटफार्म के एक
किनारे पर खड़ा विल्स नेवीकट की सिगरेट फूंक रहा था और मैं वहीं एक बेंच पर बैठा
था। रोटी वाली गली का माहौल अब भी मेरे दिमाग में घूम रहा था। रही कोठों की बात तो
उस समय तक कोठों के बारे में मुझे उतना ही ज्ञान था</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> जितना फिल्मों में देखा
था</span>,<span lang="HI"> लेकिन यहां तो कुछ और ही नजारा देखने को मिला। यही वजह
थी कि सवाल पर सवाल मेरे किशोर मन को मथे जा रहे थे। इसी बीच ट्रेन चलने को हुई तो
परवेज और मैं डिब्बे के अंदर आ गए। ट्रेन चल पड़ी लेकिन मैं पूरी तरह खामोश था।
परवेज हमेशा की तरह जुआरियों की मंडली में जाकर बैठ गया था। बात-बात पर उसके ठहाके
पूरे डिब्बे में गूंज रहे थे</span>,<span lang="HI"> और मेरे जहन में गूंज रहे थे रोटी
वाली गली की <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>वेश्याओं के वो शब्द</span>……</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> अरे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> आ न। एक घंटे का सिरफ पचास रुपया</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…..</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अरे रुक तो सही मेरे राजा।
नामरद है साला।</span><span style="mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ट्रेन उन्नाव जंक्शन पर
रुकी तो मैने परवेज को हांक मारी। भाई परवेज चलता हुं मैं</span><span style="mso-bidi-language: HI;">….!<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">परवेज ने भी वहीं जुआरियों
के पास बैठे - बैठे हाथ हिला कर सहमति दी</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…….</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ठीक है शहजादे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> फिर मिलते हैं। </span><span style="mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">उसे लखनऊ जाना था। मैं उन्नाव
स्टेशन के प्लेटफार्म पर ट्रेन से उतरा तो शाम हो चुकी थी। सिर बहुत भारी-भारी
सा लग रहा था। जैसे किसी ने एक बोझ सा रख दिया हो उसपर। पैदल-पैदल पूड़ी वाली गली</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> बड़ा चौराहा और छोटा
चौराहा होते हुए मैं घर पहुंच गया था। मां ने पूछा भी</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…..</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">कहां था पूरे दिन। इस सवाल
का कोई जवाब नहीं था मेरे पास। मुंह हाथ धोकर बाहर के कमरे में एक किताब लेकर बैठ
गया। पिता जी अंदर के कमरे में हमेशा की तरह बड़बड़ा रहे थे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">………</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">कुछ करना धरना नहीं है इसे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> दिन भर आवारा लड़कों के
साथ घूमता फिरता है। घर में बिना कुछ किए धरे रोटी मिल जाती है। जब कमा के लाएगा
तब पता चलेगा कि रोटी की कीमत क्या होती है। </span><span style="mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पिता जी की आवाज हमेशा की
तरह कानों में सीसा घोल रही थी</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">। इस आवाज को सुन झुझला उठा था मैं। हुंह</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">….<span lang="HI">इस घर
में तो एक पल भी चैन से नहीं बैठ सकता</span>….<span lang="HI">। हाथ में पकड़ी
किताब को वही मेज पर पटकते हुए मैं कमरे से बाहर जाने लगा तो मां ने पीछे से आवाज
दी</span>……<span lang="HI">अरे</span>,<span lang="HI"> अब कहां जा रहा है</span>…..<span lang="HI">कुछ खा तो ले।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">नहीं खाना है मुझे</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">….<span lang="HI">मैं गुस्से में पैर पटकते हुए फिर </span></span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">घर से बाहर आ गया था। मन बहुत अशांत था। आखिर</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> इस घर को तो छोड़ना ही
होगा। मैं घर से चला जाऊं तो पिताजी पर कम से कम एक आदमी के खर्च का बोझ तो कम हो।
मेरे कदम धीमे-धीमे तहसील के सामने वाले ढाबे की ओर बढ़ रहे थे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> जहां शाम से ही भजन मंडली
के लोग जमा होते थे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">….</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">जैसे-जैसे ढाबा करीब आ रहा था</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> ढोलक और मजीरे की ताल पर
भजनहारों की आवाजें सुनाई पड़ने लगी थीं</span><span style="mso-bidi-language: HI;">….. </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मंगल भवन</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> अमंगल हारी</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> द्रवहु सो दशरथ अजर बिहारी</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">रामा हो रामा। थोड़ी देर
वहीं बैठा लेकिन मन बेचैन था</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> अंदर ही अंदर कुछ उबल सा रहा था</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">। शायद यही वजह थी की
बड़े अनमने मन से वहां उठा। शाम पूरी तरह ढल चुकी थी। अंधेरा हो गया था और मैं
सड़क के किनारे किनारे यूं ही चला जा रहा था। न कोई मंजिल थी और न ठिकाना। बस</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> यूं
ही चला जा रहा था। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">देर रात घर लौटा तो</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> पिताजी सो चुके थे। मां </span>,<span lang="HI">जाग रही थी। उसने ही दरवाजा खोला था एक सवाल के साथ</span>….<span lang="HI">कहां भटकता रहता है आधी आधी रात तक</span>…<span lang="HI">और मैं चुप। कोई
जवाब न मिलता देख वह किचेन की ओर चली गई थी</span>…..<span lang="HI">बैठ वहीं</span>,<span lang="HI"> खाना लाती हूं</span>,<span lang="HI"> खा ले</span>,<span lang="HI"> सुबह
से यूं ही घूम रहा है।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">मैं बाहर वाले कमरे में ही बैठ गया था और वह खाने की थाली
टेबल पर रख कर पास ही खड़ी हो गई थी</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> मेरे सिर पर हाथ फिराते हुए। क्यूं परेशान
होता। तेरे पिता जी तो बूढ़े हो गए हैं</span>,<span lang="HI"> इसी लिए हर समय कुछ
न कुछ बोलते रहते हैं। घर की हालत तो तुझे पता ही है। मैं खाना खाने की कोशिश करता
हूं लेकिन दो चार कौर से ज्यादा नहीं खा पाता। अब भूख नहीं है मां</span>…<span lang="HI">मैं खाने की थाली मां के हाथ में थमा बाथरूम में चला जाता हूं। फिर कुल्ला
करके आंगन में लगे अपने बिस्तर पर</span>…<span lang="HI">अब तुम भी सो जाओ मां। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">और फिर दिन भर की थकी हारी मां भी</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> थाली
को किचेन में रख</span>,<span lang="HI"> अपने बिस्तर पर निढाल हो गई थी।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">मैने भी चारपाई के पायताने पर रखी चादर सिर तक खींच ली थी।
नींद तो आंखों से मीलों दूर थी। मूलगंज की रोटी वाली गली के वो दृश्य आंखों में
तैर रहे थे। मैं अपने आप को उसे वेश्या के उन शब्दों से अलग नहीं कर पा रहा था</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-language: HI;">….</span><span style="mso-bidi-language: HI;">……..</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अरे</span><span style="mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> आ न। एक घंटे का सिरफ पचास
रुपया</span><span style="mso-bidi-language: HI;">…..</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अरे रुक तो सही मेरे राजा। नामरद है साला।</span><span style="mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">(क्रमश:)</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<br /></div>
op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-37158341230826889442013-11-28T20:38:00.001-08:002013-11-28T20:38:54.245-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-7305798746886002512010-05-26T09:14:00.000-07:002010-05-26T09:40:44.384-07:00ये हैं हमारे कमल किशोर सक्सेना<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPcblL8VclaiqUApypcsMwMfKm9AXHa4JGdw4qubhNw08rhtuThl540BD1Q3M4qmObvFFrGu_QBa8-yF9aRROrekC9QytjgmG7RK45ZWZ9pTRofyQiGlFccBvMKZQ-IGuw18JDmRs4pMhB/s1600/kamal+kishor+saxena.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5475619317224667282" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 168px; CURSOR: hand; HEIGHT: 220px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPcblL8VclaiqUApypcsMwMfKm9AXHa4JGdw4qubhNw08rhtuThl540BD1Q3M4qmObvFFrGu_QBa8-yF9aRROrekC9QytjgmG7RK45ZWZ9pTRofyQiGlFccBvMKZQ-IGuw18JDmRs4pMhB/s320/kamal+kishor+saxena.jpg" border="0" /></a><br /><div>ये हैं मेरे अभिन्न मित्र और प्रेरक कमल किशोर सक्सेना। इन्हीं की प्रेरणा से मैने व्यावसायिक लेखन की दुनियां में कदम रखा था। पत्रकारिता भी इन्हीं के साथ रह कर सीखी। आजकल कमल जी पटना में हैं। एक दौर था जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के व्यंग्य लेखकों में श्रद्धेय केपी सक्सेना के बाद अगर किसी व्यंग्य लेखक को पहचाना जाता था तो वह हमारे कमल किशोर सक्सेना ही थे। दैनिक जागरण में वह नियमित रूप से छपते थे। रेडियों के लिए इन्होंने तमाम 'हवामहल' लिखे। 'सस्ते दामाद की दुकान' उनकी चर्चित व्यंग्य रचना थी। वक्त के थपेड़ों ने इनकी सारी मेधा को दारू में डुबो दिया। अब नए सिरे से लिखना शुरू किया है। मेरी ओर से बहुत बहुत शुभकामनाएं। इन्होंने अपना एक ब्लाग भी अभी हाल ही में बनाया है।<br />मित्रों वक्त मिले तो कमल जी के ब्लाग कमल के किस्से डाट ब्लागस्पाट डाट काम पर अवश्य लॉगइन करें।</div>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-90613312869742814712010-03-20T10:13:00.001-07:002010-03-20T10:15:56.553-07:00जियो तो ऐसे…………..<span style="font-size:130%;">गौर से देखें तो पाएंगे, जिंदगी हर कदम एक नया सबक देती है। जाने अनजाने, हम उस सबक को पढ़ते हैं। भूल जाते हैं, लेकिन इससे वह सबक निष्प्रयोज्य नहीं हो जाता। वह हमारे अंदर कहीं न कहीं अपनी एक जगह बना लेता है। भाषा के स्तर पर। संवेदना के स्तर पर। सोच के स्तर पर। नजरिए के स्तर पर……।<br />याद नहीं, वह दिन कौन सा था। उस दिन, जिंदगी के एक नए सफर की तैयारी हुई थी। नए अनुभव की तैयारी। बड़े चौराहे से लौटते हुए अचानक परवेज लंगड़े ने आवाज दी, तो मैं उसकी दुकान की ओर बढ़ गया।<br />दरअसल तारा देवी और स्टेज प्रोग्राम के चक्कर में मैं परवेज लंगड़े वाली योजना को भूल ही गया था।<br />दुकान पर पहुंच कर, दुआ सलाम के बाद वहीं चप्पलों की एक गठरी पर बैठ गया। कैसे हो परवेज भाई…..मैने सवाल किया। मै तो ठीक हूं यार तुम कैसे हो….परवेज ने मेरी ओर देखा।<br />ठीक हूं…मैने जवाब दिया। वो, क्या है कि तारा देवी गुप्ता के साथ स्टेज प्रोग्राम कर रहा था। इसी लिए इधर आना नहीं हुआ। ठीक है यार, कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। परवेज ने मुझे प्रोत्साहित किया और साथ ही एक हांक मारी।……….अरे ओ कलुआ। दो चाय ले आ मलाई मार के। यार आया है अपना। परवेज एक बार फिर मुझसे मुखातिब हुआ। कानपुर चलेगा…..माल लेने जाना है। चल, घुमा के लाता हूं ?<br />मैने भी सहमति में सिर हिला दिया।<br />चाय आ गई थी। वही धरमशाले के सामने के ठेले वाले की चाय। 15 पैसे की एक कप। गजब का स्वाद होता था उस चाय में। पूरे उन्नाव में इससे सस्ती चाय कहीं नहीं मिलती थी। यही वजह थी कि सुबह से शाम तक वहां लाइन नहीं टूटती थी। ऐस लगता था जैसे पूरा शहर चाय पर ही जिंदा है। सबको चाय चाहिए। खैर, चाय खत्म कर हम दोनो दुकान से उठे ओर पूड़ी वाली गली होते हुए रेलवे स्टेशन आ गए। रास्ते में परवेज ने विल्स की एक सिगरेट भी पिलाई। उस समय चार आने की एक सिगरेट आती थी। मैं तो दस पैसे वाली रीजेन्ट से ही काम चला लेता था, लेकिन जब परवेज साथ होता था तो वह मुझे रीजेंट नहीं पीने देता था। जेब में भरी नोटों की गड्डी पर हाथ मार कर बोलता था- यार, कमाते किस दिन के लिए हैं, खाओ पिओ, ऐश करो, क्या रखा है इस दुनिया में। सब यही रह जाना है। सच, परवेज की इस बिंदास तबीयत पर मैं फिदा था। कोई चिंता नहीं, न पढ़ाई की, न लिखाई की, न परिवार की, न घर की, बार की, न व्यापार की। जो मिला पहना, जो मिला खाया, जहां नींद आई वहीं सो गए। बिल्कुल अलमस्त। फकीरों से भी कहीं आगे। ……..और एक मैं था। चिंताओ का पिटारा। क्या खाऊं, क्या पहनूं, क्या पढूं, कहां जाऊं, क्या करूं। ओफ……….लगता था पागल हो जाऊंगा।<br />मैं अभी विचारों के समुंदर में तैर ही रहा था कि परवेज ने मेरी पीठ पर एक धौल जमाई- अरे कहां गुम हो गए शहजादे।<br />वह जब ज्यादा मस्ती में होता, तो मुझे इसी नाम से पुकरता था।<br />ट्रेन आ चुकी थी। वही बालामऊ पैसिंजर। दूधियों की ट्रेन। जिसपर रेलवे का कोई कानून लागू नहीं होता। किसी को बींड़ी सिगरेट लेना रह गया हो तो ड्राइवर या गार्ड को हांक मार कर अगली क्रासिंग पर ट्रेन रुकवा लेता, और फिर वापस आकर हॉक मार देता। हां, भाई चलो ड्राइवर साहब। और ट्रेन फिर चल देती। सिर्फ इतना ही नहीं ,कालेज गोल कर पिक्चर देखनी हो तो भी इससे मुफीद कोई और सवारी नहीं। डेढ़ रुपये का आना-डेढ़ रुपये का जाना।<br />परवेज के साथ मैं भी ट्रेन में सवार हो गया। परवेज बता रहा था कि आजकल धंधा ठीक चल रहा है। लखनऊ चारबाग रेलवे स्टेशन की छोटी लाइन की फुटपाथ पर फड़ लगा कर अच्छी कमाई हो रही है। मूलगंज से माल (चप्पलें) उठा कर लखनऊ भेजना है।<br />‘ एक चप्पल की कीमत क्या होगी ’-मैं भी धंधे की बारीकियां समझने की कोशिश करने लगा। परवेज बता रहा था। थोक में एक जोड़ी चप्पल साढ़े सात रुपये की पड़ती है और बीस से पच्चीस रुपए जोड़ी में आसानी से बिक जाती है। और ज्यादा कमाई करनी हो तो रिपिट का काम और जोड़ लो। मेरे पास तो कोई लड़का नहीं है। वरना नोट तो बोरों में भरके लाऊं।<br />उस दौरान परवेज की बातें सुन कर ऐसा लगता था कि दुनियां में उससे धनवान और उससे बड़ा व्यापारी और कोई नहीं है। कभी-कभी तो मैं तुलना करने लगता था। एक ओर होते थे पुराने जमाने के मैट्रिक पास मेरे पिता जी जो, हर महीने मां के साथ बैठ कर अपनी तनख्वाह के चंद हजार रुपयों का हिसाब किताब जोड़ते। मकान का किराया, दूध वाले का बिल, बिजली का बिल, बच्चों की फीस, ईंधन, राशन, सब्जी और न जाने क्या-क्या। दोनों की बातचीत जब अंतिम पड़ाव पर पहुंचती तो कुछ इस तरह के फैसले होते। गुड्डन (मेरी छोटी बहन) की स्कूल की ड्रेस अगले महीने देखेंगे। काम वाली को हटा दें तो ठीक रहेगा।……….और दूसरी ओर अनपढ़ परवेज। एकदम अलमस्त। यार ओपी, चल तुझे कबाब पराठे खिलवाता हूं। मूलगंज में रोटी वाली गली तक तो चलना ही है। सामने कोई भिखारी आ गया, कोई लाचार दिख गया तो परवेज अपनी पूरी जेब भी खाली कर सकता था। मैं गवाह हूं इसका। कई बार माल लेने जाते वक्त ट्रेन में परवेज अपने सारे पैसे गरीबों में बांट दिया करता था। मैं पूछता, अब माल का क्या होगा ? वह हंस देता। होना क्या है, माल आएगा। जेब में पड़ी विल्स फिल्टर की डिब्बी और आखिरी बचे दस के नोट को हवा में लहराता हुआ वह ट्रेन में जुआ खेल रहे लोगों के बीच जा कर बैठ जाता। गजब का कानफीडेंस था उसमें, जो पिताजी में कभी देखने को नहीं मिला।<br />पिताजी खर्च में जितना कतर ब्यों करते, उतना ही दुखी नजर आते। परवेज जिस बेतरतीबी से खर्च करता, उतना ही मस्त नजर आता। मै भी मन ही मन फैसला कर लेता हूं। एक बार जरूर इसके धंधे में हाथ डाल कर देखूंगा। उस समय परवेज मेरा रोल मॉडल बन गया था। एक पैर से कमजोर होने के बावजूद गजब की हिम्मत थी उसमें। गजब की जिंदादिली। वह अक्सर कहता था-‘ शहजादे, जियो तो ऐसे, जैसे कि सब तुम्हारा है, मरो तो ऐसे, जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं ।’<br />ट्रेन कानपुर पहुंच जाती है। हम दोनो पैदल-पैदल घंटाघर पहुंचते हैं, और वहां से रिक्शा पकड़ मूलगंज। चौराहे पर उतरते ही दाहिनी ओर मेस्टन रोड जाने वाले रास्ते के शुरू में ही बाएं किनारे पर पुलिस चौकी और फिर लगभग सौ कदम आगे चलते ही दुकानों के बीच से जाने वाली कुछ पतली-पतली गलियां और उनमें ताक-झांक करते कुछ लोग।<br />इन गलियों की चर्चा तो बहुत सुनी थी। देखने का मौका आज मिला। यह कानपुर की बदनाम बस्ती थी। थी, इस लिए कि अब वहां ऐसा कुछ भी नहीं है।<br />(क्रमश:)</span>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-51043784071985331942010-01-25T10:40:00.000-08:002010-01-25T10:49:42.649-08:00एक वर्ष बाद<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghhWhgS2dzdJm8T8q-0bmWuakOTSIgBstn7kpfP3IH110zGkt_sS2wKcq93Wplh0x8f6q5XtMey9eXTjZtnvONlSlY2rKwDE6LQ86RNtMobU7VfLJikkVWQBRWn8k2AKnEI8OmVHATMwoC/s1600-h/miraz.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5430750095288640530" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 213px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghhWhgS2dzdJm8T8q-0bmWuakOTSIgBstn7kpfP3IH110zGkt_sS2wKcq93Wplh0x8f6q5XtMey9eXTjZtnvONlSlY2rKwDE6LQ86RNtMobU7VfLJikkVWQBRWn8k2AKnEI8OmVHATMwoC/s320/miraz.jpg" border="0" /></a> <span style="font-size:130%;">पूरे एक वर्ष बाद आज फिर लिखने बैठा हूं। जैसा कि मैने पहले ही कहा था कि किसी भी काम को शुरू करना बहुत मुश्किल होता है, और उसे अंजाम तक पहुंचाना और भी मुश्किल। वक्त के थपेड़े कहां से कहां उड़ा ले जाते हैं। ऐसा ही एक थपेड़ा मुझे भी लगा, अभी पिछले दिनों। तो ब्लाग पर कोई पोस्ट डालने का मौका ही नहीं लगा। जिंदगी को सहेजने में ही </span><br /><span style="font-size:130%;">पूरा एक साल बीत गया। आज मैं बहुत खुश हूं। पहली खुशी इस बात की कि एक दोस्त के एसएमएस ने नए सिरे से लिखने का हौसला दिया है। उसका एसएमएस था- सुना था जि़दगी इम्तहान लेती है, मगर ये साले इम्तहान तो जिदगी लेने पर लगे हैं।<br />जाने क्यूं इस एसएमएस ने एक बार फिर लिखने का हौसला दिया है। मुझे लगा कि इम्तहान तो चलते रहेंगे। जिंदगी इतनी आसान नहीं कि कोई इम्तहान इसे समेट ले जाए। रही दूसरी खुशी की बात तो वह यह कि आज मुझे अपना 21 साल पहले खोया हुआ एक दोस्त मेराज जैदी मिल गया। उसकी तस्वीर भी मिली जो इस पोस्ट के साथ आपके सामने है। अपनी पिछली पोस्ट में मैने उसका जिक्र किया था कि उसने ही उन्नाव की कचहरी में एक वकील के यहां मुझे मुंशीगीरी का काम दिलाया था। उस समय वहां कचहरी में उससे अच्छा कोई मुंशी नहीं था। आज पता चला कि वह मुम्बई में है। उससे आज फोन पर बात भी हुई। टीवी सीरियल्स के लिए स्क्रिप्ट एवं डायलाग लिख रहा है।<br />मेराज से बात कर आज फिर मुझे वही शेर याद आ रहा है जिस शेर पर मैने अपनी पिछली पोस्ट को समाप्त किया था:- खुली छतों के दिये कब के बुझ गए होते, कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।सच, हम सभी दोस्त खुली छतों के दिये जैसे ही तो थे। आज मेराज के रूप में एक खोया हुआ दिया मिला है जो मुम्बई में अपनी रोशनी बिखेर रहा है। मुझे उम्मीद ही नहीं भरोसा है कि हमारी दोस्ती के दिये जहां जहां भी होंगे, वहां रोशनी की कोई कमी नहीं होगी।<br />मित्रों, अगली पोस्ट में अपनी उसी कहानी पर वापस लौटूंगा जहां से मैं अचानक लापता हो गया था। कोशिश करूंगा कि हर सप्ताह कम से कम एक पोस्ट आपको जरूर पढ़ने को मिले।<br />नेट से मेराज को जो प्रोफाइल मिला है वह इस प्रकार है:-</span><a name="MAIRAJ__ZAIDI"><span style="font-size:130%;"> </span></a><span style="font-size:130%;">MAIRAJ ZAIDI (born 22.11.1949 at Chaudhrana, Unnao)<br />Stage Artist & Dialogue Writer.<br />Stage Plays'Agra Baazar' directed by Habib Tanveer (68 shows ).'Charan Das Choor' directed by Habib Tanveer (8 shows).Contribution : He acted in these Plays.<br />'Curfew' adopted from Novel 'Shahar Mein Curfew' written by Vibhuti Narain Rao'Tamacha' 'Raj Darshan'Contribution : Direction, Screen Play, Acting & Dialogue Writing.<br />T.V. Serials 'Raja Ka Baaja' directed by Sayeed Mirza (27 episodes have been telecast on DD-I)'Farz' : Nimbus Productions (17 episodes.)'Chamatkaar' directed by Partho Ghosh. (6 episodes)'Rishtey' (Telecast on Sony)Contribution: Dialogue Writing.'Ghadar - 1857' based on The First war of Independence directed by Sanjay Khan.Contribution: Research Story, Screen Play & Dialogue Writing.<br /><br /><br /></span><span style="font-size:130%;"></span>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-68973037295571902332009-01-30T12:55:00.000-08:002009-01-30T12:57:12.368-08:00<span style="font-size:130%;"><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">धार्मिक होना भी जरूरी<br /></span> धर्म चाहे कोई भी हो, मेरा मानना है कि व्यक्ति का धार्मिक होना भी जरूरी है। आज हम जिस हिंदू मुसलमान सिख या ईसाई के नाम पर आपस में लड़ते झगड़ते हैं, वह वास्तव में धर्म नही है। हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई तो अलग अलग संप्रदाय हैं। हम उनके अनुयायी मात्र हैं। संप्रदायों में वर्चस्व को लेकर झगड़ा हो सकता है। धर्म पर कोई झगड़ा नहीं। मेरा मानना कि, धर्म हमें संकटों से उबरे की शक्ति देता है। धर्म हमें अपने कर्तव्य मार्ग पर चलन की प्रेरणा देता है। जब हम यह मानते हैं कि इस सृष्टि से अलग कोई एक सर्वशक्तिमान है और हम सब की डोर उसके हाथ में है, तो हम बड़े से बड़े संकट के समय में भी रिलैक्स हो जाते है। एक तरह से कहा जाए तो धर्म आस्था और विश्वास का दूसरा नाम है। वह अलग बात है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण इससे बिल्कुल अलग है। उनकी भाषा में यही कहा जाता है कि जहां विश्वास होता है वहां ज्ञान नहीं होता, लेकिन कभी कभी मानसिक शांति के लिए ज्ञान शून्यता एवं विचार शून्यता एक औषधि का कार्य करती है। संभवत: इसे ही ध्यान कहते हैं। जो व्यक्ति इस स्थिति से गुजर जाता है वह वह बड़े से बड़े संकट का सामना कर अपने आप में एक ऐसी ऊर्जा का समावेष कर लेता है जो जीवन पथ पर आगे बढ़ने में उसकी मदद करती है।<br />यहां धर्म चर्चा मैं सिर्फ इस लिए कर रहा हूं कि जिन संकटों से गुजर कर मेरे पिता जी ने अपने परिवार को संभाला वह ईश्वर के प्रति उनकी अगाध आस्था और विश्वास का ही परिणाम था। ऐसा वह अक्सर कहा करते थे....और यह आस्था एवं विश्वास उन्हें अपने पूर्वजों से संस्कार में मिला। कुछ ऐसे ही संस्कार मुझमें भी रहे। मेरी ननिहाल में तो भक्ति रस की गंगा बहती थी। हमारे नाना बाराबंकी के पीरबटावन मोहल्ले में रहा करते थे। अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में हम लोग वहां जाया करते थे। नाना जी का नियम था कि वह सुबह चार बजे सभी को जगा दिया करते थे और फिर खुद हारमोनियम लेकर प्रभाती गाते थे और हम सभी उनके साथ स्वर मिलाया करते थे। उनकी वह प्रभाती आज भी मुझे याद आती है........जागिए कौशल किशोर पंछी गण बोले, जागिए कौशल किशोर।<br />मुझे अभी भी याद है जब नाना जी रेलवे से रिटायर होने के बाद घर में ही ईश्वर भजन में लीन रहते थे। इसके अलावा उन्हें होम्योपैथी का भी अच्छा ज्ञान था इस लिए वह अपनी पेंशन के कुछ पैसों से दवाएं खरीद कर लाते थे और मोहल्ले के उन लोगों का नि:शुल्क इलाज किया करते थे जो गरीब थे। छुट्टियों में हम लोगों के पहुंचने पर वह हमे अपने साथ विभिन्न संतों के सत्संग में ले जाते थे। घर में खाली समय मिलता तो वह हमे रामायाण, सुख सागर और गीता जैसे ग्रंथ देकर कहते कि हम उसे पढ़ कर उन्हें सुनाएं। इस प्रक्रिया का लाभ आज हमें समझ में आता है। बचपन में विभिन्न धर्मग्रंथों के पाठ ने जहां हमारी भाषा को समृद्ध किया वहीं धर्म के प्रति हमारी आस्था को मजबूत किया। इसी ने हमें गरीबों की सहायता, दीन दुखियों की मदद और सत्य की राह पर चलने का हौसला भी दिया। काम, क्रोध, लोभ, मोह से मुक्त होने की सीख दी।<br />वह अलग बात है कि, जीवन की राहों पर जिस नए सत्य से हमारा साक्षात्कार हुआ उसके चलते हम तमाम बार व्यक्गित हितों के लिए इन राहों से भटके। कभी जानबूझ कर तो कभी अनजाने में......लेकिन अच्छे संस्कारों ने हमें हमेशा बाचाए रखा। मैने कभी भी यह दावा नहीं किया कि मैं सत्यवादी हरिश्चंद हूं। मैं एक आदर्श व्यक्ति हूं। मेरा अनुकरण किया जा सकता है। ऐसा मैने कभी नहीं कहा। मैं हमेशा एक सामान्य व्यक्ति की तरह जिया। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप समय-समय पर बदलता रहा। .........क्यों कि मैं जानता था कि इस परिवर्तनशील समय में अगर मैने अपने आप को नहीं बदला तो जीवन की दौड़ में कहीं पीछे छूट जाऊंगा।<br />मैं पीछे छूटना नहीं चाहता था। कर्म को प्रधान मानते हुए मैं कोशिशों में लगा रहा। कुछ दिनों बाद मेराज ने बताया कि उसने एक वकील साहब से बात की है। अगर मैं चाहूं तो उनके यहां मुंशी का काम कर सकता हूं। मेराज की बात सुनकर मैने भी हां कर दी और अगले दिन से काम पर पहुंच गया। बड़े मुंशी ने मुझे मुकदमों से संबंधित कोर्ट के कागजात तैयार करने बताए। पांच रूपये रोज पर बात तय हुई थी। मैं पूरी मेहनत और लगन से काम करने लगा। शाम को बड़े मुंशी कचहरी से मेरे साथ सब्जी मंडी तक पैदल आते थे और वहां से सब्जियां खरीद कर अपने बच्चों के लिए कु्छ न कुछ मिठाई आदि लेकर तब घर जाते थे। बड़े मुंशी की ड्यूटी सुबह आठ बजे वकील साहब के घर से शुरू होती थी। वकील साहब के घर का सामान लाना। मिलने जुलने आने वालों को चाय आदि पिलाना भी बड़े मुंशी की ड्यूटी में शामिल था। इसके बाद वह दस बजे कचहरी आ जाते थे। पूरे दिन काम कर मुंशी जी को तीस से चालिस रुपये रोज की आमदनी थी। इसी आमदनी से उनके परिवार का भरण पोषण होता था। मुंशी जी भी अपनी इस स्थिति से पूरी तरह संतुष्ट थे। वह बताते थे कि, वह जब कचहरी पहली बार आए थे तो उनकी उम्र सिंर्फ अठारह साल की थी और आज वह 40 वर्ष के हैं। मुंशी जी की बातें मेरे अंदर विचारों का एक ऐसा तूफान खड़ा कर देती थीं कि मैं कभी कभी तो घंटो मुंशी जी के बारे में ही सोचता रह जाता था, और फिर अपने आप से यह सवाल करता था कि क्या मैं भी मुंशी जी की तरह ही..................।<br />नहीं नहीं , मैं बहुत तेजी के साथ अपना सिर झटक देता था। इतने से गुजारा नहीं होगा। वह और बात थी कि जब से मैने कचहरी जाना शुरु किया था मैंने अपने खर्च के लिए घर से पैसे लेना बिल्कुल बंद कर दिया था। बीच बीच में तारा देवी गुप्ता के स्टेज प्रोग्राम भी मिल जाते थे। इस तरह कहा जाए तो अपनी गाड़ी सरकने लगी थी। सिगरेट पान और लेखन सामग्री का खर्च निकलने लगा था। यदा कदा सरिता, मुक्ता और गृहशोभा में रचनाएं भी छपने लगी थीं। मैने इंटरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भर दिया था। मुझे अपने आप पर विश्वास था और ईश्वर पर भरोसा, साथ ही जहन में गूंजता किसी शायर का वह शेर-<br /><span style="color:#ff0000;">खुली छतों के दिये कब के बुझ गए होते।<br />कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।।<br /></span>(क्रमश:)</span>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-5550437161781681872009-01-22T00:48:00.000-08:002009-01-22T00:51:49.964-08:00<span style="font-size:130%;"></span><br /><p><span style="font-size:130%;"><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;">छोड़ें नहीं उम्मीद का दामन</span><br /><br /></span>बुजुर्गों से सुना था कि उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। सो, उम्मीद के उसी दामन को थामे मैं भी आगे बढ़ा। सुबह नित्य क्रिया कर्म से निवृत्त होकर मैं फिर कमल के घर की ओर चल दिया। पूरे दिन वही पोस्टर बनाने का सिलसिला चला और रात में तारा देवी गुप्ता के स्टेज प्रोग्राम की कम्पेयरिंग कर देर रात घर वापिस आया। तारा देवी ने कहा था कि आगे जब भी प्रोग्राम होगा वह मुझे खबर करवा देंगी। अगले दिन सुबह उठा तो कोई तय कार्यक्रम नहीं था। पिताजी के आफिस जाने के बाद घर से निकला तो कचहरी में मेराज के बस्ते पर जा पहुंचा। मेराज बड़ी ही तन्मयता के साथ वादकारियों के वकालतनामे और अप्लीकेशने लिखने में लगा था। मुकदमों से सम्बंधित तरह तरह के फार्म थे जिन्हें वह भर रहा था। हर एक फार्म भरने के उसे दो रुपये मिलते थे। अपने काम के बीच से ही समय निकाल कर वह मुझे चाय पिलाने ले गया। चाय पीने के दौरान मैने उससे कहा कि वह मुझे भी कोई काम बताए। ....मेराज ने मुझे आश्वस्त किया कि वह अपने वकील साहब से इस बारे में बात करेगा।<br />इसी तरह घूमते फिरते फिरते दिन गुजर गया। शाम को घर पहुंचा तो पिताजी कचहरी से बापिस आ चुके थे। मां, उनके लिए चाय और भूजा बनाने में लगी थी। शाम के नाश्ते में पिताजी अक्सर भूजा ही लेते थे। भूजे का मतलब होता था भूने हुए चने मुरमुरे और उसमें बारीक कटी प्याज के साथ लहसुन में पिसी लाल या हरी मिर्च को मिला कर थोड़ा सा कच्चा सरसों का तेल और नमक........क्या गजब का स्वाद होता था उस भूजे में, जिसे पुरानी यादें ताजा करने के लिए मैं आज भी कभी कभी खाता हूं।<br />उस शाम भी मैं अपने दोनों छोटे भाई बहनों के साथ पिताजी के साथ भूजा खाने के लिए बैठ गया था। .....और पिता जी ने हमेशा की तरह अपने बचपन के किस्से सुनाने शुरू कर दिये थे।...........सच, गर्दिश के दिनों मं बीता हुआ कल और उसकी यादें जीने का एक बहुत बड़ा सहारा होती हैं। यह बात अब जाकर हमारी समझ में आई, उस समय तो जब पिताजी अपने बीते दिनों के किस्से सुनाते थे तो बड़ी बोरियत महसूस होती थी लेकिन वह एक ही किस्से को सौ बार सुना कर भी नहीं थकते थे........।<br />उस दिन भी पिताजी बता रहे थे कि कि राजशाही के दौर में जब उन्होंने मैट्रिक पास कर लिया तो उनके पिताजी ने कहा कि वह नौकरी के लिए दरबार में राजा साहब के सामने पेश हों। .....चूंकि उस समय तक पिताजी के सहपाठी कुंवर विभूति नारायण सिंह का राजतिलक हो चुका था, इस लिए वह ही महाराजा बनारस थे। ऐसे में पिता जी की समस्या यह थी कि वह अपने दोस्त के सामने किस तरह दरबार में झुक कर फर्शी बजाएंगे (फर्शी, राजा महाराजाओं के दरबार में राजा को दिया जाने वाला वह सम्मान है जिसमें राजा के सामने आने वाला शख्स घुटनों तक झुक कर अपने दाएं हाथ को सलाम करने की मुद्रा में कई बार माथे तक लेजाते हुए महाराज की जय हो शब्द का उच्चारण करता है)। यही वजह थी कि पिताजी ने अपने पिताजी को उस समय साफ-साफ यह कह दिया कि नौकरी मिले या न मिले, वह दरबार में फर्शी बजाने नहीं जाएंगे। इस पर, पिता जी के पिताजी, यानि हमारे बाबा जी ने उन्हें समझाया कि दरबार में महाराजा विभूति नारायण सिंह तुम्हारे दोस्त और सहपाठी नहीं बल्कि इस स्टेट के राजा होते हैं और राजा की गद्दी का सम्मान करना प्रजा का धर्म होता है। और फिर जब हम नौकरी करते हैं तो हम नौकर ही होते हैं और नौकर चाहे दस पैसे का हो या दस लाख का, नौकर सिर्फ नौकर होता है। नौकर की अपनी कोई हैसियत नहीं होती। शास्त्र भी यही बताते हैं। दरबार में तुम महाराजा बनारस के सामने फर्शी बजाओगे अपने दोस्त या सहपाठी के सामने नहीं।<br />पिताजी ने आगे बताया था कि वह काफी समझाने बुझाने के बाद नौकरी की दरख्वास्त लेकर महाराजा बनारस के दरबार में पेश हुए और उनकी दरख्वास्त पर महाराजा बनारस ने तत्काल उन्हें बनारस स्टेट के गाड़ीखाने का इंचार्ज बना दिया था। इस नियुक्ति के साथ ही पिता को यह आदेश भी मिला था कि गाड़ीखाने का सारा काम देखने के साथ ही साथ उन्हें दिन और रात में राजा साहब की मर्जी के अनुसार उनके साथ बैडमिंटन और फुटबाल खेलना होगा।<br />इस तरह मेरे पिताजी को उनकी पहली नौकरी मिली थी। उनका अधिकांश समय बनारस में गंगापार रामनगर के किले में ही बीतता था। वह यह भी बताते थे कि एक समय जब हमारे बाबा जी जीवित थे और हमारी दादी बाजार में खरीदारी करने जाती थीं तो आठ घोडों की फिटन उन्हें लेने आती थी, और पूरा बाजार खाली करा दिया जाता था। ...............सचमुच संपन्नता और रुतबे से भरी जिंदगी की यादों को कौन भुलाना चाहेगा। ..और फिर गुरबत के दिनों को उन यादों के सहारे यह सोचते हुए बिताना थोड़ा आसान हो जाता है कि , आज नहीं है, तो क्या हुआ। हमें मलाल नहीं कि हमने रईसी नहीं देखी।<br />एक और खासबात यह कि पिताजी जब राजशाही खत्म होने के बाद अपने स्ट्रगल के किस्से सुनाते थे जो उसमें एक अलग तरह का थ्रिल , एक अलग तरह का रोमांच तो होता ही था, साथ ही उनकी साफगोई भी झलकती थी। वह बताते थे कि राजशाही खत्म होने के बाद जब उनके पिताजी का देहावसान हो गया और वह लोग रामनगर से बनारस आ गए तो परिवार में सबसे बड़े होने के नाते अपने आठ भाई बहनों और मां की परवरिश की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी। राजशाही गई तो नौकरी भी चली गई। इधर उधर दौड़भाग कर किसी तरह रोडवेज में कंडेक्टर हो गए। बनारस से चकिया के रूट पर उनकी ड्यूटी लगी। कंडक्टरी की नौकरी में मिलने वाली तनख्वाह से इतने बड़े परिवार का गुजार कैसे चले इस लिए हमेशा उधेड़बुन रहती थी। इसी बीच उन्हें एक ऐसा ड्राइवर मिला जो बेहद तेज था। उसी ने पिता जी को बताया कि किस तरह सरकारी नौकरी में ऊपर की कमाई की जाती है। पिताजी बताते थे कि उस ड्राइवर के इशारे पर वह किस तरह बिनाटिकट यात्री ले जाते थे और उससे होने वाली अतिरिक्त कमाई से अपने भाई बहनों के लिए चकिया के मशहूर लडडुओं की हांडी, जिसे पाकर भाई बहनों के चेहरों पर आने वाली खुशी उन्हें उनके द्वारा की जाने वाली चोरी का अहसान नहीं होने देती थी। ...लेकिन साथ ही वह मुझे यह हिदायत भी देते जाते थे कि चोरी और बेईमानी की कमाई में बरकत नहीं होती। कभी भी बुरे दिन आएं तो उम्मीद का दामन नहीं छोडना चाहिए क्यों कि हर अंधेरी रात के बाद सुबह होती है....जिसे उम्मीद होती है, वही सुबह की रोशनी देखता है, जिसके हाथ से छूट जाता है उम्मीदों का दामन , वह खो जाता है अंधेरों में.......।<br />आज सोचता हूं, कि जिंदगी में सट्रगल के अपने किस्से सुनाने के पीछे शायद पिताजी का एक मकसद होता था। वह मुझे सिर्फ किस्से नहीं सुनाते थे, बल्कि मुझे आने वाली जिंदगी से जूझने के लिए मानसिक रूप से तैयार करते थे, मुझे ताकत देते थे।</span></p><p><span style="font-size:130%;">(क्रमश:)<br /><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">व्यंग्य<br /></span></span><span style="font-size:130%;"><span style="color:#ff0000;">मंदिर-मस्जिद और कमला</span><br />जाने क्यूं मुझे मंदिर-मस्जिद और कमला में कोई फर्क नजर नहीं आता। अब सवाल यह होगा कि कमला कौन है। शायद आप भी भूल गए होंगे कमला को। मैं उसी कमला की बात कर रहा हूं, जिसे एक पत्रकार सत्तर के दशक में मध्यप्रदेश के किसी सुदूर गांव में लगने वाली औरतों और लड़कियों की हाट से खरीद कर लाया और फिर देखते ही देखते कमला पूरे देश में छा गई।<br />अखबारों में कमला पर बड़े-बड़े संपादकीय छपे, राजनीतिज्ञों ने कमला के नाम पर जिंदा गोश्त की खरीद-फरोख्त के विरुद्ध धरना, प्रदर्शन और ज्ञापनों का हड़बोंग किया और अपनी नेतागीरी चमकाई। कविताएं, कहानियां, नाटक और उपन्यास ही नहीं, कमला को लेकर फिल्म तक बनी और लोगों ने लाखों कमाए। अपने आप को प्रतिष्ठित किया। उधर कमला को खरीद कर लाने वाले पत्रकार रातों रात खोजी पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। लेकिन कमला.........! उसका कुछ पता नहीं कि वह नारीनिकेतन की गलाजत भरी जिंदगी से भागने के बाद कहां गई....किसी ने यह जानने का प्रयास भी नहीं किया। ठीक इसी तरह हमारी भारतीय जनता पार्टी, जिसने जनसंघ से भाजपा होने तक का सफर कमला अर्थात किसी ऐसे मुद्दे (मंदिर-मस्जिद) की तलाश में बिताया, जो उसे किसी शक्तिशाली राकेट की तरह अंतरिक्ष रूपी सत्ता में प्रतिस्थापित कर दे।....और फिर वह दिन भी आया, जब भाजपाई अपनी सिस्टर इकाई विश्व हिंदू परिषद के माध्यम से एक कमला उठा लाए। या यूं कहिए कि राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद का मुद्दा उठा लाए। फिर वही सत्तर के दशक का सा वातावरण बना। अखबारों में बडे बडे संपादकीय लिखे जाने लगे। धरना प्रदर्शन और ज्ञापन के जरिए तमाम सड़कछाप लोग नेता बन गए। रथ यात्राओं से लेकर पथ यात्राओं तक न जाने क्या क्या हंगामे हुए। ....और नतीजा बिल्कुल वही, जैसे कमला को लाने वाला पत्रकार रातों रात खोज पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था उसी तरह भारतीय जनता पार्टी भी एक बड़ी सशक्त पार्टी के रूप में प्रतिष्ठापित हो गई। कई स्थानों पर सत्ता भी हथिया ली।<br />इस सब के बाद पत्रकार अर्थात मीडिया और भाजपा की स्थित में कमला को लेकर बहुत जरा सा परिवर्तन आया और वह यह कि जहां मीडिया ने अपने व्यापार के लिए दुधारू गाय के रूप में मिली कमला को लेकर यह मन बना लिया कि कमला चुक जाएगी तो उसकी जगह थाने में बलात्कार का शिकार हुई मथुरा होगी। मथुरा नहीं तो शालनी, कुसुम, बेलछी, सुंदूर या फिर कुम्हेर जैसा कुछ........।<br />उधर भाजपा के पास सिर्फ कमला यानि राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद है। जब चाहेंगे वह इस कमला के बदन के एक भाग से कपडे हटाएंगे और फिर चीखेंगे...देखो, लड़की नंगी है, हमे इसे कपड़े पहनाने हैं। वो लोग हमे कपड़े नहीं पहनाने दे रहे है। और अगर किन्हीं परिस्थियों में यह कमला चुक गई तो मथुरा और काशी विश्वनाथ मंदिर जैसी तमाम कमलाएं वह और जुटा लेंगे। व्यापार चलता रहेगा। कहीं कुछ नहीं बदलेगा। कमला, मथुरा, शालनी, कुसुम, बेलछी, सुन्दूर, कुम्हेर, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद, काशी विश्वनाथ, सब एज इट इज...।<br />जो होगा या हो रहा है, उसमें कमला के बाद दलितो व स्त्रियों के मामलों को आर्थिक सामाजिक एवं राजनीतिक लाभ उठाने का जरिया बना लिया गया। कमोबेश मंदिर-मस्जिद की स्थिति भी यही है।...रही मीडिया और जनता के ताजा दृष्टिकोण की बात तो वहां मीडिया की स्थिति तो जगजाहिर है....एक ही पन्ने पर एक ही समाचार में यह लिखा होगा कि राम जन्मभूमि देश की धार्मिक एवं सांस्कृतिक अस्मिता का प्रश्न है और इस अस्मिता को बचाए रखना बहुत जरूरी है... गर्भगृह पर ही मंदिर निर्माण होना चाहिए। साथ ही यह भी लिखेंगे कि मंदिर निर्माण की बात करने वाले सांप्रदायिक है। गर्भगृह पर मंदिर बना तो वह एक संप्रदाया विशेष के प्रति अन्याय होगा।......वास्तव में बंदनीय है हमारा मीडिया। पूरी तरह निश्पक्ष। इतना निष्पक्ष कि उसका अपना कोई दृष्टिकोण ही नहीं। थाली में जिधर ढलान मिली बैंगन उसी ओर लुढक गया।<br />इस तरह यह बात पूरी तरह साफ हो जाती है कि आज मंदिर मस्जिद, कमला अर्थात धर्म शोषित और दलित गांव से लेकर केंद्र (दिल्ली) तक सत्तासित का नियामक तत्व है। इसी लिए चतुर राजनीतिज्ञों एवं धंधेबाज साम्प्रदायिक गुटों ने उनके अस्तित्व के सबसे छुद्र और संकीर्ण पहलुओं को उभारा, जिसका परिणाम सामने है...इस लिए जरूरी है कि मंदिर-मस्जिद और कमला पर नए सिरे से विचार हो।<br />(अमर उजाला के 4-8-1992 के अंक में प्रकाशित)<br /> </span></p>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-16526696956631282112009-01-15T12:26:00.000-08:002009-01-15T12:29:22.144-08:00<span style="font-size:130%;"></span><br /><p><span style="font-size:130%;"><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;">असंतुष्ट रहो और आगे बढ़ो</span><br /></span>संतोषम् फल दायकम् का सूत्र वाक्य जिस किसी भी विद्वान ने लिखा हो, मैं व्यक्तिगत रूप से उनसे सहमत नहीं हूं। जीवन की राहों पर चलते हुए मैने जो महसूस किया उसके अनुसार अगर आगे बढ़ना है तो असंतुष्ट रहना बहुत जरूरी है। उस दिन तारा देवी गुप्ता से मिल कर आने के बाद अगले दिन मैं पूर्व नियत कार्यक्रम के अनुरूप सुबह 10 बजे कमल के घर पहुंच गया। कमल के अन्य साथी मेराज जैदी, गिरजा शंकर अवस्थी, अरविंद, जागेश्वर भारती आदि सभी वहां पहले से मौजूद थे। पेंट ब्रश आदि लेकर हम सभी लोग नाटक राम रहीम के पोस्टर बनाने में लग गए। इसी काम के दौरान बातचीत में यह पता चला कि मेराज जैदी की भी साहित्य में खासी रुचि है। उर्दू साहित्य का बहुत अच्छा कलेक्शन उसके पास है। मेराज का दावा था कि उर्दू साहित्य हिंदी से कहीं अधिक समृद्ध है। चूंकि मैं उस पूरे ग्रुप में सबसे छोटा था और साहित्य के बारे में मेरी जानकारी भी अन्य सभी के मुकाबले नगण्य थी इस लिए मैं चुपचाप उन सभी की बातचीत सुनता रहा। बीच बीच में मैं भी हां हूं कर देता था। इस बीच मेराज उर्दू के कई लेखकों और उनकी रचनाओं का जिक्र करता रहा। मुख्य रूप से सआदत हसन मंटों एवं इस्मत चुग्ताई की कहानियों का जो वर्णन उसने किया उसने मेरे अंदर भी एक उन्हें पढने की इच्छा जाग्रत कर दी। लेकिन एक समस्या थी कि मैं उर्दू नहीं पढ सकता था। मैने अपनी बात मेराज के सामने रखी तो उसने बडी सहजता से कहा......उर्दू नहीं जानते तो क्या हुआ। तुम मेरे घर आओ, मैं तुम्हें मंटो और इस्मत चुगताई की कई अच्छी कहानियां पढ कर सुनाऊंगा। उसका कहना था कि वह कहानियां तो ऐसी हैं कि उसे चाहे जितनी बार पढो, वह न सिफ नई लगती हैं बल्कि व्यक्ति की संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती हैं। .....मैने सहमति में सिर हिला दिया था।<br />शाम होते होते हम लोगों ने लगभग एक दर्जन पोस्टर बना डाले थे। बाकी पोस्टर अगले दिन बनाने की बात तय कर हम लोग कमल के घर से निकल पड़े। मैं वहां से सीधे घर आया और फिर कपडे आदि बदल कर रात के प्रोग्राम के बारे में मां को बताया। यह भी बताया कि लखनऊ वाले काम में अभी समय लगेगा। फिलहाल मैं आर्कस्ट्रा के प्रोग्राम में जा रहा हूं। मेरे घर से निकलने तक पिता जी कचहरी से वापिस नहीं आए थे। मैं उनके आने से पहले ही घर से निकल लेना चाहता था क्योंकि उनके आने के बाद यह गारंटी नहीं थी कि वह मुझे किसी आर्केस्ट्रा पार्टी में काम करने देंगे या नहीं। उनकी समस्या यही थी कि वह आर्थिक रूप से परेशान भी रहते थे लेकिन उनकी शहंशाही में कहीं कोई कमी नहीं थी। उनकी शहंशाही का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार घर के सामने से एक ठेला निकला। ठेले पर टमाटर लदे थे। पिताजी उससे मोलभाव करने लगे। पूरे ठेले का क्या लोगे। कुछ लोगों ने टोका भी। सक्सेना साहब, इतने टमाटर लेकर क्या करोगे ? पिताजी नहीं माने ठेले पर रखे पूरे 30 किलो टमाटर खरीद लिए। टमाटर सड़ कर फिकें नहीं इस लिए बाद में उसे मोहल्ले में बांटा गया। उसका सास बनवाने के लिए बोतने खरीदी गई। सास बनवाने के लिए जो पैसे खर्च किए गए वह अलग। मैं और मां उनके इस अंदाज को लेकर हमेशा परेशान रहते थे। उन्हें सुधारने की हिम्मत हम दोनों में से किसी को नहीं थी।<br />खैर, बात चल रही थी कि मैं घर से अनिल बवाली के यहां जाने के लिए निकल पड़ा। अनिल के घर पहुंचा तो वह मेरा ही इंतजार कर रहा था। हम दोनों वहां से तारादेवी गुप्ता के घर कल्याणी पहूंच गए। तारा देवी के घर पर पूरा जमावडा था। लखनऊ से तमाम आर्टिस्ट वहां आए हुए थे। डांसर रेखा गर्ग, गिटारिस्ट आलोक सक्सेना, ढोलक, कांगो और बांगो और हारमोनियम के कलाकार अलग। कार्यक्रम की रिहर्सल चल रही थी। तारा देवी ने मुझे देखा तो अपने पास बुला लिया। सबसे परिचय करवाया........ओपी नाम है इसका, अभी नया बच्चा है। कई अच्छे कैरीकेचर हैं इसके पास। मेहनत करेगा तो सीख जाएगा। आज और कल के दोनों प्रोग्राम यही एनाउंस करेगा। ......तारा देवी ने मेरी पीठ पर हाथ रखा।....मेरा हौसला बढाते हुए वह मुझे हाल के बीच तक लाई और बोली.......चल शुरू हो जा बेटा, एक ट्रायल हो जाए......।<br />मैने भी सहमति में सिर हिलाया और फिर जेब से कलम कागज निकाल कर कार्यक्रम का सीक्वेंस नोट करने लगा। इंट्रोडक्शन म्यूजिक के बाद मंच के इंस्ट्रूमेंटल कलाकारों का परिचय और फिर कुछ हल्की फुल्की शेरो शायरी के साथ किशोर कुमार के कुछ फिल्मी गाने, रेखा का डांस आदि आदि......। सीक्वेंस नोट करने के बाद मैने बतौर रिहर्सल एनांउसमेंट शुरू किया। ट्रायल के तौर पर कुछ शेरो शायरी और कैरीकेचर के साथ फिल्मी कलाकारों की आवाज में कुछ आइटम सुनाए तो्र वहां मौजूद कलाकारों में से कुछ ने तो मुंह बिचका लिया.....कुछ ने हौसला बढाया। कोई बात नहीं .....अभी नया है। धीरे धीर सब सीख जाएगा। इसी बीच गिटारिस्ट आलोक बोला .....हां, ठीक है , गांव के प्रोग्राम में तो चल ही सकता है। फिर वह और तारादेवी गुप्ता हाल से बाहर जाकर एक कोने में कुछ खुसर पुसर करने लगे। थोडी देर बाद तारा देवी ने मुझे आवाज दी......अरे, ओपी.....देखना बाहर दो जीपें खडी हैं। सब से बोलो पैकअप करें, चलने का टाइम हो गया है। मैने सभी को अपने अपने इंस्ट्रूमेंट समेटने को कहा। सामान पैक होने के बाद सभी लोग अपना अपना सामान उठा कर जीप की ओर चल दिए। मैं भी उनके सामान उठवाने में लग गया।<br />उस रात जब प्रोग्राम खत्म हुआ तो तारादेवी ने चलते समय मुझे 50 रुपये दिये और कहा कि कल के प्रोग्राम का एडवांस दे दिया है। टाइम पर पहुंच जाना। सच मानिए, उस दिन मिले पचास रुपये मुझे पचास लाख जैसे लग रहे थे। वह अलग बात है कि पिता जी के अच्छे समय में, मैं उस जैसे न जाने कितने पचास रुपये अपने स्कूल के दोस्तो को खिलाने पिलाने में उडा दिया करता था।<br />उस रात प्रोग्राम से लौटते समय जीप ने मुझे और अनिल बवाली को बडे चौराहे पर ही उतार दिया था। यहां से मैं और अनिल बवाल अपने अपने घरों के लिए चल दिय थे। रात के 3 बजे थे। जेब में पचास रुपये की गर्मी मैं बडी शिद्दत के साथ महसूस कर रहा था। साथ ही हिसाब जोडता जा रहा था कि अगर महीने में 15 प्रोग्राम मिलें तब कहीं जाकर महीने में पौने चार सौ रुपये कमा पाऊंगा। जरूरी नहीं कि महीने में 15 प्रोग्राम मिल ही जाएं......कम भी हो सकते हैं और ज्यादा भी ? इस तरह पचास रुपये कमा कर मैं खुश तो था पर संतुष्ट नहीं था...........मैने सोच लिया था कि इसके साथ ही साथ हमें कोई और काम भी करना होगा। संतुष्ट हुए कि प्रगति रुकी.........।<br />(क्रमश:)<br /><br /><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;">व्यंग्य</span><br /></span></span><span style="font-size:130%;"><span style="font-size:180%;">सत्ताधीश बनाम आम आदमी<br /></span><span class=""></span></span></p><p><span style="font-size:130%;">उस दिन प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संदेश सुनते सुनते मेरी आंख लग गई। मेरा समूचा अस्तित्व सपनों की दुनियां में खो गया। मैने देखा कि अपने देश में एक नई व्यवस्था लागू हो गई है, जिसमें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर पर दो मंच बने हैं। एक पर अपने प्रधानमंत्री खड़े हैं, बुलेट प्रूफ शीशे के पीछे, एसपीजी के जवानों से घिरे हुए और दूसरे मंच के पीछे एक आम आदमी खड़ा हुआ है बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था के.....पूरी तरह असुरक्षित। यही तो फर्क है आदमी और प्रधानमंत्री होने में।<br />खैर, व्यवस्था यह है कि अपने प्रधानमंत्री और वह आम आदमी साथ-साथ राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करेंगे। संदेश का प्रसारण शुरू होता है......प्यारे देशवासियों नमस्कार.....दोनों गंभीर मुद्र में हैं। प्रधानमंत्री क्यों गंभीर हैं पता नहीं। हो सकता है गंभीर और चिंतित दिखना प्रधानमंत्री पद की अनिवार्यता हो, लेकिन दूसरे मंच पर खड़ा आम आदमी गंभीर और चिंतित होने के साथ ही साथ दुखी भी है.....शायद इस लिए कि वह जानता है कि चाहे वह लाल किले की प्राचीर से बोले, बोट क्लब से बोले, सुदूर से बोले, पीलीभीत से बोले या कुम्हेर से.......उसकी आवज उसी तरह गुम कर दी जाएगी, मिट दी जाएगी जिस तरह संसद की कार्रवाई के टीवी प्रसारण में सांसदों के वास्तविक चरित्र को उजागर करने वाले अंश मिटा दिए जाते हैं।<br />फिलहाल , राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित होना शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री बोल रहे हैं। दूसरे मंच से आम आदमी बोल रहा है। दोनों की आवाजें एक दूसरे में गड-मड हो रही हैं। सरकारी भाषा में अर्थ का अनर्थ हो रहा है। प्रबुद्धजनों की भाषा में अनर्थ को अर्थ मिल रहा है।<br />प्रधानमंत्री बोल रहे हैं......एक साल पहले सरकार को जो विरासत मिली थी, उसमें सुधार लाने के लिए एक साल की जद्दोजहद के बाद कामयाबी मिली है...।<br />आम आदमी बोल रहा है....बहुत कामयाबी मिली है, हमने विश्वबैंक और हर्षद मेहता के हाथों की कठपुतली बन कर उनकी ही बुद्धि से पूरे देश का बजट बनाया है, ताकि देश की अर्थव्यवस्था और देश को खोखला करने की हमारी सत्तासित परंपरा जीवित रहे, बोफोर्स जीवित रहे, हर्षद मेहता जीवित रहे.......।<br />प्रधानमंत्री बोल रहे हैं.........देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के मामले में हमें काफी कामयाबी मिली है। एक साल पहले तक हमें अपना सोना तक गिरवी रखना पड़ रहा था और उस समय तो सिर्फ एक हजार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्र का भंडार बचा था हमारे पास जो मात्र एक सप्ताह में खर्च हो जाता, लेकिन सरकार ने सावधानी से फूंक फूंक कर कदम उठाए और आज.............<br />इसी बीच आम आदमी की आवाज उभरे लगती है...........और आज हमने अपने देश का सोना गिरवी रखने के स्थान पर पूरे देश की अर्थव्यवस्था को गिरवी रख दिया है। उद्देश्य पैसा लाना है। विदेशी मुद्रा लाना है। चाहे वह अंदर से आए या बाहर से। सोना गिरवी रख कर आए या पूरा देश गिरवी रख कर.....।<br />उधर प्रधानमंत्री बोल रहे हैं.........बाहर के लोग यहां परियोजनाओं में पैसा लगाएंगे तो भी वह परियोजनाएं यहीं रहेंगी। चाहे वह उद्योग हो , रेल हो, या सड़क हो....सब कुछ यहीं रहेगा।<br />आम आदमी बोल रहा है.........हां सब कुछ यहीं रहेगा, यहां के उद्योग, यहां के कारखाने, यहां की सड़कें, यहां के पुल, यहां की हरीभरी धरती, यहां की कल-कल करती नदियां, सब यहीं रहेगा। ठीक उसी तरह जैसे आजादी के पहले था। अंग्रेज न उस समय कुछ उठा कर ले गए थे और न इस बार कुछ ले जाया जाएगा........सब कुछ यहीं रहेगा।<br />प्रधानमंत्री बोल रहे हैं........देश के ऊसर क्षेत्रों को विकसित करने के लिए कार्यक्रम बनाए गए हैं। इसके लिए सरकार ने अलग से विभाग बनाया है। काफी धनराशि का प्रावधान भी किया है।<br />आम आदमी बोल रहा है........हमारी सरकार बहुत समझदार है। उसको चलाने वाले बहुत काबिल हैं। हमेशा देश और देशवासियों के हित के लिए कार्य करते हैं। संभवत: इसी लिए खेती योग्य भूमि किसानों से छीन कर उसपर होटल और मकान बनाए जा रहे हैं, वहीं ऊसर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए पूरा एक विभाग बना कर करोड़ों रुपए खर्च करने की योजना तैयार की गई है। सिर्फ इतना ही नहीं, हमारे शासकों को देश के आर्थिक हित की कितनी चिंता है, इसका एक नमूना यह भी है कि वह विदेशों को जिस मूल्य पर खाद्यान्न निर्यात कर रहे हैं उससे कई गुना अधिक मूल्य पर विदेशों से खाद्यान्न खरीद रहे हैं। उनकी दलीलों के अनुसार देश का अर्थिक हित इसी तरह के सौदों में सुरक्षित रहेगा।<br />फिर प्रधानमंत्री की आवाज उभर रही है......देश को तोड़ने वाले संघर्षो पर अगले तीन वर्ष के लिए रोक लगा दी जानी चाहिए....।<br />आम आदमी बोल रहा है........जरूर, जरूर रोक लगा दी जानी चाहिए, ऐसी हर आवाज और ऐसे हर संघर्ष पर रोक लगा दी जानी चाहिए जो देश अर्थात उनकी कुर्सी को हिलाने और तोड़ने में सक्षम हो, क्योंकि उनके लिए तो देश मात्र उनकी कुर्सी तक ही सीमित है...।<br />इस तरह राष्ट्र के नाम संदेश का प्रसारण चल ही रहा था कि मेरे मानस पटल पर दृश्य बदलने लगता है। सामने मंच के पीछे गतिविधियां बढती नजर आती हैं। अचानक कोई फुसफुसाता है........अरे कोई रोको उसे....उसका बोलना ठीक नहीं है।<br />.....और तभी कोई, आम आदमी के नीचे से मंच रूपी उसका आधार खींच लेता है। आम आदमी लड़खड़ा कर गिरता है। मंच के आसपास भगदड़ मच जाती है। कोई उस आम आदमी का सिर कुचल देता है। थोड़ी देर बाद सबकुछ शांत हो जाता है। अखबारों में बड़े-बड़े हेडलाइंस छपते हैं........स्वतंत्रता दिवस समारोह में भगदड़। राष्ट्र के नाम संदेश देते आम आदमी की कुचलने से मृत्यु। घटना की जांच के लिए आयोग गठित। आम आदमी की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उसके द्वारा राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारण की नई व्यवस्था भंग.....अब सिर्फ प्रधानमंत्री बोलेंगे....सिर्फ प्रधानमंत्री। इसी बीच जाने क्यूं अचानक मैं चीख पड़ता हूं....मेरी नींद टूट जाती है। सामने देखतो हूं तो कुछ भी नहीं है, सिर्फ बिजली चले जाने से बंद पड़े टीवी की देश के भविष्य की तरह धुधली पड़ी स्क्रीन के सिवा.....कुछ नहीं .....कुछ भी नहीं।<br />(अमर उजाला के 4-10-1992 के अंक में प्रकाशित)<br /> </span></p>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-2503065100046079822009-01-13T04:19:00.000-08:002009-01-13T04:22:48.610-08:00अपनों से ही बेगानी हो गयी फूलों की घाटी<span style="font-size:130%;"></span><br /><span style="color:#ff0000;">पुतॅगाल की संस्था न्यू सेवन वंडॅस फाउंडेशन करा रही हैं आन लाइन प्रतियोगिता<br />ताज महल की वजह से फेम में आयी थी न्यू सेवन वंडॅस<br />न्यू सेवन वंडस करा रही हैं आन लाइन प्रतियोगिता<br />काजीरंगा नेशनल पाकॅ बना हैं होड़ मे <br /></span>अपनों की अनदेखी ही फूलों की घाटी को भारी पड़ गई। इसी बेगानेपन का नतीजा रहा कि देश विदेश में मशहूर उत्तराखंड की यह घाटी दुनिया के सात प्राकृतिक आश्चर्यों की दौड़ में टिकी न रह सकी। न्यू सेवन नेचुरल वंडर्स प्रतियोगिता में यह वैली दूसरे राउंड में जगह नहीं बना पाई। हालांकि भारत की उम्मीद अभी पूरी तरह से टूटी नहीं है। असम का काजीरंगा नेशनल पार्क प्रतियोगिता के दूसरे राउंड में जगह बनाने में सफल रहा। दुनिया के सात प्राकृतिक आश्चर्यो के चयन के लिए पुर्तगाल की संस्था न्यू सेवन वंडर्स फाउंडेशन यह ऑन लाइन प्रतियोगिता करा रही है। इसमें लोगों को एसएमएस या ई-मेल के जरिए अपने पसंदीदा नाम को वोट देना होता है। पिछले साल ताज महल की वजह से न्यू सेवन वंडर्स फाउंडेशन की प्रतियोगिता देश में काफी चर्चित रही थी। फाउंडेशन की आधिकारिक वेबसाइट न्यू सेवन वंडर्स डॉट कॉम के मुताबिक भारत के राष्ट्रीय प्रतिभागियों में काजीरंगा पार्क और बहुराष्ट्रीय प्रतिभागियों में गंगा नदी, पांगोंग झील ने पहला राउंड पार कर लिया है। ये प्राकृतिक अजूबे 261 नामित आश्चर्यो में शामिल हैं। प्रतियोगिता में 441 नाम आए थे। इनमें से 40 फीसदी यानी 180 नाम पहले राउंड में ही बाहर हो गए। शुरू में फूलों की घाटी दुनिया की 90 आश्चर्यो में शामिल थी मगर दिसंबर में वह 120वें स्थान पर चली गई। दरअसल किसी आधिकारिक ग्रुप ने उसे सपोर्ट ही नहींकिया। इससे वह वोटों में पिछड़ गई। दूसरे चरण में 77 टाप आश्चर्यो के चुनाव के लिए वोटिंग सात जुलाई 2009 तक चलेगी। इनमें से 21 आधिकारिक प्राकृतिक आश्चर्य चुने जाएंगे। जिनकी न्यू सेवन वंडर्स फाउंडेशन का विशेषज्ञ पैनल 21 जुलाई को घोषणा करेगा। तीसरे और फाइनल राउंड के लिए वोटिंग दो साल यानी 2011 तक चलेगी।<br />राकेश जुयाल<br /><a href="http://pahar1.blogspot.com/" target="_blank">http://pahar1.blogspot.com</a>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-65936624621795554742009-01-05T13:27:00.000-08:002009-01-05T13:32:40.930-08:00<p><span style="color:#ff0000;"><span style="font-size:180%;">हम नहीं, परिस्थितियां बनाती हैं रास्ता</span><br /><span class=""></span></span></p><p><span style="font-size:130%;">उस दिन, सो कर उठा तो वह सुबह दूसरे दिनों की अपेक्षा कुछ अलग सी लगी। मन में एक संकल्प था। कुछ कर गुजरने का। नहा- धो कर तैयार हुआ तो मां ने चाय के साथ रात की बची रोटी पर सरसों का तेल और नमक लगाकर रोल बनाया और उसे मेरे हाथों में थमा दिया। मैं चाय के साथ उस रोटी को खा रहा था। गजब का स्वाद था उस रोटी में। इसी बीच मां ने धीरे से मुझसे पूछा था....सचमुच कोई काम मिल गया है तुम्हें।<br />उसकी आंखों में अविश्वास नजर आ रहा था।<br />मैने मां को आश्वस्त करते हुए बताया कि काम की बात हुई है। आज फाइनल होगा कि मुझे कब से जाना है। .......ठीक है......मां ने बड़ी ठंडी सांस भर कर कहा था और फिर मुझे समझाने लगी थी.......देखो बेटा, ऐसा कोई काम मत करना जिससे तुम्हारे पिता जी की बदनामी हो। वो तो ऐसे ही तुम्हें डांटते रहते हैं....रिटायरमेंट करीब है इस लिए थोड़ा परेशान हैं। वैसे काम की कोई जल्दी नहीं है। मैं तो चाहती हूं, ढंग से पढ़ लिख लो और कोई अच्छी सरकारी नौकरी करो.......मां बोले जा रही थी और मैं बस.......हूं , कह कर उसके सामने से उठ गया था। पिता जी आफिस जा चुके थे। मैं भी घर से निकल पड़ा था। मुझे परवेज लंगडे से मिलकर लखनऊ के काम के बारे में बात करनी थी और कमल के साथ नाटक राम रहीम की कास्ट और तैयारी के बारे में बात कर उसके बाकी साथियों से भी मिलना था। मन में तरह-तरह के विचार चल रहे थे। मुझे याद आ रहे थे बचपन के वह दिन जब मैं घर में अपने मां-बाप का इकलौता लड़का था। मेरे बड़े भाई की मौत के लगभग पांच साल बाद मेरा जन्म हुआ था। पिता जी उस समय आजमगढ़ जिले की घोसी तहसील में तैनात थे। तहसील में मालबाबू हुआ करते थे वह। तनख्वाह के अलावा ऊपर की आमदनी भी खूब थी। किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। लाड़ दुलार भी खूब था। पिता जी हर रविवार को हमें पिक्चर दिखाने मऊ (जो अब जिला बन गया है) ले जाते थे। तरह तरह की कहानियों की किताबें मैं वहां से लाता था जिसमें इंद्रजाल कामिक्स, दीवाना तेज साप्ताहिक, चंदामामा, चंपक आदि किताबें हुआ करती थीं। मैं जिस मंहगे से मंहगे खिलौने पर हाथ रख देता, पिता जी उसे दिला दिया करते थे। पिता जी को थिएटर का बहुत शौक था। खास तौर पर दरभंगा बिहार की रामनाथ थियेटर कंपनी के ड्रामें उन्हें बहुत पसंद थे। कई बार वह मुझे भी अपने साथ ले जाते थे। थिएटर में होने वाले ड्रामों में खास तौर पर सुल्ताना डाकू, हरिश्चंद तारामती, श्रवण कुमार मुझे बहुत पसंद थे। शायद इसी लिए जब भी मुझे घर से बाहर खेलने जाने का मौका मिलता तो मैं अपने घर के सामने वाले घर के चबूतरे पर अपने साथियों के साथ उन्हीं ड्रामों को दोहराने का काम करता। हमारे खेल-खेल में किये जाने वाले उस ड्रामे को देख कर अक्सर मोहल्ले के बडे़ बूढे़ मेरे पिता जी से कहा करते थे..........सक्सेना साहब, आपका बेटा तो एक्टर बनेगा। .......और पिता जी हंसते हुए मन ही मन गदगद हो जाते थे। मुझे क्या पता था कि नाटक ड्रामों के प्रति इतनी रुचि रखने वाले मेरे पिताजी बाद में इसके विरोधी हो जाएंगे। भूल जाएंगे कि थिएटर आने पर वह रात में घर की कुंडी बाहर से बंद कर ड्रामा देखने चले जाते थे और हम लोग सुबह उनके आने तक घर में बंद रहते थे। ............और अब तो उनकी यही रट है कि नाटक ड्रामा शरीफ घरों के लड़कों का काम नहीं है।<br />इसी तरह बिना किसी तारतम्य की सोचों में डूबता उतराता में कब परवेज लंगडे़ की दुकान तक पहुंच गया, इसका पता ही नहीं चला। परवेज से बात हुई तो उसने बताया कि अभी बाजार मंदा है, इस लिए लखनऊ में चप्पलों वाले काम को वह अगले महीने से शुरू करेगा। जिस समय काम शुरू होगा वह मुझे बता देगा। ..........परवेज की इस बात से मैं एक बार फिर निराशा में डूब गया। एक रास्ता जो दिखा था उसके दरवाजे खुलने में अभी देर थी।......मैं बड़े अनमने भाव से वहां से उठ गया था। वहां से उठ कर पूड़ी वाली गली में मुंन्ना बाजपेई की दुकान पर पहुंचा तो वहां कमल अपने सभी साथियों के साथ मौजूद था। मेरे पहुंचते ही उसने सभी से मेरा परिचय कराया।....... ये मेराज जैदी हैं, तीन बच्चों के बाप, कचहरी में मुंशी हैं और बहुत ही अच्छे आर्टिस्ट हैं। जागेश्वर भारती...इनका साडियों पर पेंटिंग का काम है, अच्छे चित्रकार होने के साथ ही नाटकों में भी इनका गहरा दखल है। गिरजा शंकर अवस्थी.......सप्लाई आफिस में क्लर्क चार बच्चो के पिता। नाटक पर आने वाले खर्च को जुटाने में यह हमारी मदद करेंगे, खुद भी अच्छे कलाकार हैं। अरविंद कमल...एक जमीदार परिवार से हैं, केसरगंज जाने वाली सड़क पर इनकी कोठी है, इनके भी अच्छे संपर्क हैं, फिलहाल बिजनेस मैनेजमेंट की ट्रेनिंग कर रहे है। डनलप मास्टर साहब.........यहीं इंटर कालेज में टीचर हैं और कालेज की सभी सांस्कृतिक गतिविधियां इनके द्वारा ही संचालित की जाती है। .................कुल मिला कर परिचय के बाद मुझे एक बात पूरी तरह से समझ में आ गई थी कि उस पूरी टीम में मैं सबसे छोटा था।<br />.....................खैर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। स्क्रिप्ट पढी गई। कास्ट तय हुई। मुख्य पत्रों में राम के रोल के लिए गिरजाशंकर अवस्थी, रहीम के रोल के लिए कमल और फिर इसी तरह सारे पात्र तय हो गए लेकिन नाटक की हिरोइन रजिया के नाम पर आकर बात अटक गई। नाटक के लिए लड़की कहां से लाई जाए। यह अपने आप में एक बड़ी समस्या था। उन्नाव जैसे छोटे से पिछड़े हुए शहर में कौन अपनी लडकी को नाटक में काम करने देगा ?<br />अंत में तय हुआ कि गिरजा शंकर अवस्थी और अरविंद कमल अपने कुछ परिचित परिवारों में इसकी चर्चा करके देखेंगे। शायद कहीं बात बन जाए। तब तक हम सभी लोग नाटक के प्रचार के लिए वाटर कलर से कम से कम 12 पोस्टर बनाएंगे जिसे शहर के मुख्य स्थानों पर लगाया जा सके। इसके साथ ही नाटक के लिए फंड जुटाने को एक सोविनियर निकालने की बात भी तय हुई जिसके लिए विज्ञापन जुटा कर हम अपने नाटक पर होने वाला खर्च निकालेंगे। यह भी तय हुआ कि नाटक के लिए विज्ञापनदाताओं की लिस्ट बना कर हम सभी लोग एक साथ विज्ञापन मांगने चलेंगे। पोस्टर बनाने के लिए अगले दिन सभी को कमल के घर पर पहुंचने की बात कह कर हमारी यह मीटिंग खत्म हो गई। सभी लोग अपने-अपने घरों को चले गए।<br />मैं वहीं बडे चौराहे पर पान की दुकान के पास अकेला खड़ा रह गया। यह सोचता हुआ कि खाली इस नाटक ड्रामे से काम नहीं चलने वाला। परवेज वाला मामला भी अभी टल गया। आखिर क्या किया जाए...........कहां जाऊं, किससे नौकरी मांगूं............मैने जेब में पड़ी रीजेंट की सिगरेट जला ली थी। अभी दो कश ही मारे थे कि तभी सामने से अनिल बवाली ने आवाज दी.........अरे ओपी, क्या हालचाल है। उस दिन क्या कह रहे थे तुम.....अनिल मेरे पास आ गया था।<br />हां, यार उस दिन मै तुमसे बात करना चाह रहा था। मुझे पता चला था कि तुम अपनी आर्केस्ट्रा पार्टी बना रहे हो।<br />हां.........सोचा तो है। अनिल ने बात आगे बढाई। उसने बताया कि वह अभी कल्याणी मोहल्ले में रहने वाली तारा देवी गुप्ता के ग्रुप में गा रहा है। वह सूचना प्रसारण मंत्रालय के स्टेज प्रोग्राम करती हैं। प्रोगाम में नाच गाने के अलावा सरकारी योजनाओं का प्रचार प्रसार भी किया जाता है। अनिल ने यह बताया कि उसे एक रात के पचास रुपये मिलते हैं। महीने में अगर दस प्रोग्राम भी मिल गए तो चार पांच सौ रुपये का जुगाड़ हो जाता है................।<br />.........यह तो बहुत अच्छा है, मैने भी तारीफ की, फिर अपना मंतव्य स्पष्ट किया। यार , मुझे भी इसी में कहीं जोड़ न। मेरी इस बात को सुनते ही अनिल ने तपाक से कहा तुझे काम करना है तो अभी मेरे साथ चल। सफीपुर में दो दिन का प्रोग्राम है और इस समय तारादेवी के पास कोई एनाउंसर नहीं है। कालेज में तो तू प्रोग्राम कंपेयर करता है ही। उसे दो-एक जोक, कैरीकेचर वगैरह सुना देना खुश हो जाएगी। बात मेरी समझ में आई और मैं अनिल के साथ तारा देवी के यहां पहुंच गया। आज की भाषा में कहें तो तारादेवी ने मेरा आडीशन लिया और अपने दो दिन के प्रोग्राम के लिए मुझे बुक कर लिया। तारादेवी ने कहा कि अभी वह मुझे एक प्रोग्राम के 25 रुपये देंगी। काम पसंद आने पर इसमें बढौतरी भी हो सकती है।<br />तारादेवी से दो दिन का प्रोग्राम फाइनल करने के बाद मैं देर शाम बहुत खुशी-खुशी घर लौटा............उस दौर में यह मेरे लिए किसी सफलता से कम नहीं था लेकिन सोच में कहीं यह बात जरूर थी कि मैं घर से क्या सोच कर निकला था और बात कहां जा कर बनी........सच, हम नहीं परिस्थितियां ही बनातीं है रास्ता।<br /><br />(क्रमश:)<br /><br /></span><span style="font-size:130%;"><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;">व्यंग्य</span><br /><span style="color:#ff0000;"></span></span></span></p><p><span style="font-size:130%;"><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;">कड़ी नजर रखे हैं<br /></span></span></span><span style="font-size:130%;"> अपने देश में एक बड़ी अच्छी परम्परा है। वह है, कडी नजर रखने की। इसकी सर्वाधिक जिम्मेदारी पुलिस एवं प्रशासन को सौंप दी गई है। उससे कह दिया गया है कि हर जगह हर स्थिति पर कड़ी नजर रखो। अब दोनों ठहरे अपनी ड्यूटी के पाबंद, सो हर जगह, हर स्थिति पर कड़ी नजर रखे हुए हैं।<br />जब गुरुद्वारों में गोला बारुद जमा किए जा रहे थे तब भी कड़ी नजर रखे हुए थे। जब पंजाब में हत्याएं होना शुरू हुईं तब भी, हवाई जहाजों के अपहरण हुए तब भी, इंदिरा गांधी की हत्या हुई तब भी इनकी नजर कड़ी ही थी। चूं कि आदेश था, हर जगह हर स्थिति पर कड़ी नजर रखो।<br />सिर्फ इतना ही नहीं इंदिरा जी की हत्या के बाद दंगे हुए, संत लोंगोवाल मारे गए परन्तु इनकी नजर में कहीं कोई मुलाइमियत नहीं आई। एक यही तो खासियत है अपने हिंदुस्तान की। यहां जिसे जो काम सौंप दिया जाता है। वह उसे बखूबी निभाता हे। एक बार बता दिया गया कि हर जगह हर स्थिति पर कड़ी नजर रखनी है, तो रखनी है। यहां अपने काम के प्रति हर व्यक्ति पूरी तरह से ईमानदार है। जो बाहर से यहां आता है वह भी हो जाता है। कोई एक दूसरे के काम में टांग नहीं अड़ाता। सब अपना अपना अपना काम पूरी मेहनत और लगन से करते हैं।<br />अब आप ही देखिये, जिसे गोला बारूद जमा करने का काम सौंपा गया वह अपने काम में मस्त था। जिन्हें हत्याएं करनीं थीं वे कर रहे थे। जिन्हें दंगा करना था वह दंगा कर रहे थे, पुलिस और प्रशासन को कड़ी नजर रखनी थी, वह रखे हुए थे। कोई किसी को डिस्टर्ब नहीं कर रहा था। हर तरफ अमन चैन था। इंदिरा राज था।<br />अब राजीव राज है। कड़ी नजर रखने के आदेश अब भी बरकरार हैं, और कड़ी नजर रखने वाले भी। हो सकता है कुछ नए आ गए हों। मगर, नजर के कड़कपन में कहीं कोई कमी नहीं आई है। साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं। पंजाब में दनादन हत्याएं हो रही हैं। देश इक्कीसवीं सदी में जा रहा है। सब आनन्द मंगल है।<br />इस क्रम में पुलिस और प्रशासन से संबद्ध हमारे मित्रों ने आशा व्यक्त की है कि इक्कीसवीं सदी में परिवर्तन के नाम पर लूटमार, दंगा फसाद, आगजनी, पथराव, हत्या, बलात्कार, जैसे कार्य कम्प्यूटर के जरिये भले ही होने लगें, परंतु पिछले अनुभवों को देखते हुए उन्हें कड़ी नजर रखने का कार्य ही सौंपा जाएगा, क्यों कि देश में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि हर जगह, हर स्थिति पर पुलिस और प्रशासन अपनी कड़ी नजर रखे।<br />(अमर उजाला के 11-8 1986 के अंक में प्रकाशित)</span></p>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-58995333204896714532009-01-03T11:45:00.000-08:002009-01-03T12:12:04.346-08:00<span style="font-size:180%;color:#ff0000;">जुनून हो तो सफलता मिलती है</span><br /><span class=""></span><br /><span style="font-size:130%;">किसी भी काम के प्रति जुनून हो तो सफलता अवश्य मिलती है। यह बात आज मेरी समझ में आती है। उस दिन कमल के साथ मैं कानपुर के विभिन्न बड़े बुक स्टालों पर घूमा। हमने मिलकर एक नाटक राम रहीम की स्क्रिप्ट सलेक्ट की और उन्नाव वापिस आ गए। कानपुर से लौटते वक्त भी मैं पूरी तरह खामोश ही रहा। एक अंतरद्वंद था मेरे भीतर। एक तूफान। कुछ करना है........कुछ करना है। उन्नाव पहुंचे तो हमने यह तय किया कि कल दोपहर हम उस टीम की एक मीटिंग करते हैं जिसे इस नाटक में काम करना है। तय हुआ कि कल दोपहर हम बडे़ चौराहे के बराबर में ही पूड़ी वाली गली में मुन्ना बाजपेई की पूडी की दुकान में मिलेंगे। नाटक से जुडे सभी साथियों को सूचना देने का काम कमल करेंगे। यह तय करके हम मैं और कमल अपने अपने घरों की ओर चल दिये। अभी शाम के पांच बजे थे। रास्ते में मेरा स्कूल और स्कूल के सामने परवेज लंगडे की चप्पल की दुकान थी। पैदल चलते हुए जब मैं स्कूल के सामने तक पहुंचा तो परवेज लंगडा अपनी दुकान पर बैठा था। मैं उसके पास रुक गया। मुझे देखते ही उसने भी मुझे आवाज दी। कहां जा रहे हो ओपी भाई। आओ चाय ले लो।......और उसकी आवाज सुनते ही मैं उसकी ओर बढ गया। परवेज ने चाय का आर्डर दिया और हम दोनों बातचीत में मशगूल हो गए। परवेज की अपनी अलग एक दुनिया थी। परवेज बता रहा था..........यार आज तो बालामऊ पैसिंजर से माल लेने कानपुर गया था। रास्ते में जबरदस्त जुआ हुआ। पूरे डेढ हजार रुपये जीता हूं आज।<br />दरअसल, उन्नाव से कानपुर और लखनऊ जाने वाली ट्रेनों में डेली पैसिंजर्स खूब जुआ खेलते थे। उन जुआरियों में उन्नाव से परवेज और विजय रेडियोज के मालिक विजय मुख्य थे जिन्हें मैं जानता था। उस जमाने में जब हम दो रुपये और पांच रुपये को बडी रकम मानते थे यह लोग सैकडों रुपये का जुआ खेल डालते थे। परवेज मुझे अपने जुए में हार जीत की बात बता रहा था लेकिन मेरा दिमाग कहीं और ही चल रहा था।<br />मौका देख कर मैने परवेज से कहा- यार मैं भी कुछ काम करना चाहता हूं जिसमें दो पैसे मिल सकें। मुझे भी कोई काम बताओ ?<br />परवेज ने कहा- तुम्हें पता है ओपी भाई हम कुछ पढे लिखे तो हैं नहीं। अपना चप्पल बेचने का काम है। इसी से गुजारा चलता है। तुम अगर चाहो तो यह धंधा शुरू कर सकते हो, मैं इसमें तुम्हारी पूरी मदद करूंगा।<br />मैने कहा- यार, मैं कोई धंधा शुरू करने की स्थिति में नहीं हूं। मैं तो नौकरी करना चाहता हूं। कोई भी हो......कैसी भी हो.....मुझे अब अपने मां बाप के सहारे नहीं रहना। मुझे अपने खर्चे खुद निकालने हैं।<br />परवेज ने उस समय बडा ही घूर कर मुझे देखा था। मानों कह रहा हो....तुम्हें क्या जरूरत काम की। तुम्हारे पिता जी तो एक अच्छे सरकारी मुलाजिम हैं। अच्छी पहचान है उनकी शहर में। तुम्हें क्या पडी है नौकरी की........तुम्हें तो अपनी पढाई की चिंता करनी चाहिए ?<br />अब मैं उसे क्या बताता कि घर में कैसी कैसी लानतें झेलनी पडती हैं मुझे। पिता जी रिटायर होने की स्थिति में हैं और मैने अभी अपना ग्रेजुएशन भी पूरा नहीं किया है। बच्चे देर से हों तो मां बाप को यह समस्या भुगतनी ही पड़ती है।<br />फिलहाल परवेज ने मुझे एक आफर दिया कि वह लखनऊ चारबाग रेलवे स्टेशन की छोटी लाइन के प्लेटफार्म के बाहर सडक के किनारे फुटपाथ पर चप्पलों की फड़ लगाता है। वहां आवाज लगा कर चप्पलें बेची जाती हैं। कानपुर से जो चप्पल 10-12 रुपये जोडी लाई जाती हैं उसे वहां 25 से 30 रुपये जोडी बेचते हैं। उसे इस काम में एक आदमी की जरूरत है अगर मैं चाहूं तो उसके साथ आ सकता हूं। इस काम के लिए वह मुझे एक दिन में 10 रुपये देने को तैयार था। उसका कहना था कि आम तौर पर ऐसे काम के लिए 7 से 8 रुपये, पर डे पर लडके मिल जाते हैं।<br />परवेज की बात सुन कर मैने उससे कहा कि मैं कल सोच कर उसे इस विषय में बताऊंगा।<br />इसी बताचीत के दौरान हमने अपनी चाय खत्म की और मैं वहां से अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में मैं सोचता चला जा रहा था। परवेज का बताया काम मुझे करना चाहिए या नहीं ? पूरे रास्ते सोच विचार कर मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि मेहनत मजदूरी कर अपनी रोटी कमाना कोई गलत बात नहीं है। कहीं न कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी। अभी हमारी क्वालीफिकेशन ही क्या है जो हमें कोई ढंग का काम मिलेगा। मैने मन ही मन तय कर लिया था कि परवेज के साथ काम करूंगा। महीन में तीन सौ रुपये मिलेंगे। खिलाने पिलाने में परवेज कभी कंजूसी नहीं करता था। ऐसे में अपने सिगरेट बीडी का खर्च निकाल कर कम से कम दो सौ रुपये मासिक तो बचा ही लूंगा, इंटरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भरूंगा और जैसे भी हो अपना ग्रेजुएशन पूरा करूंगा और इसके लिए पिता जी से एक भी पैसा नहीं लूंगा।<br />यही सब सोचते सोचते मैं घर पहुंच गया। रात में मैने खाना खाते वक्त मां और पिता जी के सामने यह घोषणा कर दी कि मैं इस साल कालेज में एडमीशन नहीं लूंगा और इंटरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भरूंगा। मैने बता दिया कि मुझे लखनऊ में एक काम मिल गया है। इस लिए मैं लखनऊ जा रहा हूं। मां और पिता जी ने मुझसे बहुत पूंछा कि क्या काम मिला है.......लेकिन मैंने उनसे कुछ नहीं बताया। मैं जानता था कि अगर मैने उन्हें बता दिया तो दोनों में से कोई मुझे जाने नहीं देगा। बस मैने इतना बताया था कि महीने में मुझे तीन सौ रुपये मिलेंगे।<br />खाना खा पीकर मैं अपने बिस्तर पर लेट गया था। दोनो भाई बहन भी सो गए थे। बाहर के कमरे से मां और पिताजी के आपस में बातचीत के जो अस्पष्ट स्वर अंदर के कमरे तक आ रहे थे उससे मैने अंदाजा लगाया कि वह इस बात को लेकर चिंतित थे कि मैं क्या करने जा रहा हूं। उधर मैं इस सोच विचार में था कि मैं जो कुछ करने जा रहा हूं वह सही है या नहीं। मुझे अक्सर पिता जी द्वारा सुनाई जाने वाली वह कहानियां याद आ रहीं थीं जिसमें वह हमें बताया करते थे कि हम लोग एक जमीदार खानदान से ताल्लुक रखते हैं। किसी समय में हमारे बाबा जी और उनके पिता का शाहजहांपुर में जमीदारा था। वहां लोग उन्हें हजेला साहब के नाम से जानते थे। हजेला साहब की कोठी के नाम से मशहूर उनकी कोठी आज भी शाहजहांपुर में है। भाइयों से अलग होने के बाद हमारे बाबा जी ने बनारस स्टेट में महाराजा बनारस की फौज में लेफटीनेंट के ओहदे पर नौकरी कर ली थी। हमारे बाबा जी महाराजा बनारस के सबसे करीबी लोगों में थे और उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध भी लड़ा था। एक लडाई जीत कर आने के बाद महाराजा बनारस ने गंगापार रामनगर में अपने किले का एक हिस्सा हमारे बाबा को बतौर इनाम दिया था। जिसे बेच कर उन्होंने रामनगर और फिर बनारस में अपना घर बनाया था। राजशाही के वक्त जब महाराजा बनारस के पुत्र कुंवर विभूतिनारायण सिंह और मेरे पिता जी में जबरदस्त दोस्ताना था। एक ही अंग्रेज ट्यूटर दोंनों को पढाने आता था। पिता जी अक्सर अपनी फाइलों में सहेज कर रखे गए उस अंग्रेज ट्यूटर का सर्टीफिकेट हम लोगों को दिखाया करते थे। मेरे पिता जी ही बताते थे कि वह और कुंवर विभूति नारायण सिंह बचपन में बहुत शैतान थे। एक बार विभूति नारायण सिंह के कहने पर मेरे पिता जी और उनके साथियों ने एक खेत से कुछ ककडियां तोड ली थीं जिसकी शिकायत खेत मालिक ने भरे दरबार में महाराजा बनारस से की थी जिस पर महाराजा बनारस ने न सिंर्फ उस किसान से माफी मांगी थी बल्कि मुआजे के तौर पर उसको साल की पूरी फसल का भुगतान भी किया था। साथ ही मेरे पिता जी और उस समय के कुंवर विभूति नारायण सिंह को बहुत डांट पड़ी थी। बाद में इस घटना से गुस्सा हो कर पिताजी और विभूति नारायण सिंह ने उस किसान के पूरे खलिहान में आग लगा दी थी और उनकी इस हरकत को राज पुरोहित ने देख लिया था। इसका मुआवजा भी राजा बनारस ने अदा किया था।<br />इसी तरह अपने बचपन के तमाम किस्से पिताजी घर में अक्सर सुनाया करते थे। ऐसे में एक बात घर के हम सभी लोगों के दिमाग में बैठी हुई थी कि हम एक राजघराने का हिस्सा रहे हैं, इस लिए हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे हमारी रायलटी को धक्का लगे। इसे अनुवांशिक कहें या और जो भी कुछ.....शायद आज भी हमारे मिजाज में वह राजशाही ठसक बरकरार है। वह अलग बात है कि उस रात मैने इन तमाम बातों को दिमाग से झटका और इस सत्य को स्वीकार कर लिया कि राजशाही जब रही होगी तब रही होगी। सच यह है कि मेरा पिता इस समय कचहरी का एक सामान्य क्लर्क है और उसकी आमदनी इस समय इतनी नहीं है कि वह अपने परिवार की ठीक प्रकार से परवरिश कर सके। ऐसे में हमें कुछ न कुछ करना ही होगा........करना ही होगा.......करना ही होगा.........।<br />धीरे-धीरे नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया था, मगर मेरा जुनून और गहरा हो गया था।<br /><span style="color:#ff0000;">(क्रमश:)</span><br /><br /><br /><br /><span style="color:#ff0000;">व्यंग्य</span><br /><span style="color:#ff0000;"></span><br /><span style="color:#ff0000;">21 वीं सदी और बिहार की पुलिस</span><br /><br />‘ढम ढमा ढम ढम........होशियार, खबरदार अब हम इक्कीसवीं सदी में जा रहे हैं।‘ एक शोर उठा और हमें लगा कि शहर में कोई नया सर्कस आया है। अभी हम यह समझ भी न पाए थे कि हमारे इक्कीसवीं सदी में जाने से कौन सा इंकलाब आएगा, तभी अचानक अखबार में छपे बिहार पुलिस के एक कारनामे ने सबकुछ स्पष्ट करके रख दिया। उसने बता दिया कि इक्कीसवीं सदी में जाने का अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं कि कंप्यूटर प्रणाली का इस्तेमाल कर तमाम काम करने वाले हाथों को बेकाम कर दिया जाए, भूखे नंगे गरीब किसान मजदूरों की एक ऐसी फौज तैयार कर दी जाए जो मुट्ठीभर सरमाएदारों के सामने रोए-गिडगिडाए और अपने जीवन की भीख मांगे, बल्कि यह भी कि इस सदी में एक ऐसा इतिहास गढा जाए जिसकी अपनी एक मौलिकता हो.......जिसपर कुछ खास लोग गर्व कर सकें।<br />सच, अभी कितने पिछडे हुए थे हम। बीसवीं सदी में जो थे। अब आप ही बताइये, क्या यह एक राष्ट्रीय दुख का विषय नहीं कि हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी महात्मागांधी को राष्ट्रद्रोही नहीं साबित कर सके और न चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, राम प्रसाद बिस्मिल को गुंडा कातिल और लुटेरा।.....आखिर क्या करते रहे अबतक हम। शायद इसी लिए अबतक बीसवीं सदी में थे। अगर यह सबकुछ कर लिया होता तो इक्कीसवीं सदी में न पहुंच जाते।<br />खैर, देर आए दुरुस्त आए। अब चिंता की कोई बात नहीं है। हम प्रवेश कर गए हैं इक्कीसवीं सदी में। अच्छी तरह से पहुंच जाने के तमाम-तमाम लोग प्रयासरत भी हैं, और शायद इस मामले में सबसे ज्यादा सक्रिय है बिहार की पुलिस। पहले भी रही है। खास लोगों की नजर पहचानती है वो। जानती है कि इक्कीसवीं सदी में जाने के लिए क्या-क्या करना है। इसी लिए तो वह चाहे कैदियों की आंख फोडने का दायित्व हो अथवा कुछ खास इशारों पर गरीबों के घर उजाडने, उनकी बहन बेटियों की इज्जत लूटने का, सब कुछ बखूबी निभाती रही है।<br />आज उसने भीष्म साहनी, शानी और महीप सिंह सहित देश के दो दर्जन नामी गिरामी साहित्यकारों एवं उनके पत्रों को नक्सलवादी घोषित कर ही दिया है। अब वह दिन दूर नहीं जब वह बापू को राष्ट्रद्रोही, आजाद, भगत, बटुक और बिस्मिल को गुंडा कातिल और लुटेरा बताएगी। फैज और इकबाल को लफंगा और मवाली करार देगी, जिसपर खुशी से नाचे, झूमे और गाएंगे उन लोगो के दिल जो इक्कीसवीं सदी में जाने का सपना संजोने और उसे साकार करने में लगे है।.......और फिर आयोजित होंगे, बडे-बडे समारोह जिनमें पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ यह वर्ग विशेष यह घोषणा करेगा कि अब हम इक्कीसवीं सदी में पहुंच गए हैं, और साथ ही यह घोषणा भी होगी कि हम इस खुशी के मौके पर बिहार पुलिस को ‘ पुलिस आफ द इक्कीसवीं सदी ‘ के पुरस्कार से सम्मानित करते हैं।<br />(अमर उजाला के 2 फरवरी 1986 के अंक में प्रकाशित)</span>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-61315765506753063742008-12-30T10:07:00.000-08:002008-12-30T10:12:24.536-08:00<span style="font-size:130%;"></span><br /><p><span style="font-size:130%;"><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">सही रास्ते का चुनाव<br /></span><span class=""></span></span></p><p><span style="font-size:130%;">जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं जब सामने कई रास्ते होते हैं और व्यक्ति को यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि वह किस रास्ते पर कदम बढाए। ऐसा ही कुछ उस दिन मेरे साथ भी था जब मैं कमल के साथ कानपुर जाने के लिए ट्रेन में सवार हुआ था। घर से स्टेशन आते समय रास्ते में मेरे द्वारा लिखे गए बालगीतों की तारीफ सुन कर मैं खुश तो जरूर हुआ था लेकिन अंतरमन में कहीं एक द्वंद चल रहा था। द्वंद इस बात को लेकर था कि कमल से मुलाकात के बाद से मेरा रोज देर रात तक घर से बाहर रहना, घर पर रहने के दौरान पढाई की किताबों को छोड कविताएं और कहानियां लिखते रहना पिता जी को बहुत नागवार गुजर रहा था। वह हमेशा बडबडाते रहते थे। उनकी चिंता इस बात को लेकर थी कि अगले ही साल उनका रिटायरमेंट था। बहुत सी उम्मीदें सजों रखीं थीं उन्होंने मुझसे। वैसी ही उम्मीदें जैसी कि हर बाप अपनी औलादों से करता है। चूंकि मैं अपने तीन भाई बहनों में सबसे बडा था इस लिए उनका मुझसे उम्मीद करना जायज भी था.......लेकिन अफसोस, मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। वह अलग बात है कि मैने कालांतर में उनके द्वारा छोडी गई सभी जिम्मेदारियों को भली भांति निभाया लेकिन मेरा वह बूढा बाप मेरी ओर से पूरी तरह निराशा में लिपटा हुआ ही इस दुनिया से चला गया। कचहरी में काम करने वाला वह मामूली क्लर्क बेटों को डाक्टर और इंजीनियर बनाने का बडा सपना संजोए था और बेटा , यानीकि मैं, कुछ और ही ठाने बैठा था।<br />वैसे देखा जाए तो शुरू में सब ठीक ठाक चला। हाई स्कूल तक मैं बहुत अच्छा स्कालर रहा लेकिन उसी दौरान मेरी एक छोटी बहन की पैदाइश और उसकी बीमारी को लेकर होने वाली भाग दौड और खर्च ने जहां पिताजी को तोड कर रख दिया वहीं मैं भी स्कूल में गलत संगत में पड गया। एक ओर मां और पिताजी मेरी उस छोटी बहन को लेकर डाक्टरों के चक्कर लगाते फिरते थे वहीं मैं स्कूल में कुछ बदमाश लडकों की संगत में स्कूल बंक कर फिल्में देखने और गांजा व चरस जैसे नशों के फेर में पड गया था। पूरे एक साल हजारों रुपए फूंकने के बाद भी मेरी छोटी बहन जीवित नहीं बची। चूंकि मेरे पिताजी की दुनियां कचहरी और घर के सिवा कुछ भी नहीं थी, शायद इसी लिए जब मेरी वह छोटी बहन मरी तो उसके शव को घर से गंगाघाट तक लेकर जाने के लिए मेरे और पिताजी के सिवा कोई नहीं था। उस मासूम बच्ची की लाश को अपनी दोनों बांहों में उठाए पिताजी और मैं टैंपो पकड कर उन्नाव से शुक्लागंज के गंगा घाट पर गए थे और पंडे ने मेरी उस बहन के शव को एक बडे पत्थर से बांध कर गंगा में प्रवाहित कर दिया था। मैं रो रहा था। पिता जी मुझे समझा रहे थे। रोते नहीं बेटा , मैं तुम्हारे लिए दूसरी बहन ला दूंगा। मैं लगातार रोए जा रहा था। पिताजी ने भी अपने आंसू आंखों में समेट रखे थे। शायद इस लिए कि मुझ पर उसका बुरा असर न हो। यह वह घटना थी जिसने मेरे मन में एक बात बडी ही गहराई से उतार दी कि व्यक्ति को सामाजिक होना चाहिए। अगर मेरे पिता जी का कोई सोशल सर्किल होता तो हमें बहन के शव को गंगा में प्रवाहित करने के लिए अकेले नहीं जाना होता। ऐसे जीने से भी क्या फायदा कि पैदा हुए ,खाया, पिया, बच्चे पैदा किए और मर गए। कुत्ते- बिल्लियों की तरह। लानत है ऐसी जिंदगी पर।<br />शायद यही कारण था कि स्कूल में मेरा सर्किल बहुत बडा था। बस एक ही बात थी दिमाग में हमे ऐसा कुछ करना है जिससे कि दुनियां हमें जाने। वह अलग बात है कि अच्छे और बुरे में अंतर करने की सलाहियत न होने के कारण मेरे स्कूल के सर्किल में दोनों तरह के लोग मुझसे जुडे। संगीत और अभिनय में मेरी रुचि थी सो स्कूल में अनिल बवाली मेरा अच्छा दोस्त था। किशोर कुमार के गाने वह बिल्कुल उन्हीं की आवाज में गाता था। वह एक हलवाई का बेटा था। अनिल के साथ ही ललित , पूर्णेंदु , कमल किशोर शर्मा और दिलीप लाला भी मेरे दोस्त थे।<br />उधर घर में आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। पैसे न मिलने के कारण इंटरमीडिएट में मैं अपने जूलोजी प्रेक्टिकल की फाइल तक नहीं बना पाया था। किसी तरह मांग जांच काम चलाया। इम्तहान हुए लेकिन घर की परेशानियों और वैचारिक उथल पुथल के बीच नतीजा यह निकला कि मैं इंटरमीडिएट में फेल हो गया।<br />रिजल्ट देख कर पिता जी का पारा सातवें आसमान पर था। उन्होंने घोषणा कर दी कि अब वह मुझे और आगे नहीं पढा सकते। बस , एक ही ताना था कि जैसे भी हो कुछ कमाओ। कुछ नहीं तो कम से कम अपना खर्च तो निकालो। आखिर दो बच्चे और भी हैं घर में। जो भी जमा पूंजी थी उसे तुम्हारी बहन के इलाज में खर्च कर चुका हूं मैं। सोचा था कि बेटा बडा होगा तो सहारा देगा और एक यह पैदा हुआ है हमारे घर में जिसे नाटक ड्रामों से ही फुरसत नहीं है। कम से कम ग्रेजुएशन तो कर लेता तो डीएम साहब से हाथ पांव जोड कर क्लर्क ही लगवा देता.......लेकिन यह हरामखोर तो इंटर भी नहीं कर पाया। .........अरे कायस्थों के घर में जन्म लिया है.......पढे लिखेगा नहीं तो क्या भीख मांगेगा......ऐसों को तो कोई भीख भी नहीं देता। पिता जी धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। मां, घर के एक कोने में अपनी साडी के पल्लू में सिर छुपाए सुबक रही थी। दोनों भाई बहन सहमे हुए से आंखों में आंसू भरे चारपाई पर बैठे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है।<br />उधर मैं..दुखी भी था और पिता की बातों को लेकर गुस्से में भरा हुआ भी। अंतरमन में कहीं कोई संकल्प जन्म ले रहा था क्योंकि मैं और पिता जी , दोनों एक दूसरे की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे थे। अपेक्षाएं हमेशा दुख का कारण बनती हैं। सुखी रहना है तो अपेक्षाओं को त्यागना होगा।<br />मुझे नहीं पता कि पिताजी ने मुझसे अपनी अपेक्षएं त्यागीं या नहीं लेकिन उस दिन से ही मैने उनसे की जाने वाली सारी अपेक्षाएं त्याग दी थीं। भूल गया था मैं, कि मुझे डाक्टर बनना है। सीपीएमटी की तैयारी करनी है। बस एक ही लक्ष्य था कि पैसे और नाम कमाना है। पैसे ,कम से कम इतने कि जिससे मैं अपनी पढाई और अपना खर्च उठा सकूं। पिता पर बोझ न बनूं। नाम, कम से कम इतना कि मरूं तो मेरे शहर के लोग तो जानें ही कि कोई शख्स था जो मर गया। ........................मैं बडी ही खामोशी के साथ पिताजी को बडबडाता छोड कर घर से बाहर आ गया।<br />शाम का वक्त था......हमेशा कि तरह स्कूल के सभी दोस्त स्कूल के पास वाली रेलवे क्रासिंग पर रामफूल पान वाले की दुकान पर जमा थे। पूर्णेदु और दिलीप लाला गांजे की सिगरेट भरने में लगे थे। अनिल बवाली और ललित अलग खडे आपस में बाताचीत कर रहे थे। मुझे देखते ही दिलीप ने आवाज दी। आ जा यार ओपी। इस बार रिजल्ट बहुत खराब रहा........।<br />हां......मैने सहमति में सिर हिलाया।<br />लेकिन, यार तू हिंदी में कैसे फेल हो गया...तेरी तो हिंदी बहुत अच्छी है ?<br />पता नहीं यार......मैने एक गहरी सांस भरी। सिगरेट भर रहा है क्या...मैने पूछा तो दिलीप ने गांजे से भरी एक सिगरेट मेरी ओर बढा दी.......ले यार, तू भी गम गलत कर ले।<br />मैने दिलीप से सिगरेट लेकर जलाई और अभी आया कह कर वहीं कुछ दूर खडे अनिल बवाली और ललित की तरफ बढ गया।<br />यार अनिल मुझे कुछ बात करनी है तुझसे.....................मैं अनिल से मुखातिब हुआ।<br />तब तक गाडी कानपुर सेट्रल के प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी और कमल मुझे कंधे पकड कर हिला रहा था। कहां खो गए ओपी.......कानपुर आ गया। आओ चलते हैं।<br />मैं अचानक चौंक कर उठा था.......हां, आओ चलते हैं।<br />(क्रमश:) <br /><br /><span style="color:#ff0000;"><span style="font-size:180%;">लघु कथा</span><br /></span></span></p><p><span style="font-size:130%;">क्योंकि........?<br /><br />‘अ’ एक जानवरों का व्यापारी है। उसकी बकरी ने एक बच्चा दिया है।<br />‘अ’ खुश है क्योंकि.......?<br />‘ब’ एक (?) है। उसके घर एक बच्चा हुआ है। वह खुश है क्योंकि...?<br />‘अ’ अपनी बकरी के बच्चे की दिनरात सेवा करता है क्योंकि.........?<br />‘ब’ अपने लडके को खिलाता पिलाता, पढाता लिखाता व प्यार करता है क्योंकि....?<br />‘अ’ की बकरी का बच्चा अब बडा व तंदरुत हो गया है। ‘अ’ खुश है क्योंकि.........?<br />‘ब’ के लडके न एमबीबीएस कर लिया है। वह डाक्टर बन गया है।<br />’ब’ खुश है क्योंकि.......?<br />‘अ’ बाजार में सीना फुला कर खडा है और उस बकरे की बारह सौ रुपये कीमत मांग रहा है क्योकि.......?<br />(नीलामी पूरे शाबाब पर है)<br />‘ब’ अपने डाक्टर लडके के लिए लडकी वालों से साठ हजार रुपए दहेज मांग रहा है क्योंकि...............?<br />(नीलामी पूरे शाबाब पर है)<br />बकरी का बच्चा जो अब अच्छा खास बकरा है, सब कुछ देख रहा है, मगर चुप है क्योंकि..............?<br />लडका जो अब डाक्टर है, सब कुछ देख रहा है, मगर चुप है क्योंकि......?<br />वह एक निरीह पशु है !<br />वह एक निरीह (?) है।<br />(सारिका के 1-3-1982 के अंक में प्रकाशित)<br /><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">लघु कथा<br /></span></span></p><p><span style="font-size:130%;">रोटी<br />गंदली नालियों के किनारे बसी टूटे फूटे मकानों की उस झोपड पट्टी में बुधुवा के घर दो दिनों से चूल्हा नहीं जला था। बुधुवा का वर्षीय बच्चा कलुआ मारे भूख के दरवाजे पर खडा रो रहा था। घर के सामने कूडे के ढेर पर कुछ कुत्ते अपने पंजों से कुछ खोदने में जुटे थे।<br />अचानक नन्हें कलुआ की निगाह कूडे के ढेर में किसी चीज पर जाकर अटक गईं और उसके छोटे छोटे पांव उस कूडे के ढेर की ओर बढ चले। कलुआ को देख कूडे के ढेर पर उछल कूद मचाते कुत्ते एक ओर हट कर खडे हो गए। कलुआ ने कूडे के ढेर से एक सूखी हुई धूल सनी रोटी, जिसे देख कर वह वहां आया था, अपने हाथों में उठा ली और उसे बडे चाव से खाने लगा। तभी एक कुत्ते ने आश्चर्य से उसे देखते हुए कहा- ऐ..तुम तो आदमी के बच्चे हो, तुम यह कूडे के ढेर में पडी धूल सनी रोटी क्यों खा रहे हो। तुम्हें तो अच्छी रोटी मिलनी चाहिए।<br />यह सुनकर कलुआ ने उस गंदी रोटी को एक बार िफर गौर से देखा और उसी चाव से उसे खाते हुए वहां उसकी ओर देख रहे कुत्तों को घूरने लगा। मानो कह रहा हो- तुम कुत्ते हो न, इस लिए यह बात समझते हो।<br /><br />(दैनिक जागरण के 28-7-1985 के अंक में प्रकाशित)<br /><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">व्यंग्य<br /></span><br />सिर्फ चारे का सवाल है बाबू<br /><br />आप मानें या न मानें चारा है बडे काम की चीज। खास कर आज के दौर में इसकी महत्ता के विषय में ‘बिन चारा सब सून ’ जैसी कहावत का प्रयोग अतिशयोक्ति न माना जाएगा।<br />जरा गौर से देखें तो पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा चारे के हाल से वाकिफ मिलेगा। कहीं कर्मचारी अधिकारी को चारा डालता मिलेगा तो कहीं चतुर अनाडी को अक्सर यह भी सुनने में आता ही रहता है कि अमरीका हिंदुस्तान सहित पाकिस्तान और दूसरे देशों को चारा डाल रहा है।<br />कसम हिंदुस्तान के काल्पनिक समाजवाद की यहां तो हर तरफ चारा ही चारा है और शायद यही कारण है कि मुझे हिंदुस्तान में रह कर छज्जू मियां के घुडसाल की याद बहुत आती है। कसम से......वहां भी चारो तरफ चारा ही चारा होता था, लेकिन एक अच्छाई थी कि मियां की घुडसाल से निकले कि चारावाद समाप्त, मगर यहां तो पीछा ही नहीं छोडता कमबख्त। नजर उठाई कि बस चारा। लगे पडे हैं लोग, जैसे हिंदुस्तान में चारा डालने के सिवा कोई काम बचा ही नहीं है।<br />स्कूल में जाओ तो छात्र अध्यापक को चारा डालते मिलेंगे। व्यापारीगण सीमेंट का परमिट और राशन का कोटा पाने के लिए चारेबाजी में ऐसा मस्त होते हैं कि कृष्ण की बांसुरी में गोपियां भी उतना मस्त न होती होंगी। इतने से ही मामला रफा दफा हो जाए तो भी गनीमत, मगर यहां तो इश्क और मुश्क में भी चारे का ही बोलबाला है। बनन में बागन में बगरो बसंत की तरह चारा हर कहीं बिखरा पडा है।<br />जहां तक चुनावी प्रक्रिया में चारे की उपस्थिति का प्रश्न है, चारा यहां तो वैसे ही विद्यमान है आफिसों में भ्रष्टाचार, आदमी दुर्विचार, पढे लिखों में बेरोजगार और शिक्षा में व्यापार। कहीं, कुछ खाली नहीं। सब भरा भरा सा है। बिल्कुल चारे से लबरेज, और होना भी चाहिए, क्यों कि चारा ही सफलता का मूल मंत्र है।<br /> हमारे एक शोधार्थी मित्र के अनुसार चारेबाजी हिंदुस्तान में अंग्रेजों के समय से है। बस अंतर इतना है कि उनके समय में इसे बटरिंग का दर्जा प्राप्त था। अंग्रेज गए, आजादी मिली, मंहगाई आई, बटर पिघला....और जनाब ऐसा पिघला कि लोग देखने तक को तरस गए। रह गया सिर्फ चारा....केवल चारा...मात्र चारा।....वैसे, औकात औकात की बात है। बटरिंग के लिए करने और करवाने वाले, दोनों को एक बार सोचना पडता है। अस्तु , चारा ही ठीक है। बिना हर्र और फिटकरी के चोखा चोखा रंग, और फिर अब तो बडे बडे लोग चारे का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। नेता से लेकर अभिनेता तक चारेबाजी से अछूते नहीं हैं। चुनाव में चारे का प्रयोग अपने चरमोत्कर्ष पर होता है। इस दौरान जब भी कोई यह कहता है कि –‘ अमुक नेता जनता के आगे चारा डाल रहा है। ‘ मेरी आंखों के सामने अपने घोडों को चारा डालते छज्जू मियां नाचने लगते हैं। वैसे आम तौर पर देखा जाए तो चारा है भी जानवरों के इस्तेमाल की चीज। उनके आगे ही डाला जात है। .......अब आप मुझसे यह मत पूछिएगा कि ऊपर मैने एक दूसरे को चारा डालने के संबंध में जिन जिन लोगों को जिक्र किया, वह सब एक दूसरे को क्या समझते हैं।<br />फिलहाल इतना ही काफी है कि चारा अपने आप में महान है। इसके बिना तरक्की नहीं पाई जा सकती। इसके बिना कोटा परमिट नहीं मिल सकता। इसके बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता।<br />अभी कुछ ही दिनों की बात है। अखबार में एक खबर छपी थी। जरूरत है एक फडफडाते नारे की। खबर का मजमून था कि कांग्रेस को एक फडफडाते नारे की तलाश है। नारा मिल नहीं रहा है। मुझे लगा कि कोई बोला कांग्रेस को चारा नहीं मिल रहा है। ठीक बोला न.....। नारा चारा का ही पर्याय है। अब नहीं मिल रहा है तो परेशानी लाजमी है, क्योकि बिन चारा सब सून। समस्या है....सि र्फ कांग्रेस की ही नहीं बल्कि सभी दलों की। चर्चा है। चुनाव सिर पर। नामांकन हो चुके हैं। प्रचार शुरू है। सब कुछ मौजूद है, सिर्फ चारे का सवाल है बाबू।<br /><br />(पंजाब केसरी के 1-3-1985 के अंक में प्रकाशित)<br /> </span></p>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-68319661043840385532008-12-25T12:42:00.000-08:002008-12-25T12:48:33.927-08:00<strong><em><span style="color:#ff0000;">रचनाधर्मिता में बाजारवाद<br /></span></em></strong>चार्चित व्यंग्य लेखक कमल किशोर सक्सेना से पहली मुलाकात के बाद देर रात घर लौटने के बाद से सुबह तक दो शब्द मुझे पूरी रात परेशान किए रहे। एक शब्द था लेखन और दूसरा व्यावसायिक लेखन अर्थात प्रोफेशनल राइटिंग। उस समय, जहां तक मैं समझ पाया कि लेखन स्वतंत्र रूप से अपने मौलिक विचारों, अनुभवों और संवेदनाओं को साहित्य की किसी भी विधा में उतार देना मात्र है, और व्यावसायिक लेखन समाज की वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में प्रकाशक की मांग के अनुरूप अपने विचारों को साहित्य की किसी भी विधा के ऐसे रूप में आकार देना है जो न सिर्फ विचारों के स्तर पर पाठक को आंदोलित कर सके बल्कि उसे खरीदने के लिए पाठक को बाध्य भी कर सके। कुल मिला कर नतीजा यह निकला कि अगर छपने के लिए लिखना है तो बाजार और उसकी मांग पर नजर रखना बहुत जरूरी है।<br />.....................िफलहाल वैचारिक द्वंद के बीच किसी तरह रात कटी। पढने लिखने और आपसी मुलाकातों का यह सिलसिला चल निकला। मूल रूप से मैं कविताएं लिखता था, इस लिए उन पत्रिकाओं को विशेष रूप से पढना शुरू किया जिनमें कविताएं प्रकाशित होती थीं। अब शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता जिस दिन हमारी कमल से मुलाकात न होती हो। हमारे बीच सहजता इतनी थी कि आहिस्ता आहिस्ता कमल जी मेरे लिए कमल और मैं उनके लिए ओपी हो गया। वक्त गुजरता गया एक महीने में मैंने जहां जहां जितनी भी रचनाएं भेजीं वह संपादक के अभिवादन एवं खेद सहित की पर्चियों के साथ वापिस आ गईं। इस असफलता को लेकर मन बहुत दुखी था। मैं और कमल रात में उन्नाव के उसी बडे चौराहे की चाय की दुकान पर बैठे थे। मैने आशंका व्यक्त की...........शायद मैं स्तरीय नहीं लिखता।<br />कमल ने अपने थैले से बीडी निकालते हुए मुझे हौसला दिया........नहीं, ऐसा नहीं है, तुम अच्छा लिखते हो लेकिन हो सकता है तुमने अपनी जो रचना जिस पत्रिका के लिए भेजी वह उसके अनुरूप न रही हो। इस लिए लिखना जारी रखो...........। कमल ने एक बीडी मेरी ओर भी बढा दी जिसमें एक लम्बा कश लेकर मैने बडा सुकून सा महसूस किया।<br />कमल ने भी अपनी बीडी में लम्बा कश लगा कर ढेर सारा गाढा धुआं उगला और मुझसे मुखातिब हुआ..................तुम कविताओं और गजल के साथ ही साथ अन्य विधाओं में क्यों नहीं कोशिश करते ? आचानक मेरी सवालिया निगाहें कमल की ओर उठ जाती हैं........? कमल मुझे समझा रहे थे.........देखो, बाल साहित्य लिखने वालों की बहुत कमी है, नाटकों पर भी कोई काम नहीं हो रहा है। शैक्सपियर, विजय तेंदुलकर, शंकर शेष, सुशील कुमार सिंह जैसे कुछ चर्चित नाटककारों के नाटकों को मंचित करने के सिवा रंगमंच से जुडे लोगों के पास अच्छी स्क्रिप्ट नहीं है। ऐसे में अगर कोई अच्छा नाटक लिख सको और कोई इप्टा जैसी कोई बडी संस्था उसका मंचन करे तो एक दिन में तुम्हारा नाम चर्चा में आ सकता है। इसी लिए मैने भी कुछ नाटक लिखे हैं।<br />............कमल की इन बातों पर मैने भी सहमति में सिर हिलाया। इसी बीच चाय वाला मिट़टी के कुल्हड में हम दोनों को चाय पकडा गया। कुल्हड मुंह के पास ले जाते ही अदरक वाली चाय की भाप के साथ मिट़टी की एक सोंधी गंध नथुनों से होती हुई दिमाग में जाकर बस गई। रचनाएं न छपने से हुई निराशा कुछ हद तक कम हुई थी.............तुम ठीक कहते हो कमल भाई, अब काव्य के साथ दूसरी विधाओं में भी कोशिश करूंगा।<br />यार मैं सोच रहा हूं कि अपनी एक लघु नाटिका सस्ते दामाद की दुकान का मंचन करू.......कमल ने बातचीत के सिलसिले को आगे बढाया।<br />अच्छा आइडिया है......मैने भी हामी भरी....।<br />इसमें कोई बडा नाटक भी जोड लेते हैं........मैने सुझाव दिया।<br />यह वह दौर था जब जगह जगह हिंदू मुस्लिम विवाद हो रहे थे। ऐसे में हम दोनों की बातचीत में यह तय हुआ कि हिंदू मुस्लिम एकता पर कोई अच्छी स्क्रिप्ट हो तो उसे तैयार किया जा सकता है। योजना बनी कि कानपुर चल कर यूनिवर्सल बुक डिपो से कोई स्क्रिप्ट लाई जाए। कमल ने बताया कि उसके कुछ मित्र हैं जो इस प्रोजेक्ट में हमारे साथ होंगे। उसने कहा कि वह उन सबसे हमें मिलवाएगा। उन मित्रों में कचहरी में मुंशीगीरी करने वाले मेराज जैदी, सप्लाई दफ़तर के एक क्लर्क गिरजा शंकर अवस्थी, डनलप मास्टर साहब और साडियों पर पेंटिंग करने वाले एक व्यक्ति के साथ ही साथ और भी कई नाम उसने गिनाए। कुल मिला कर एक पूरी टीम थी उसके पास और अब मै भी उस टीम का हिस्सा हो गया था। अगले दिन कानपुर जा कर स्क्रिट लाने की बात तय करके हम लोग अपने अपने घर की ओर चल दिये। उस समय रात के दो बजे थे। सूनी सडक पर मैं पैदल यह सोचता चला जा रहा था कि क्यों न हिंदू मुस्लिम एकता पर कोई गजल लिखी जाए..........क्योंकि यह उस समय का सबसे बिकाऊ मुद़दा था। मैं यूं ही कुछ गुनगुनाने लगा था। रात के सन्नाटे में सूनी सपाट सडक पर अकेले गुनगुनाते हुए चलने का अपना ही मजा था। लगभग पौन घंटे पैदल चलने के बाद जब मैं घर पहुंचा तो गुनगुनाहट के साथ उभरे कुछ शब्द इस अपरिपक्व रचनाकार की नई गजल के शेरों में तब्दील हो चुके थे। आइये उस गजल से आपको भी रूबरू कराता हूं..........<br /><span style="color:#ff0000;"><strong><em>गजल<br /></em></strong></span>दो कदम और जरा आपको चलना होगा।<br />अपना दावा है जमाने को बदला होगा।।<br />वो जो फुटपाथ पे किस्मत के भरोसे बैठे।<br />आज उठकर उन्हें फौलाद में ढलना होगा।।<br />ह से हिंदू है अगर म से मुसलमा कोई।<br />मिल के दोनों को अब हम में बदलना होगा।।<br />अब तो ये जिद है दिल चाहे नजारे देखें।<br />गर नजर है तो नजारों को बदलना होगा।1<br />जो अभी तक किसी शायर की गजल के से थे।<br />आज पूरा उन्हें दीवान सा बनना होगा।।<br /><strong>(13-6-1982 के स्वतंत्र भारत में प्रकाशित)<br /><span style="color:#ff0000;">गजल</span></strong><br />भरे हैं पेट जिनके सिर्फ ये उनकी खता है।<br />हमारे बीच हैं कातिल यहां सबको पता है।।<br />जिसने रात अपने भाइयों को कत्ल कर डाला।<br />अब के दौर में वो आदमी ही देवता है।।<br />जिम्मा है हिफाजत का हमारी जिसके सर।<br />वो खुद ही अपना सर बचाता घूमता है।।<br />एक लानत बन गया है धर्म भी।<br />आग में जलता हुआ हिंदोस्तां है।।<br />खून से डूबी हुई सडकों पे वो।<br />पागल ही तो है, मोहब्बत ढूंढता है।।<br /><strong>(दैनिक जागरण में प्रकाशित)<br />(क्रमश:)<br /></strong>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-66017275070458915432008-12-18T10:17:00.000-08:002008-12-18T10:19:00.593-08:00शिक्षक कौन...............<br />शिक्षक सिर्फ वही नहीं होते जो स्कूलों और कालेजों में हमें किताबी ज्ञान देते हैं। वह शिक्षक मेरी नजर में ज्यादा सम्मान के योग्य हैं जो दुयावी जिंदगी में हमें जीवन के संघर्ष पथ पर आगे बढने की प्रेरणा देते हैं। राह दिखाते हैं। ऐसे ही एक शिक्षक का जिक्र यहां करना चाहूंगा जो मुझे एक कवि गोष्ठी में दोस्त की शक्ल में मिले। नाम है कमल किशोर सक्सेना। एक दौर था जब कानपुर उन्नाव और लखनऊ के आस पास के क्षेत्रों में प्रतिष्ठित व्यंगकार के रूप में केपी सक्सेना के बाद अगर कोई नाम पहचाना जाता था तो वह कमल किशोर सक्सेना का नाम था। दैनिक जागरण और दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं में वह नियमित रूप से छपते थे। चूंकि उस समय तक मेरी कोई रचना कहीं नहीं छपी थी और न ही मुझे रचनाओं के प्रकाशन की प्रक्रिया और तौर तरीके पता थे, इस लिए मैं अपनी जानकारी बढाने के लिए वाकवि गोष्ठी से लौटते वक्त उनके साथ हो लिया। सर्दियों के दिन। उस रात उन्नाव शहर का वह बडा चौराहा घने कोहरे में डूबा हुआ था। रात के 12 बजे थे, मगर चौराहे पर पूरी रौनक थी। कई रिक्शे वाले चौराह के एक कोने पर बनी चाय की दुकान पर लगी पत्थर के कोयले की अंगीठी के आस पास चिपके हुए थे। वहीं कुछ लोग मैनपुरी तंबाकू की दुकान पर जमा थे। तंबाकू की एक फंकी के बाद ऐसी ठंड में उसकी गर्मी से माथे पर आने वाला पसीना सचमुच बडा सुकून देता था। तंबाकू खाना नुकासानदेह है यह जानते हुए भी यह शगल हमने भी पाला हुआ था। चाय वाले को दो चाय का आर्डर देकर मैं भी तंबाकूवाले की तरफ बढा। मैने कमल जी से पूछा......आप भी खाते हैं मैनपुरी ? उन्होंने इनकार में सिर हिलाया और कघे पर लटक रहे अपने खादी के झोले से चमन बीडी का एक बंडल और माचिस निकाल ली। मैं तो यह पीता हूं। तुम भी पिओगे। मैन भी उनसे राब्ता कायम करने की गरज से हामी भर दी और वहीं चाय वाले के सामने पडी बेंच पर उनके पास बैठ गया। उन्होने बीडी जला कर मुझे दी और खुद एक गहरा कश लेकर ढेर सारा धुआ उगल दिया। मैने भी एक लंम्बा कश मारा तो खांसी उठ पडी। सचमुच माथे पर पसीना आ गया। वह हंसे। पहली बार पी है। ........न नहीं। सिगरेठ पीता रहा हूं। यह जरा हार्ड है।<br />इस तरह बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। वह बता रहे थे। किस तरह अपनी रचना को एक फुल स्केप साइज पेपर पर कम से कम डेढ इंच हाशिया छोड कर साफ साफ लिखना चाहिए और उसके साथ संपादक के नाम एक पत्र जिसमें यह लिखा हो कि यह रचना आप की मौलिक अप्रकाशित और अप्रसारित है। इसके साथ ही रचना के प्रकाशन का अनुरोध किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि रचना और इस पत्र के साथ एक खाली लिफाफा जिसपर आपका पता लिखा हो और टिकट लगा है साथ में नत्थी करना चाहिए ताकि अगर आपकी रचना का उपयोग संबंधित पत्र अथवा पत्रिका में न हो पाए तो वह आपको वापिस मिल सके।<br />इस तरह वह पूरी प्रक्रिया मुझे समझा रहे थे और मै अंदर ही अंदर सपने बुनने लग गया था। इस बीच चाय भी आकर उदरस्थ हो चुकी थी। रात के तीन बज रहे थे। हम उठ खडे हुए। अच्छा तो चलें ओपी..............। उन्होंने मेरी तरफ हाथ बढाया तो मैने भी झिझकते हुए अपना हाथ उनकी ओर बढा दिया। झिझक इस लिए कि मेरे सामने क्षेत्र का एक चर्चित व्यंग्य लेखक खडा था। मैं थोडा असहज था लेकिन वो पूरी तरह सहज। बोले मिलते रहना...........। मैने कहा अगर आपको असुविधा न हो तो मैं कल दिन में आपके घर आ जाऊं। हां हां क्यों नहीं। उन्होंने सहमति व्यक्त की और हम एक दूसरे की विपरीत दिशा में चल पडे। दरअसल शहर के एक छोर पर मेरा घर था तो दूसरे पर उनका।<br />उस रात भले ही हम विपरीत दिशा में चले हों लेकिन अंतरमन से मैं उनके साथ रहा। घर पहुंच कर भी नींद नहीं आई। कालेज के लिए तैयार हुआ और कदम खुद ब खुद कमल के घर की ओर चल पडे। वहां पहुंचने पर कमल ने मेरा बडी ही गर्मजोशी से स्वागत किया। लगा ही नहीं कि यह हमारी दूसरी मुलाकात है। उन्होंने अपनी मां पिता और भाई से मिलवाया। मां ने चाय बनाई तो हम अपना अपना प्याला पकड कर छत पर बने कमरे में आ गए। यह कमल का कमरा था। आवास विकास से पहले रेलवे लाइन के किनारे बना कमल का यह घर अभी नया ही था। दीवारो पर प्लास्टर नहीं था। फर्श पर ईंटें बिछी थीं। बिजली का कनेक्श भी नहीं था। कमल ने बताया कि उनके पिता जी ने अपने पूरे जीवन की कमाई में धीरे धीरे यह घर बनया। अब कुछ पैसे इकट़ठे होंगे तो बिजली का कनेक्शन लेंगे।<br />इसी तरह बात करते हुए हम वहां पडी एक चारपाई पर बैठ गए। चारपाई के पास ही एक स्टूल पर कमल का राइटिंग पैड और एक कांच के गिलास में कुछ पेन पेंसिल रबर आदि लिखने का सामान रख था। एक आलमारी में कुछ किताबें और फाइलें रखीं थीं। कमल ने मुझे अपनी प्रकाशित रचाओं को कलेक्शन दिखाना शुरू किया। दैनिक जागरण , स्वतंत्र भारत, साप्ताहिक सुमन, सरिता, मुक्ता आदि कितनी ही पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य छपे थे। आल इंडिया रेडियों के सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम हवामहल में उनकी लिखी हास्य नाटिका सस्ते दामाद की दुकान उस समय खूब चर्चा में थी। मैने उनसे पूछा.....अच्छा यह बाताइये कि लिखते समय विषयों का चयन कैसे करते हैं। उनका सीघा सा कहना था कि आप जिस जिस पत्र अथवा पत्रिका के लिए लिखना चाहते हैं पहले उसे पूरी गंभीरता के साथ लगातार पढें ताकि आपको उसकी मांग के बारे में पता चल सके। प्रोफेशनल राइटिंग का यही एक आसान तरीका है। इसके अलावा लेखन के विषय अगर सम सामयिक हों तो ज्यादा बेहतर होगा। सिर्फ इतना ही नहीं छपने के लिए नियमित लिखने की आदत भी बहुत जरूरी है।<br />उन्होंने बताया कि लेखन की दुनियां में पैर जमाने के लिए यह जरूरी है कि एक लक्ष्य बनाएं कि रोज कम से कम तीन या चार रचनाएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं को भेजें। आम तौर पर नवोदित रचनाकारों की रचनाओं को प्रतिष्टित पत्र पत्रिकाओं के संपादक उतना तरजीह नहीं देते, लेकिन अगर हर रोज आपकी एक रचना उसकी टेबल पर पहुंचेगी तो कभी न कभी वह उसे देखने को मजबूर होगा। जिस दिन उसने आपकी रचना को देखा और एक रचना भी उसे क्लिक कर गई तो समझो बात बन गई। इसके साथ ही लगातार लिखने से आपके लेखन में पैनापन भी आता जाएगा..............। इस प्रकार बातों का यह सिलसिला पूरे दिन इसी तरह चलता रहा। मैने खाना भी वहीं खाया और रात दस बजे घर लौटा तो ऐसा लगा जैसे कालेज में एक लंबी क्लास अटेंड करके लौटा हूं।<br /><br />(यहां प्रस्तुत मेरी एक प्रकाशित रचना दोस्त एवं बडे भाई कमल किशोर सक्सेना को समर्पित है)<br /><br />अमिट हस्ताक्षर<br />हमें<br />बार बार क्यों कुरेदते हो तुम ?<br />क्यों देते हो / ऐसी<br />अनर्गल शिक्षा।<br />क्यों जोर देते हो.........<br />इस बात पर<br />कि मैं,<br />राम कष्ण गांधी<br />बु्द्ध ईसा नानक<br />मोहम्मद या अंबेडकर के<br />पद चिन्हों पर चलूं।<br />नींद से जागो / सोचो<br />यही पद चिन्ह<br />हमारे वर्तामान की ठोकरें हैं।<br />पल पल<br />भूत होता होता<br />हमारा वर्तमान<br />उलझा पडा है<br />इन्हीं ठोकरों में।<br />अस्तु / हमें<br />किसी का प्रतिरूप<br />बनने की शिक्षा मत दो।<br />दूसरों के पद चिन्हों पर<br />चलने को मत कहो।<br />हमें / स्थापित करने दो<br />जीवन की<br />नई परिभाषाएं<br />जीवन के<br />नए मूल्य<br />बिल्कुल मौलिक...............।<br />ताकि / हो सकें<br />इतिहास के पन्नों पर<br />हमारे भी..............<br />अमिट हस्ताक्षर<br />*********<br />(3 मार्च 1996 के अमर उजाला में प्रकाशित)op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-83933305083220984032008-11-26T02:14:00.000-08:002008-11-26T02:15:53.907-08:00<p>विभेद का द्वंद..............।<br />पिता की झिडकियों , झल्लाहटों और मां के उलाहनों के साथ ही साथ विभेद के द्वंद के बीच हिना के पौधे पर लगी कोपलें पकती चली गईं। परिवार के संस्कार , सच बोलो, बडों का आदर करो, गरीब को मत सताओ, धर्म के मार्ग पर चलो, ईश्वर पर भरोसा रखो के तमाम सारे उपदेश जीवन की राह में कदम कदम पर झूठे साबित हुए। झूठों को जीतते और सच का हारते देखा, धर्म के नाम पर अधर्मियों को सम्मानित होते और ईश्वर पर भरोसा रखने वालों को तिल तिल कर मरते देखा। गरीबों ने हमेशा साइकोलाजकली हमें ब्लैकमेल किया। तय करना मुश्किल था कि क्या सही है और क्या गलत। विभेद के इसी द्वंद से गुजरता हुआ जिंदगी के सफर में उस मुकाम पर पहुंचा जहां कालेज और कस्बाई रंगकर्म की दुनियां के कई अलग अलग चरित्र मेरे साथ जुडे। संवेदनाओं के जडें गहरी होती चली गई। स्वरूप। सौंदर्य के प्रति आसक्ति तो मेरे स्भाव में थी। सच कहूं तो जीवन के स्कूल में दाखिला हुआ। स्कूल की किताबों में मैने, क्या कुछ पढा मुझें आज भी नहीं पता। अनुभूतियों ने विस्तार पाया तो शब्दों ने कविता का रूप लिया....................। मेरे संस्कारों में रची बसी शब्द काव्य की पहली प्रतिमा कुछ इस तरह बनी..................<br /><span class=""></span></p><p>दर्द की संभावना हो<br />प्रीत की प्रश्नावली<br />सूर का हो बाल वर्णन<br />तुलसी कृत गीतावली<br />दर्द की संभावना हो प्रीत की प्रश्नावली।।<br />पंखुडी से होंठ कोमल<br />कोकिला स्वर, रूप चंदन<br />नयन सागर, जुल्फ बादल<br />उम्र पागल देह मधुबन<br />तुम प्रकाशित दीप दिप दिप दीप दिप दीपावली।<br />दर्द की संभावना हो प्रीत की प्रश्नावली।।<br />प्यार का तुम प्रथम चुंबन<br />पायलों का गीत रुनझुन<br />चूडियों की खनखनाहट<br />लोरियों की मधुर सुनगुन<br />हो मेरे मानस गगन पर, छा रही तारावली।<br />दर्द की संभावना हो प्रीत की प्रश्नावली।।<br /><br /><br />इस तरह, इस पहली कविता के साथ हिंदी साहित्य की कस्बाई जमात में मैने कदम रखा। और रफ़ता रफता यह सिलसिला आगे बढा। जो भी लिखा वह स्वांत: सुखाय ही था। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि मेरी सोच कल्पना और विचार के कैनवास को विस्तार देने में मेरे उन साथियो का ही हाथ रहा जो जीवन मे कदम कदम पर मुझे मिले और कहीं पीछे छूट गए। <br /><br />(क्रमश:)<br /><br /><br /> </p>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-65160213744274921932008-11-25T03:56:00.000-08:002008-11-25T03:57:21.839-08:00पहली कोपल<br />हिना पर रंग तो बहुत पिसने के बाद चढा। बीजारोपण हुआ मस्तों की नगरी वाराणसी के कबीर चौरा में। बीज में छुपे जीवन ने सिर उठाया। आजमगढ जिले की घोसी तहसील में एक नन्हा पौधा अपनी धरती से बाहर आया। नन्हीं नन्हीं अपनी दोनो भुजाओं को फैलाए हुए। मां और पिता के स्नेहिल गर्म सानिध्य से कोपलें फूटीं। नितांत निश्छल, निर्विवाद, निर्विकार। दुनियां के तमाम झंझावातों से बेखबर। एक वाक्य में कहूं तो प्यार ही प्यार बेशुमार.........। कहीं कोई कमी नहीं। वक्त अपनी रफ़तार से आगे बढता रहा। मां ने दुनियावी शब्द जंजाल से पहला परिचय कराया जो आम के बाग में लगने वाले प्राइमरी स्कूलों से गुजर कर कस्बों के स्कूलों का सफर तय करता हुआ कालेज तक पहुंचा। वह एक आदमी जिसके बारे में मां ने बताया था कि वह मेरा पिता है। जिसने हर पल अब तक किसी कवच की तरह मेरी रक्षा की थी अब बूढा हो चला था। उसके चौडे कंधे जिसपर सिर टिका कर मैने सुरक्षा के अहसास भरी न जाने कितनी नीदें ली होंगी, अब झुक गए थे। वह रिटायर हो गया था। घर चलाने के लिए मां पहले से सजग थी, इसी लिए उसने मेरे साथ ही साथ हाई स्कूल , इंटर और उसके बाद संगीत में प्रभाकर किया। अब वह एक स्कूल में संगीत की शिक्षिका थी। पूजा पाठ घर के काम और संगीत, बस वहीं उसकी दिनचर्या थी। मेरे अलावा एक बेटी और एक बेटे का भी बोझ था उनपर। बूढा बाप दिन भर अपनी पुरानी फाइलों में अपने फंड और बैंक की उन पुरानी पासबुकों को उठाता धरता रहता जिसमें पैसे के नाम पर कुछ भी नहीं था। क्यों कि उनकी जिंदगी का फलसफा ही खाओ पिओ ऐश करों मितरां वाला रहा। कल किसने देखा है वह अक्सर कहा करते थे। लेकिन जब, न खाओ, न पिओ, न ऐश करो की स्थिति हो, शरीर साथ न दे और सामने हो परिवार को चलाने की समस्या तो फ्रस्टेशन में लडने झगने के सिवा आदमी क्या करे..............।<br />मैं जानता हूं उनका कोई कुसूर नहीं था। मुझे साहित्य और अभिनय में रुचि थी। वह मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे। वह मेरे लिए जियोलाजी और बाटनी की किताबों का बंदोबस्त करते और में गोर्की, स्टालिन, हिटलर और टाल्सटाय को पढ रहा होता। वह मुझे साइंस क्विज में भेजते तो मैं आपने साथियों के साथ अपने नए शो के लिए होने वाले नाटक की रिहर्सल में पहुच जाता। साइंस की किताब के बीच कभी जब उन्हें तारशंकर वधोपाध्याय अथवा अमृता प्रीतम छुपी मिल जातीं तो वह बिफर उठते। यह लडका कुछ नहीं करेगा जिंदगी में। कुलीगीरी भी नसीब नहीं होगी इसे। अरे, हराम का माल नहीं है ये, तेरी मां पूरे दिन खटती है स्कूल में। मेरी पेंशन न मिले तो भूखों मरोगे सब के सब...................। किसी रात नाटक का शो होता और देर रात घर पहुचता तो पूरा घर सिर पर उठा लेते। हरामखोर, यह वक्त है घर लौटने का। पूरे दिन नचनिया, पदनिया बना घूमता है। न कोई काम न धाम। कहीं सब्जी का ठेला लगाता तो भी दो पैसे कमा कर लाता...................। उनके शब्द कानों में शीशे की तरह पिघलते थे उस वक्त।op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-6906453885374674742008-11-18T11:49:00.000-08:002008-11-18T11:55:43.794-08:00दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है, किसी भी काम की शुरुआत बहुत ही मुश्किल होती है, यह बात हमें इस ब्लॉग को शुरू करने के बाद पता चल रही है. ब्लॉग पर अपनी पहली पोस्ट डालने में इसी लिए विलंब हुआ. सोचता रहा की मैंने इस ब्लॉग में जो कुछ भी लिखने का मन बनाया है उसे कोई क्यो पढे . लेकिन फिर भी कहीं से शुरू करना था , इस लिए शुरू करता हू.<br />खाबो भरी उम् थी, सारे ज़माने को अपनी मुट्ठी में बाँध लेने की उम्र. रात होती तो सपने फूल की तरह झरते . हर सुबह एक नए सपने को रंग देने ki उमंग. किताबो में शब्द नाचते से लगते. शायद वहीं से शुरू हुआ शब्दों से खेलने का सिलसिला जो jaari है, लेकिन इस सिलसिले में तमाम बाधाएं भी है. ......और इन्ही बाधाओंने जिंदिगी को एक रंगत दी है....आप को याद हैं वो पंक्तियाँ ......मैं हूँ इक खुशरंग हिना.op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-792798390800785855.post-25569770718557561032008-10-06T06:39:00.001-07:002009-01-19T00:25:58.333-08:00<span style="font-size:130%;">मित्रो , ओपी की दुनिया में आप का स्वागत है. यह दुनिया भी आप की दुनिया की तरह उम्मीदों, संघर्षों , खुशियों , दुखों का एक ऐसा सम्मिश्रण है जिसमें बहुत कुछ नितांत व्यकितगत होते हुए भी ऐसा है जो हर किसी को न सिर्फ़ अपना महसूस होता है बल्कि जीवन में संघर्ष करते हुए निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. इसी लिए इस दुनिया को आप के साथ शेअर करने का मन बनाया है. उम्मीद करता हूँ की जो अच्छा हो उसे आप ग्रहण कर बाकि को भुला देगें. इसे बस एक ऐसा सफर माने जिसमे लोग मिलते है और बिछड़ जाते है. इस सफर में अगर कहीं कोई वात आप के दिल को छुए, आपकी संवेदना के तारों को झंकृत करे तो उससे मुझे अवश्य अवगत कराएं.....। मुझे आपकी टिप्पणियों को इंतजार रहेगा और वहीं मुझे ब्लागिंग के रास्ते पर आगे बढने की प्रेरणा देंगी। 09837128854 Saxena.op@gmail.com</span>op saxenahttp://www.blogger.com/profile/02837385075123596676noreply@blogger.com0